Homemade Ayurvedic Treatment of Piles (बवासीर)

बवासीर (Piles)

स्वस्थ शरीर मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पूंजी है। मगर आज के युग की व्यस्त जीवन शैली में अधिकांश लोग शारीरिक व्याधियों से पीडि़त हैं। वर्तमान युग में ठीक आहार-विहार का ध्यान न रखने के कारण स्वस्थ जीवन नहीं जी पा रहे। अधिकतर यह देखा गया है, कि बैठे रहकर काम करने वाले अधिकांश लोगो को बवासीर का रोग लग जाता है। ऐलोपैथिक में बवासीर का स्थायी उपचार ‘‘आॅपरेशन’’ ही है, परंतु आॅपरेशन के बावजूद इसके पुनः हो जाने का पूरा खतरा रहता है। आइए पहले जान लें कि बवासीर क्या है ? इसे ‘अर्श’ भी कहते हैं। अर्श एक खूनी व्याधि का नाम है, जिसे सामान्य भाषा में बवासीर कहा जाता है। इस व्याधि में गुदा स्थान में मस्से होते हैं। मस्सा वैसे तो त्वचा पर कहीं भी हो सकता है, लेकिन जो गुदा के छिद्र पर या भीतर होता है, उसे ही बवासीर कहते हैं। इसका कोई निश्चित आकार नहीं होता। कोई सरसों के दानें जैसा छोटा तथा कोई गूलर के समान बड़ा। कोई चिकना होता है, तो कोई खुरदरा। कोई गोल होता है तो कोई लम्बा। इनके फूल जाने पर गुदा का मार्ग अवरूद्व हो जाता है। इसी कारण शौच के समय इस रोग से पीडि़त रोगी को समय अधिक लगता है, वे अत्यन्त पीडा़ महसूस करते हैं। मस्से होने का प्रमुख कारण है, खान -पान में चटपटे पदार्थ व तेल के बने हुए पदार्थ। ऐसी दशा में शौच के समय अधिक जोर लगता है तथा गुदा के भीतर की दीवार गुदा छिद्र को और अधिक बंद कर देती है। बहुत दिन व्यतीत होने के बाद इसी दीवार में सूजन आ जाती है और स्थानीय शिरा कोशिकाओं में उत्तेजना बढ़ जाती हैं, जिससे उनमें रक्त अधिक संचित होता है और वे फूल जाती हैं, पुनः जोर लगाने के समय इन शिरा कोशिकाओं में उत्तेजना बढ़ जाती है, जिससे उनमें रक्त अधिक संचित होता हैं और वे फूल जाती हैं। पुनः जोर लगाने के समय इन शिराओं पर अधिक दबाव पड़ता है, जिससे कभी -कभी ये शिरायें फट जाती हैं और फव्वारे की तरह रक्त गुदा के अन्दर से निकलता है। यही खूनी बवासीर कहलाता है। खून निकलने के बाद ये शिराये वापस पिचक जाती हैं और फिर फूलती हैं व फिर खून निकलता है। इस प्रकार खूनी बवासीर से पीडि़त व्यक्ति के अधिक खून निकल जाने से शरीर में खून की कमी, कमजोरी, भूख की कमी, चक्कर आना, सुस्ती तथा यहां तक कि कभी-कभी बेहोशी तक होने के लक्षण भी पाए जाते हैं। बादी बवासीर में मस्से के उभार बाहर निकलते हैं और दबाने पर दब जाते हैं। अनुभूत घरेलू नुस्खों द्वारा बवासीर का रोग जड़ से समाप्त किया जा सकता है। इसमें धैर्य की आवश्यकता होती है। यहां कुछ ऐसे ही अद्भुत योग बताये जा रहे हैं, जो अत्यंत लाभकारी सिद्व हुए है-

  1. खूनी बवासीर में गाय के शुद्व ताजा एक पाव दूध में दो तोले मिश्री मिला कर नित्य प्रातः काल सात दिन प्रयोग करने से रोगी खूनी बवासीर से रोग मुक्त हो जाता है।
  2. बवासीर की सूजन और पीड़ा में एक कंधारी अनार प्रातः काल खाली पेट लें इस से शीघ्र आराम मिलता है व एक दिन में रक्त बहना रूक जाता है।
  3. खूनी बवासीर में यदि धाराप्रवाह रक्त जा रहा हैं, ईसबगोल की भूसी 3 ग्राम, दूध, एक पाव में घोल कर प्रातः काल तीन दिन तक पीएं। इन तीन दिन के प्रयोग से ही खूनी बवासीर में अभूतपूर्व लाभ होगा।
  4. बवासीर को जड़ से दूर के करने के लिए छाछ सबसे सर्वोत्तम औषधि है। दोपहर के भोजन के बाद छाछ में डेढ़ ग्राम पीसी हुई अजवायन और एक ग्राम सेंधा नमक मिला कर पीने से बवासीर में आशातीत लाभ होता है और भी मस्से नष्ट होते हैं।
  5. ‘अग्निमुख लौह’ की एक -एक गोली सुबह शाम शहद के साथ लें इसे लेने से बवासीर में शीघ्र लाभ होता है।

