ग्रहों का रोगों से सम्बध

ग्रहों का रोगों से सम्बध रोग की कभी-कभी पहचान नहीं हो पाती और गलत उपचार के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है, मगर यदि डॅाक्टर, वैद्य या चिकित्सक इस कार्य के लिए ज्योतिष का सहारा लें, तो वह सहजता से उस रोग को पहचान सकते हैं, जिसकी वजह से रोगी कष्ट में है और इस दृष्टि से ज्योतिष और रोग का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह लेख आप सभी के लिए इतना ही आवश्यक है, जितना कि एक ज्योतिषी के लिए। वैदिक ज्योतिष के अनुसार किसी ग्रह द्वारा प्रदत्त रोग उस पर शनि, मंगल या राहू के प्रभाव के कारण प्रस्फुटित होते हैं। इनमें शनि अग्रणीय है। कुण्डली जब शनि का सम्बन्ध कुण्डली के रोग भाव अर्थात् छठे भाव से हो या इसका सम्बन्ध आठवें या बारहवें भाव से हो तो यह अपने से सम्बन्धित रोग देता है। इस पर इसके शुत्र ग्रहों का प्रभाव रोगों के आरोह अवरोह एवं उनकी विविधता देता है, तब इसके द्वारा प्रदत्त रोग शनैः शनैः बढ़ते या घटते हैं। शनि के द्वारा रोग उसके कारकत्व में आने वाले अंगों में होते हैं।

ये अंग हैं त्वचा, हड्डियां, घुटने, पैर, पित्ताशय, दांत, टांगें, अड्रेनलिन ग्रन्थि, हड्डियो को जोड़ने वाली मांसपेशियों के तन्तु। शनि प्रधान रोगों में वात विकार जोड़ों का गठिया, बाय का दर्द, जहरीले पदार्थ का सेवन, शरीर में जहरीले पदार्थो के बनने की प्रक्रिया, जैव रसायनों या अजैव रसायनों की कमी या बढ़ोत्तरी से पैदा होने वाले रोग प्रधानतया आते हैं। दूसरे ग्रहों के प्रभाव के साथ शनि का योगदान निम्न रोगों में भी होता है- बालों के रोग, तिल्ली या प्लीहा सम्बधित रोग, दायें पैर के पंजे का रोग, रिकेटस, जिह्ना सम्बन्धी रोग, आंखों से सम्बन्धित रोग जैसे मोतियाबिन्द, नाक के रोग, अण्डकोशों का बढ़ना, कुष्ठ, राज यक्ष्मा, लकवा होना, पागलपन आदि। शनि की दुश्मनी सूर्य से है। सूर्य का प्रभाव शनि पर पड़ने पर रोगों की शुरूआत होती है। शनि जनित रोग, पीड़ा या शनि जनित दुःखों की शुरूआत अन्तिम 60 बर्षो के अन्तराल में प्रभाव जातक पर होता है। लग्न गत शनि जातक को आलसी, गन्धीला, कामुक तो बनाता ही है, साथ ही उसे नाक सम्बन्धित दोश, रोग भी देता है।
शनि का प्रभाव गुरु पर होने से आकृति विवर्ण होने लगती है, कफ की प्रधानता हो जाती है, दृष्टि मन्द होने लगती है, सफेद मोतिया बढ़ने लगता है, सन्तोष कम होता है। यदि लग्न गत शनि की दृष्टि चन्द्रमा पर पड़ जाय, तो जातक पराधीन जीवन व्यतीत करता है। पराधीन जातकों का शनि नीच का, दुर्बल, शुत्र क्षेत्री हुआ करता है। वैसे लग्न गत शनि वाले व्यक्तियों को अपने पारिवारिक सदस्यों के अधीन वृद्धावस्था व्यतीत करनी पड़ती है। परन्तु यदि लग्न गत शनि धनु, मीन या बुध की राशियों का ही (यानी चतुर्थेश या दशमेश की राशि का हो), तो राजरोग कारक होता है, परन्तु रोग को देने से वंछित नहीं होता है, हां उपयुक्त इलाज के साधन भी जातक को उपलब्ध कराता है, लेकिन रोग के समाप्त होने या न होने की शर्त नहीं है। मिथुन का लग्न गत शनि फोडे़ं, फुन्सी, दाद, कैन्सर का कारक होता है। ऐसे जातकों की कुण्डली में बुध पर या शनि पर सूर्य, मंगल या राहू का प्रभाव हुआ करता है लग्न गत कर्क का शनि भी उपरोक्त फलों का जनक होता है। ऐसा शनि कई स्त्रियों से यौन सम्बन्ध करा लेता है। इस योग में यदि शुक्र-राहू का सम्बन्ध हो ओैर शुक्र शनि की राशि में हो या राहू शनि की राशि में हो तो ऐसे जातकों को अप्सरा, यक्षिणी, जिन्नी आदि की सिद्धि आसान होती है, परन्तु इसके कारण उसका पतन भी होता है।

