चरक संहिता का एक सूत्र है –
इच्छाद्वेषात्मिका तृष्णा सुखदुःखात् प्रवर्तते।तृष्णा च सुखदुःखानां कारणं पुनरूच्यते।।
उपादत्ते हि सा भावान् वेदनाश्रयसंज्ञकान्।स्पृश्यते नानुपादाने नास्पृष्टो वेत्ति वेदना।। (चरक संहिता शारीर स्थान 1/134-135 )
अर्थात: –
सुखों और दुखों से क्रमशः इच्छा और द्वेष स्वरूप तृष्णा की प्रवृत्ति होती है और फिर वही तृष्णा सुखों और दुःखों का कारण बन जाती है।
वही तृष्णा वेदना के आश्रयभूत शरीर और मन को दृढता पूर्वक पकडती है।स्पर्श के कारणभूत तृष्णा के अभाव में शरीर और मन एवं इन्द्रियों का संयोग नहीं होगा तब इनके संयोग के अभाव में अर्थो का संयोग नहीं होगा , अतः वेदना का भी ज्ञान नहीं होगा।
तृष्णा , रज और तम स्वरूप होती है इसी कारण मनुष्य अनेको प्रकार के अच्छे और बुरे कार्य करता है जिसका फल आत्मा भोगता है परिणाम स्वरूप अपने कर्म के फलो को भोगने के लिए बार – बार जन्म – मरण लगा रहता है जिससे दुःख की परम्परा नष्ट नहीं होती , जब तृष्णा आत्मा एवं मन से अलग हो जाती है तब आत्मा का पुनर्जन्म नही होता है।