सिंह राशि या कन्या का लग्न गत शनि पुत्र सुख में बाधा कारक होता है। द्वितीय भावस्थ मेष या वृषभ का शनि अल्पायु कारक होता है। चेहरे पर चोट का निशान या दाग देता है मिथुन का दूसरे भाव का शनि, परन्तु इस फल के लिये बुध पर सूर्य, मंगल या गुरू का प्रभाव भी होना चाहिये। दूसरे भाव में कर्क या सिंह राशि का शनि हो, तो जातक अल्पायु होता है, सम्भवतया वह राजदण्ड का भागी भी बने। तुला, वृश्चिक राशि का द्वितीयस्थ शनि जातक को पेट के रोग देता है। मीन का द्वितीय भावस्थ शनि राजदण्ड प्रदायक होता है। क्रूर, पापी ग्रहों का फल तीसरे भाव में अच्छा कहा जाता है। प्रायः ज्योतिष के सार ग्रंथ इस फल के लिये एकमत हैं, परन्तु यह उपयुक्त नहीं है।
तीसरा भाव आठवें से आठवां भाव है।भावाति भावम् सिद्धान्त के अनुसार इस भाव का सम्बन्ध मृत्यु के कारणों से भी है। इस भाव का शनि प्रायः दूसरे मारकों के कारकत्व को लेकर प्रधान मारक बन जाता है। परन्तु तुला, मकर कुम्भ का शनि इस का अपवाद है, यहां शनि अरिष्ठ नाशक बन जाता है, कर्क, सिंह राशि का शनि अल्पायु प्रदान करने के साथ-साथ जातक को अस्वस्थ भी रखता है, ऐसे जातकों की मृत्यु अस्वाभाविक कारणों से और तत्काल होती है। कन्या व तुला का तृतीयस्थ शनि मृत सन्तान पैदा कराता है। यह फल मंगल के द्वादश भावस्थ होने पर अवश्यम्भावी होता है। पंचम भाव में भी राहू या केतु का प्रभाव होना आवश्यक है इस फल के लिये। कन्या या तुला का तृतीयस्थ शनि हो, सूर्य पर राहू या केतू का प्रभाव हो, तो भी जातक को मृत सन्तान होती है। यदि सातवें भाव पर पाप प्रभाव हो और शनि तीसरे भाव में हो, तो जातक की पत्नी का सम्बन्ध उसके देवर या पर पुरूष से होता है। वृश्चिक या धनु या तृतीयस्थ शनि जातक की पत्नी के लिये घातक होता है।
चैथे भाव के शनि का सम्बन्ध अष्टमेश के साथ होने पर माता का सुख कम होता है, जातक वात रोग से भी पीडि़त रहता है। इसकी पुष्टि जातक के बालों की अधिकता और लम्बे नाखून करते हैं। इस भाव में सूर्य या मंगल या राहू का साथ या प्रभाव (शनि पर) होने पर शनि हृदय रोग का भी प्रदायक है। मेष चतुर्थ भावस्थ शनि भी हृदय रोग कारक होता है। चतुर्थ भावस्थ शनि वृद्धि कारक और लम्बी आयु देता है, इस भाव में बृषभ, कर्क और सिंह राशि के शनि का यही फल है। मिथुन का शनि यदि चैथे भाव में हो और दूसरे आयु कारक रोग भी न हों, तो पुत्र के हाथों मृत्यु कराता है या पुत्रहीनता का कारक होता है। कन्या का चैथे भाव में शनि जीवन पर्यन्त रोग भय देता है। तुला या वृश्चिक राशि का चतुर्थ भावस्थ शनि वात रोग देता है। मीन राशि चैथे भाव में हो, शनि भी चैथे भाव में हो, तो पूरे परिवार को नष्ट करता है।
शनि और सूर्य की युति प्रायः शुभ नहीं होती है, परन्तु पांचवें भाव में शनि, सूर्य की युति बहुत से बुरे फलों को नष्ट करने वाली होती है। सामाजिक पहचान एवं शिक्षा के क्षेत्र में पांचवें भावस्थ शनि, सूर्य पर गुरू का साथ या इसकी दृष्टि बहुत शुभ होती है, परन्तु प्रेम के क्षेत्र में असफलता देती है। पांचवें भाव में कर्क या सिंह का शनि अल्पायु और वृश्चिक या मकर का शनि सन्तान हीनता देता है। यही गुण द्वितीय भाव का स्वग्रही शनि भी देता है।
छठे भाव का शनि महिलाओं की कुण्डली में सौत का योग बनाता है। इस भाव का शनि गुह्य रोग, प्रमेह, मुधमेह, लकवा, वात रोग, पोलियो का कारक होता है। द्वादशेश शनि द्वादश में बैठ कर भी यही रोग देता है। अष्टमेश होकर यदि शनि छठे भाव में पडे़, तो विपरीत राजयोग कारक माना जाता है। परन्तु यदि ऐसा शनि वृश्चिक या धनु राशि का हो, तो वात रोग या शूल रोग कारक, नशा कारक, होता है। इस भाव में शनि मेष राशि होने पर जिगर और आंख; वृषभ का होने पर आंख व गुदा रोग, पित्ताशय, हृदय का रोग; मिथुन का होने पर दमा, मस्तिष्क सम्बन्धी, गुदा रोगों का; कर्क राशि का होने पर आमाशय आंख, हृदय रोगों का; कन्या राशि का होने पर शनि मूत्र सम्बन्धी; तुला का होने पर डिप्थीरिया; वृश्चिक का होने पर मस्तिष्क रोगों का कारक बनता है। कन्या राशि का शनि छठे भाव में हो, तो गिरने से चोट और रास्ते या विदेश में मृत्यु देता है। छठे भाव में तुला का शनि गिरने से चैट दे सकता है तथा जीवन, विशेषकर बाल्यावस्था कष्टकर होती है। वृश्चिक का शनि छठे भाव में पड़ कर सर्प, विष से भय देता है। इस भाव में धनु या मकर राशि का शनि राजयक्ष्मा रोग देता है।

मकर राशि का शनि स्त्री संसर्ग से मृत्यु देता है, एड्स एवं यौन रोगों की प्रबल सम्भावना रहती है। छठे भावस्थ कुम्भ या मीन का शनि पुत्र सुख की न्यूनता देता है। सातवें भाव में शनि दाम्पत्य भाव को विषमय ही नहीं बनाता, बल्कि बरबाद कर देता है। जातक की धूर्तता, क्रूरता, निर्दयता और मलिनता पत्नी को दूसरे पुरूष के आगोश में जाने को मजबूर कर देती है। पत्नी का यौन सम्बन्ध देवर या निकट के सम्बन्धी से बन जाता है ऐसे परिप्रेक्ष्य में। सातवें भाव का शनि निचले कटि प्रदेश और जाघों के ऊपर के भाग में रोगों का प्रकोप पैदा करता है। ऐसा शनि या तो सन्तान होने नहीं देता और यदि हो गई, तो वह रोगिणी होती है। सातवें शनि वाले जातक बिन ब्याहे रह जायें, तो काई आश्चर्य नहीं। उसका स्वग्रही शनि भी दाम्पत्य जीवन को सुखमय नहीं बना पाता है। सातवें भाव में मकर, कुम्भ या तुला राशि का शनि हो, तो ऐसे जातक के आकर्षण का केन्द्र स्त्री का गुप्तांग होता है, वह उसका स्पर्श, मर्दन, करना चाहता है या करता है। सप्तम शनि वैश्या गमन या पर स्त्री सम्बन्ध बनाता है। इस भाव में शुक्र या मंगल का सम्बन्ध इसको बल प्रदान करता है। शनि-चन्द्र युति इसी कारण वश गृहस्थों के लिये शुभ नहीं होती।

उदासीनता, वैराग्य, आलस्य, यौन विकृतियां मानसिक या स्थूल स्तर पर परिलक्षित होती हैं। सातवें शनि-चन्द्र युति होने पर। परन्तु संन्यासियों को सातवें चन्द्र-शनि की युति अच्छी मानी गयी है। सातवें भाव में महिलाओं की कुण्डलियों का शनि भी यही फल देता है। सिंह राशि का सातवां शनि सांस के रोग देता है, कफ सम्बन्धी रोग भी होते हैं। दशम भावस्थ कन्या राशि का शनि भी कफ जनित रोग देता है। धनु, मकर का सातवें भाव में शनि फोडे़, फुन्सी, भगन्दर, बवासीर, स्त्री समागम जनित रोग, कैन्सर आदि रोगों का कारक होता है। इनमें से कोई भी रोग मृत्यु का कारण बन सकता है। अपने पाप प्रभाव का मूर्त रूप अष्टम भाव में शनि बन जाता है अकसर। केवल तुला, मकर या कुम्भ राशि का शनि अष्टमस्थ होकर दीर्घायु कारक होता है। पर जातकों को मध्यम स्वास्थ भी देता है।
आठवें भाव का शनि बादी, बवासीर, भगन्दर, गुह्य रोग, कोढ़, नेत्र विकार, पेचिश, हृदय रोग, दाद, खारिश, फोड़े, प्रेमह आदि बीमारियां पैदा करता है। अष्टम भावस्थ शनि राशि क्रम से मृत्यु का कारण बनता है।

भूख, उपवास से बहुत भोजन या भोजन न मिलना, रिश्तेदारों के हाथ, से संग्रहणी से, शत्रु के हाथों से, पीलिया से, राजयक्ष्मा रोग से, प्रमेह से, मानसिक बीमारी, चर्म रोग (खुजली), कांटा या इन्जेक्शन या सर्प दंश से, फोड़े या कैन्सर से, ऊपर से गिरने से या चोट लगने से मृत्यु की सम्भावना होती है। इस सम्भावना को ब्रह्म वाक्य में बदलने के लिये अष्टमेश का निर्बल होना और पाप प्रभाव में होना सम्बन्धित रोगों का कारण होता है।

मेष का अष्टमस्थ शनि सूर्य या राहू या केतु के प्रभाव के कारण पेट से सम्बन्धित विकार, नेत्र रोग, संग्रहणी, विषमय शरीर विकार देता है। जिन जातकों की कुण्डली में मिथुन या कर्क का अष्टम भाव में शनि होता है, उनके लिए राजदण्ड़, फांसी का भय पैदा रहता है। यदि चोरी करना मानसिक वृत्ति हो सकती है, तो यह अष्टम शनि की देन होगी, परन्तु द्वितीय भाव का शनि भी चोरी करने की प्रवृत्ति देता है। मीन राशि का अष्टमस्थ शनि संग्रहणी, सर्प भय, विष भय कारक होता है। नवें, दसवें, ग्यारहवें भाव का शनि अपना पापत्व खो देता है। संन्यासियों की कुण्डली में सप्तम शनि अच्छा माना जाता है। नवें भाव का शनि संन्यासी को मठाधीश बना देता है।
नवम भावस्थ शनि पैरों में विकार देता है। मेष, मीन का नवमस्थ शनि पुरूषत्वहीनता या बांझपन देता है। एकादश भावस्थ पाप प्रभाव वाला शनि मृत सन्तान पैदा कराता है। वृष राशि का एकादश शनि पत्नी को सन्तान के जन्म पर मरणासन्न बना देता है। बारहवें भाव में आकर शनि पापी बन जाता है। ऐसा जातक पूर्णतः संसारी बन जाता है।, धर्म-कर्म में उसकी आस्था नहीं होती है, आधि दैविक आधि-व्याधि को भोगता हुआ जीता है, उनका उपचार नहीं करता है। पसलियों के रोग, जांघ का फोड़ा आदि रोग धनु का शनि द्वादश भाव में देता है, ऐसे जातक दुबले-पतले शरीर वाले होते हैं, आखें छोटी-बड़ी होती है। बारहवां शनि राहू या सूर्य के प्रभाव के कारण अन्धापन या कानापन देता है, मस्तिष्क के विकार भी हो सकते हैं। मिथुन का शनि द्वादश भाव में बैठ कर आत्मघाती प्रवृत्ति जातक को देता है, विषैले जानवरों के काटने, विषैले इन्जेक्शनों, पानी में डूबने के कारण होने वाले कष्ट भी होते हैं। सिंह का द्वादशस्थ शनि पुत्र सुख नहीं देता है। तुला, वृश्चिक का शनि राज भय कारक होता है।

शनि, चन्द्र, सूर्य की युति पर यदि मंगल का प्रभाव हो, तो जातक का विवाह बांझ स्त्री से होता है। आठवें भाव में बुध के साथ आयु कारक माना जाता है और शनि-चन्द्र की युति वैराग्य कारक होती है, परन्तु यही शनि-चन्द्र की युति तीसरे भाव में हो और बुध आठवें पड़ा हो, तो जातक अल्पायु होता है, जातक का परिवार नष्ट हो जाता है, जातक की मां को दीर्घकालिक रोग होते हैं। शनि-मंगल की युति तृतीय या चतुर्थ भाव में हो, या इन भावों से तीसरे, आठवें या दसवें भाव में शनि-मंगल हो, तो जातक की पत्नी की मृत्यु शादी के शीघ्र बाद हो जाती है जातक को अपने भाई के साथ रहना पड़ता है। तीसरे या चैथे या सातवें भाव में शनि-बुध की युति प्रायः निरोग शरीर देती है, परन्तु इस योग में जातक नीच कुल की स्त्री के साथ रहता है। शनि-मंगल की युति सातवें या दसवें में हो, चन्द्रमा जन्म लग्न से तीसरे या चैथे हो और बुध चैथे, आठवें या बारहवें भाव में पडें हों, शनि, चन्द्र, बुध चैथे, आठवें या बारहवें भाव में पड़े हों, शनि, चन्द्र, बुध सातवें या दसवें भाव में हों, तो दस वर्ष की आयु में जातक की मृत्यु होती है। गुरू, शनि, चन्द्र यदि दूसरे या बारहवें भाव में हो, तो आखों की रोशनी नष्ट करते हैं। शनि-बुध की युति पर मंगल का प्रभाव छठे भाव में हो, तो जातक भाइयों से लड़ कर घर-द्वार छोड़ देता है।

 

एक्युप्रेशर-सिद्धान्त और पद्धति

एक्युप्रेशर-सिद्धान्त और पद्धति हमारा शरीर संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है।यह शरीर श्रेष्ठ स्वंयचालित, कोमल, नाजुक, सुक्ष्म पर अत्यंत शक्तिशाली यंत्रों से सुसज्जित है। हृदय और फेफड़े कभी न रुकनेवाले पंप हैं, आँखें आश्चर्यजनक कैमरा और प्रोजेक्टर हैं, कान अद्भुत ध्वनि व्यवस्था है, पेट आश्चर्यजनक रासायनिक लॅबोरेटरी  है, नाडि़याँ (छमतअमे) मीलों तक फैली सूक्ष्म संचार-व्यवस्था हैं, अनंत क्षमतावाला यह मस्तिष्क अद्भुत कॅम्प्यूटर है। और सबसे बड़ी विशेषता इसमें यह है कि इन सभी यंत्रो के बीच सहयोग के कारण हमारा यह मानव शरीर सौ से भी अधिक वर्षों तक सुचारु रुप से कार्यरत रह सकता है।

हम सौ वर्षों से भी अधिक समय तक सरलता पूर्वक जी सकते हैं। हर किसी अच्छे यंत्र में ऐसी रचना होती है जब भी कोई बड़ा खतरा पैदा होता है, वह अपने आप बंद हो जाता है और दोबारा तभी चालू होता है जब आप उसका बटन दबाते हैं-जैसे रेफ्रिजरेटर और गरम पानी का गीज़र। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसी ही कोई रचना-व्यवस्था हमारे मानव शरीर रुपी यंत्र मे भी हो। यह सच है कि हमारे शरीर की रचना बहुत ही जटिल है, परंतु उसकी देखभाल करना बहुत ही आसान है। प्रकृति ने स्वंय हमारे शरीर में ऐसी व्यवस्था की है, जिसके द्वारा अपने आप सभी यंत्रों की देखभाल सुचारु रुप से होती रहती है। भारत में सैकड़ों वर्ष पूर्व से एक्युप्रेशर थैरेपी प्रचलित थी।

दुर्भाग्य से हम उसे अच्छी तरह संभाल नहीं सके और ‘एक्यूपंक्चर के रुप में वह श्रीलंका जा पहुँची। श्रीलंका से बौद्ध भिक्षु इस चिकित्सा पद्धति को चीन और जापान ले गए। वहाँ इसका व्यापक प्रचार हुआ। आज चीन संपूर्ण विश्व को एक्युपंक्चर पद्धति सिखा रहा है। सोलहवीं शताब्दी में रेड इंडियन्स एक्यूप्रेशर पद्धति द्वारा पैर के तलवे के बिन्दुओं का दबाकर रोग मिटाते थे। एक्युप्रेशर शब्द ‘एक्युपंक्चर’ शब्द से सम्बन्ध है। ‘एक्यु’ आर्थात सूई और ‘पंक्चर’ अर्थात छेद करना। ‘एक्युपंक्चर’ का अर्थ है सूई द्वारा शरीर के किसी भी बिंदु पर छेदकर रोग नष्ट करने या शरीर के किसी अंग को निरोग बनाने की कला। ‘एक्युप्रेशर’ का अर्थ है उँगली, अंगूठे अथवा किसी कुंद साधन से दबाव देकर शरीर को निरोग रखने की पद्धति।

हमारा शरीर पंच महाभूतों अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश जैसे पाँच मूल तत्वों से बना है। विद्युत उसका संचालन करती है। एक्युपंक्चर पद्धति में इस विद्युत के दो प्रकार माने गए हैं-पहला पॉज़िटिव  (ची) तथा दूसरा निगेटिव (चेन)। यह विद्युत प्राण-जीवन-बैटरी से उत्पन्न होती है। पंच महाभूतों या पंच तत्वों पर हमारे शरीर की विद्युत का नियंत्रण है। पश्चिमी देशों में भी अब इस विद्युत को जीव-विद्युत (बायो-इलेक्ट्रिसिटी-ठपव. म्समबजतपबपजल) अथवा जीवन-शक्ति (बायो- एनर्जी-ठपव.म्दमतहल) के रुप में स्वीकृति मिली है। यह प्राणशक्ति जीवन-बैटरी हमारे शरीर में गर्भाधारण के समय से ही स्थापित हो जाती है। यह जीवन-बैटरी अपरिवर्तनीय है और इससे चेतनारुपी विद्युत-प्रवाह उत्पन्न होता है।

इस बैटरी से चकाचैंध करने वाला सफेद प्रकाश उत्पन्न होता है। इसे कुछ यौगिक क्रियाओं द्वारा कपाल के मध्य भाग में बंद आँखों द्वारा देखा जा सकता है। इस प्रकाश के दर्शन अनेक लोगों ने और स्वंय इस लेखक ने भी किए हैं। इस बैटरी से उत्पन्न विद्युत-प्रवाह हमारे शरीर में प्रवाहित होता है। इसे हम चेतना कहते हैं। इस विद्युत-प्रवाह की भिन्न-भिन्न रेखाएँ ‘मेरीडिअन्स’ कहलाती हैं। ये दाहिने हाथ की उँगलियों और अंगूठे के सिरे से आरम्भ होकर शरीर के सभी भागों में होकर दाहिने पैर के अंगूठे और उँगलियों के सिरों तक जाती हैं। उसी तरह बाएँ हाथ की उँगलियों और अंगूठे के सिरों से उत्पन्न प्रवाह शरीर के बाएँ हिस्से में घूमकर बाएँ पैर के अंगूठे तथा उँगलियों के सिरों से उत्पन्न प्रवाह शरीर के बाएँ हिस्से में घूमकर बाँए पैर के अंगूठे तथा उँगलियों के सिरों तक जाता है। जब तक चेतना का यह विद्युत-प्रवाह शरीर में ठीक ढंग से घूमता रहता है, शरीर तंदुरुस्त रहता है। अत्यधिक श्रम, छीज आदि कारणों से जब यह विद्युत-प्रवाह शरीर के किसी भी अवयव तक ठीक से नहीं पहुँच पाता, तब वह अवयव सुचारु रुप से काम नहीं करता, इसलिए उस हिस्से में दर्द या रोग होता है। अतः इस प्रवाह को यदि उस अवयव तक पहुँचाया जाए, तो वहाँ होनेवाला दर्द-पीड़ा अथवा रोग (यदि हुआ हो, तो) दूर हो जाता है। इस प्रकार एक्यूप्रेशर एक ऐसी प्राकृतिक चिकित्सा पद्यति है, जो हमारे शरीर की भीतरी रचना द्वारा वाँछित भाग में आवश्यकतानुसार विद्युत-प्रवाह पहुँचाकर हमें रोगों से दूर रखती है। संचालन व्यवस्था एक्युपंक्चर, शीआत्सु या पॉइंटेड प्रेशर थैरेपी के अनुसार हमारे शरीर में विद्यमान विद्युत-प्रवाह की शिराओं पर पूरे शरीर में लगभग 100 बिंदु हैं। इन बिंदुओं पर दबाव डालकर या पंक्चरिंग कर रोग को मिटाया जा सकता है।

सामान्य लोगों के लिए एक्युप्रेशर पद्धति को समझना तथा इस पद्धति द्वारा उपचार करना अत्यंत सरल है। अतः कोई भी व्यक्ति, भले ही वह दस वर्ष का बालक ही क्यों न हो, इस पद्धति का अध्ययन व अभ्यास कर सकता है। हमारे शरीर में विद्युत-प्रवाह का स्विच-बोर्ड हाथ के दोनों पंजों तथा पैर के  दोनों तलवों में स्थित है। भिन्न-भिन्न स्विच कहाँ हैं, इस का अध्यन किया जा सकता है। अधिकतर अवयव और अंतःस्रावी ग्रंथियाँ शरीर के दाएँ व बाएँ भाग में स्थित हैं। अतः उनके स्पर्श-बिन्दु भी दाएँ व बाएँ पंजों एंव पैरों के दोनों तलवों में हैं। हृदय और तिल्ली (प्लीहा) शरीर के बाईं ओर है, इसलिए उनसे संबंधित बिंदु हाथ के बाएँ पंजे या बाएँ पैर के तलवे में हैं। लिवर, पित्ताशय (ळंसस इसंककमत) और आंत्रपुच्छ (।चचमदकपग) शरीर के दांई ओर हैं, अतः उनके बिंदु दाएँ हाथ के पंजे या दाएँ पैर के तलवे में हैं। सूर्य केन्द्र को छोड़कर अन्य सभी अवयवों की प्रकृति से हम परिचित हैं। ये दोनों केन्द्र विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं, अतः यहाँ इनकी विस्तृत जानकारी दी जाती है। सूर्य केन्द्र इसको ‘नाभिचक्र’ भी कहते हैं।

यह छाती के नीचे स्थित सभी अवयवों का संचालन करता है। इस नाभिचक्र का उल्लेख केवल भारतीय आयुर्वेद में ही मिलता है, अन्य किसी थैरेपी में नहीं। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि इस थैरेपी की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी। डायाफ्राम (पेट के परदे) के नीचे स्थित कोई भी अवयव यदि ठीक से काम न करे तो इस बिन्दु पर दबाव देना होता है।
नाभिचक्र परखने की पद्धति है:- सुबह खाली पेट सीधे लेट कर यदि नाभि पर उँगली या अंगूठे से दबाया जाए, तो वहाँ हृदय की धड़कन महसूस होगी। ऐसी धड़कन महसूस करने पर समझ लें कि यह चक्र सही हालत में है। यदि नाभिचक्र ठीक ढंग से काम कर रहा हो, तो नाभि से दाएँ स्तनाग्र और बाएँ स्तनाग्र के बीच का अंतर समान होता है। किंतु यदि यह नाभिचक्र ऊपर या नीचे की ओर सरका हुआ हो, तो उपर्युक्त अंतर नापने से मालूम होता है कि यह चक्र ऊपर चढ़ा हुआ है या नीचे उतरा हुआ है। अत्यधिक बोझ उठाने, पाचनशक्ति मंद पड़ने या गैस के दबाव से नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरक जाता है। ऐसी हालत में धड़कन नाभि में नहीं, उसके आसपास मालूम होगी। अत्यधिक वजन उठाने अथवा अत्यधिक गैस उत्पन्न होने पर नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरकता है। नाभिचक्र के ऊपर की ओर सरकने पर कब्जियत होती है और नीचे सरकने पर वायु के दबाव के कारण दस्तें लगती हैं। जब दवाओं से भी यह तकलीफ दूर नहीं हो तो एक्यूप्रेशर पद्धति की सहायता अवश्य लेनी चाहिए।
पाचन-क्रिया अक्सर खराब हो जाती है! यदि यह शिकायत दीर्घ काल तक चलती है तो, और कभी-कभी ऑपरेशन भी कराना पड़ता है। इसमें दवाओं से भी लाभ नहीं होता। ऐसी स्थिति में यह संभावना अधिक रहती है कि नाभिचक्र ऊपर की ओर सरका हुआ हो। इसलिए कोई भी उपचार शुरु करने से पहले इस बात की जाँच कर लें कि नाभिचक्र ठीक अपनी जगह पर है या नहीं? नाभिचक्र घड़ी के मुख्य स्प्रिंग जैसा होता है। यदि उसे अपने स्थान पर न लाया जाए, तो किसी भी उपचार से अपेक्षित परिणाम नहीं निकल सकता। निम्नलिखित पद्धतियों में से किसी भी एक पद्धति द्वारा नाभिचक्र को केंद्र-अपने मूल स्थान-में लाया जा सकता है। ये सभी प्रयोग प्रातः खाली पेट या भोजन के 3, 4 घंटे बाद किए जा सकते हैं।

  1. अंगूठे से नाभि के इर्द-गिर्द दबाव देकर नाभिचक्र को केन्द्र की ओर ठेलना।
  2. नाभि पर वज़न रखकर नाभिचक्र को केन्द्र की ओर सरकाना।
  3. सीधे लेट जाइए। दोनों हाथ शरीर से सटाकर रखिए। किसी से अपने दोनों घुटनों पर दबाव देने के लिए कहिए। जो अंगूठा निचली सतह पर हो, उस पैर के घुटने पर भी अधिक दबाव दीजिए। यदि आवश्वकता हो, तो दूसरा व्यक्ति एक हाथ में दोनों पैरों के अंगूठे पकडे़ रखें और जो अंगूठा नीचे हो उसे ऊपर खींचने का प्रयास करें। इस पर भी यदि दोनों अंगूठे एक लाइन में न आ पाएँ, तो यही क्रिया दोबारा कीजिए।
  4. सीधे लेट जाइए। दोनों हाथ शरीर से सटाकर रखिए। सिर के नीचे तकिया न रखें, सिर को जमीन पर टिकाइए। दोनों पैर ऊपर उठाइए और उन्हें जमीन से 10 अंश के कोण पर रखिए। फिर सिर को बिना जमीन से उठाए दोनों पैरों को सीधे रखते हुए धीमे-धीमे जमीन पर लाइए। इस प्रकार पाँच-छह बार कीजिए। इसके बाद इसकी जाँच कीजिए कि नाभि में धड़कन महसूस होती है या नहीं?
  5. जमीन पर सीधे लेट जाइए। साँस बाहर छोडि़ए। अब पुनः साँस लेने के र्पूव पेट को फुलाइए और इस स्थिति में यथासंभव अधिक समय तक रखिए। नाभिचक्र के अपने स्थान पर आने तक यह क्रिया बार-बार दोहराते रहिए।
  6. बाएँ हाथ की कोहनी के जोड़ में हाथ की हथेली जमाइए और झटके से अंगूठे द्वारा बाएँ कन्धे का स्पर्श कीजिए। जब तक ये अंगूठा बाएँ कंधे का स्पर्श न करे, तब तक यह प्रयत्न जारी रखिए। इसी प्रकार यह क्रिया दाएँ हाथ से कीजिए और साथ वाली आकृति से परीक्षण कीजिए।

जब भी कब्जियत अथवा दस्त की तकलीफ हो, तो सर्वप्रथम इस बात की जाँच कीजिए कि नाभिचक्र सही हालत में है या नहीं। ठीक हालत में न होने पर उसे ठीक कीजिए। एक रोगी को हाएटस हर्निया (भ्मपजने भ्मतदपं) था। डॉक्टर ने उसे ऑपरेशन करवाने की सलाह दी थी। उसका नाभिचक्र ठीक कर दिया गया। केवल दो दिन में ही उसकी तकलीफ दूर हो गई। एक स्त्री-रोग विशेषज्ञ महिला डॉक्टर को कई वर्षों से पेडू में दर्द होता था। उनका नाभिचक्र सही हालत में ला देने के पश्चात् वे एकदम ठीक हो गई। एक किशोरी के पेट में ऐसा दर्द था कि वह जो भी खाती-पीती, तुरन्त ही उल्टी होकर बाहर निकल जाता। वह बंबई के एक मशहूर अस्पताल में 21 दिनों तक रही, फिर भी रोग कोई भी निदान नहीं हो सका।

उसकी शिकायत पूर्वत जारी रही। पेट में ऐसी पीड़ा होती थी कि वह पलंग पर तड़पने लगती थी। जाँच करने पर पता चला कि उसका नाभिचक्र अपने स्थान पर सही हालत में नहीं है। उसका नाभिचक्र ठीक कर दिया गया और उसकी उल्टी बंद हो गई। उसे एक सप्ताह तक हरे रस और फल के रस पर रखा गया। उसकी सारी पीड़ा दूर हो गई। एक रोगी को लंबे अरसे से खूनी अर्श की तकलीफ थी। उसे ऑपरेशन करवाने की सलाह दी गई। ऑपरेशन के केवल तीन दिन पूर्व उसने एक्यूप्रेशर-विशेषज्ञ की सलाह ली। उसकी नाभिचक्र ठीक कर दी गई। फलतः इतनी तेजी से सुधार हुआ कि ऑपरेशन कराने की जरुरत ही नहीं रही।“ संभव हो तो ‘स्वास्थ्य-पेय’ या ताँबा, चाँदी और सुवर्ण-सेवित पानी पिएँ। जाली (मइ):बड़ी जाली अंगूठे व पहली उँगली के बीच में तथा छोटी जालियाँ उगँलियों के बीच में स्थिति हैं। यहाँ से ज्ञानतंतु (छमतअमे) रीढ़ के द्वारा हमारे शरीर में फैलते हैं। अतः ज्ञानतंतु (छमतअमे) संबंधी किसी भी गड़बड़ी मे इन जलियों पर एक्यूप्रेशर चिकित्सक द्वारा उपचार होना चाहिए। एक्युप्रेशर थैरेपी के अनुसार हाथ के पजों या पैर के तलवों के बिंदुओं व उनके आसपास दबाव देना पड़ता है। ऐसा करने से बिन्दु से संलग्न अवयव की ओर विद्युत-प्रवाह होने लगता है।

अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ:- ये शरीर के सभी अवयवों का संचालन करती हैं। उनके बिन्दुओं पर ज्यादा दबाव देना आवश्यक है। ऐसा करने से संबद्ध अंतःस्रावी ग्रंथि ठीक से काम करने लगती है। यदि कोई ग्रंथि कम सक्रिय हो, तो दबाव देने पर उसकी सक्रियता बढ़ती है और वह सुचारु रुप से काम करती है और यदि कोई अंतःस्रावी ग्रंथि अपेक्षाकृत अधिक काम करती हो, तो दबाव देने पर उसकी सक्रियता कम होती है-वह नियंत्रित होती है और मात्रानुसार कार्य करने लगती है। इस प्रकार केवल दबाव देकर अंतःस्रावी ग्रंथियों का नियमन हो सकता है। अंगूठे, पहली उँगली, कुंद पेन्सिल या लकड़ी की चूसनी (भ्ंदक डेंहमत) से बिन्दुओं पर दबाव दिया जा सकता है। किसी भी बिन्दु पर 4-5 सेकंड तक दबाव देना चाहिए। फिर 1-2 सेंकड के लिए दबाव हटा लें और पुनः दबाव दें। इसी प्रकार 1-2 मिनट पंपिंग पद्धति से दबाव दें अथवा भारपूर्वक मसाज करें। दबाव की मात्राः-जब हम किसी भी बिन्दु पर दबाव देते हैं, तब वहाँ हमें दबाव या भार का अनुभव होना चाहिए। ज्यादा दबाव जरुरी नहीं है। यदि नरम हाथ हों, तो कम दबाव देने पर भी दबाव का अनुभव होगा। अंतःस्रावी ग्रंथियों के बिन्दुओं को छोड़कर प्रत्येक बिंदु पर तिरछे से भार देने से पर्याप्त दबाव आएगा। यह छाती के नीचे स्थित सभी अवयवों का संचालन करता है।
इस नाभिचक्र का उल्लेख केवल भारतीय आयुर्वेद में ही मिलता है, अन्य किसी थैरेपी में नहीं। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि इस एक्यूपे्रशर थैरेपी की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी। डायाफ्राम (पेट के परदे) के नीचे स्थित कोई भी अवयव यदि ठीक से काम न करे तो नाभिचक्र की परिक्षा करवानी चाहिए।

नाभिचक्र परखने की पद्धति है:- सुबह खाली पेट सीधे लेट कर यदि नाभि पर उँगली या अंगूठे से दबाया जाए, तो वहाँ हृदय की धड़कन महसूस होगी। ऐसी धड़कन महसूस करने पर समझ लें कि यह चक्र सही हालत में है। यदि नाभिचक्र ठीक ढंग से काम कर रहा हो, तो नाभि से दाएँ स्तनाग्र और बाएँ स्तनाग्र के बीच का अंतर समान होता है। किंतु यदि यह नाभिचक्र ऊपर या नीचे की ओर सरका हुआ हो, तो उपर्युक्त अंतर नापने से मालूम होता है कि यह चक्र ऊपर चढ़ा हुआ है या नीचे उतरा हुआ है। अत्यधिक बोझ उठाने, पाचनशक्ति मंद पड़ने या गैस के दबाव से नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरक जाता है। ऐसी हालत में धड़कन नाभि में नहीं, उसके आसपास मालूम होगी। अत्यधिक वजन उठाने अथवा अत्यधिक गैस उत्पन्न होने पर नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरकता है। नाभिचक्र के ऊपर की ओर सरकने पर कब्जियत होती है और नीचे सरकने पर वायु के दबाव के कारण दस्तें लगती हैं। जब दवाओं से भी यह तकलीफ दूर नहीं हो तो एक्यूप्रेशर पद्धति की सहायता अवश्य लेनी चाहिए।
नोट- नाभीचक्र की परिक्षा और उपचार किसी अनुभवी वैद्य अथवा एक्यूप्रेशरिस्ट से करवानी चाहिए।

Homemade Ayurvedic Treatment of High Bloodpressure

There are many Solutions to High blood pressure problem which are defined in Ayurveda. Many of them are available at your home kitchen itself.

A Good solution is Dalchini/दालचीनी (cinnamon), which is easily available in Home Kitchen or Local Market itself.

  • Make Dalchini in Powder form, by Crunching it on a home stone or kharal. Consume it in powder form, daily empty stomached, with warm water. Or for more Good Results mix it with honey (honey ½ teaspoon, dalchini/cinnamon ½ teaspoon) and consume with hot water.

The second Solution is Gokhru.

  • What you have to do is to take half a teaspoon Gokhru in a glass of warm water and soak overnight. Let it stay overnight in water and get up in the morning and take the water/Kadha of Gokhru Water. Also you can chew on the Gokhru of this Kadha.

These are easy ways to fastly reduce your high BP. If taken with Care It will totally normalise the High Blood Pressure Problem in about two months or so.