पथ्य-
भोजन में मिर्च मसाले बंद कर दें। दही, चावल और मंूग की खिचड़ी लेना उत्तम होगा। खूनी बवासीर में दही में कच्चे प्याज को मिला कर खाना चाहिए। किसी भी प्रकार के बवासीर में नित्य एक कच्चा प्याज खाना लाभकारी है। खूनी बवासीर में दोपहर के भोजन के बाद पपीता खाना बेहद लाभकारी रहता है। बवासीर खूनी हो या बादी, मूली का सेवन बहुत लाभकारी है कच्ची मूली खाना या इसके रस का कुछ दिन सेवन करना, बवासीर के अतिरिक्त रक्त के दोषों को दूर करता हैं। रोग अधिक हो तो योग्य, अनुभवी चिकित्सक की सलाह से उपचार करना चाहिए।

रोग से बचने के उपाय-
सर्वप्रथम कब्ज न होने दें। कब्ज होने पर रात को ईसबगोल का सेवन करें या त्रिफला को जल से लें, प्रातः ही साफ दस्त होगा। कठोर आसन पर लगातार न बैठें। कुर्सी जहां तक हो नर्म होनी चाहिए। प्रतिदिन टहलना या व्यायाम अवश्य करना चाहिए। गुदा को सदा साफ रखें, स्वमूत्र से धोना भी लाभप्रद हेै। समय पर भोजन करें। भोजन हल्का व सुपाच्य रखें। भोजन में फल, शाक, दूध, मट्ठा, और दही का अधिक सेवन करें। जैसे ही ज्ञात हो, कि बवासीर की शुरूआत है, शीघ्र ही चिकित्सा आरंभ कर देनी चाहिए। सप्ताह में एक बार करेले की सब्जी बना कर अवश्य खानी चाहिए, इस से बवासीर का नाश होता है।

खूनी बवासीर-
लहसुन की कलियां छील कर उसका मुट्ठी भर छिलका अंगारों पर रखकर प्रातः शोैच से निवृत होने के बाद उस धुएं की धूनी लेने से बवासीर में शीघ्र लाभ होता है और खून आना बन्द हो जाता है, धूनी लेने की विधि यह है कि कि दोनों तरफ दो-दो या तीन-तीन ईंटे रखकर बीच में अंगारे रख दें और उस पर लहसुन के छिलके डालें, जैसे शौच के लिए बैठते हैं, वैसे ही ईंटों पर पैर रखकर बैठ जाये और गुदा को लहसुन के छिलकों का धुंआ लगने दें।

अपामार्ग-
(1) गुरू-पुष्य अथवा रवि-पुष्य योग में निकाली गयी अपामार्ग (अन्य नाम आंधी झाड़ा, लटजीरा, श्वेत आपामार्ग, रक्त आपामार्ग लैटिन में एकायरेंधस एस्पेरा की मूल को घर के मुख्य द्वार पर लटकाने से उस घर के सदस्यों पर तंात्रिक क्रियाओं का प्रभाव नहीं पड़ता। इसी मूल को बिच्छू का जहर उतारने हेतु जहां तक जहर चढ़ा होता है वहां से दंषित स्थान तक फेरने मात्र से वृष्चिक विष उतर जाता है। प्रसूता के बालों में लटकाने से उसे तुरन्त प्रसव हो जाता है। प्रसवोपरांत मूल को उसी समय हंटा देना चाहिए। इस पौधे की जड़ के दिव्य प्रयोग हेतु इसे शुभ मुहूत्र्त में जमीन से निकालना होता है। उसे एक दिन पूर्व संध्याकाल में निमंत्रण देना चाहिए। इसके लिए उस पौधे पर अर्थात् उसके आधार पर पर्याप्त जल चढ़ाएं, कुछ पीले चावल चढ़ाएं तथा दो अगरबत्तियां लगाकार यह प्रार्थना करें कि ‘हे वृक्ष। मैं आपकी मूल को अमुक कार्य हेतु कल शुभ मुहूत्र्त में ले जाऊंगा। आप मुझ पर दया दृष्टि बनायें।

 

Aayurveda : a Veda for Vitality & Life (आयुर्वेद प्राणों का वेद)

हमारा भारत देश कई दृष्टियों से महान है, सबसे पहले यहीं पर सभ्यता का उदय हुआ था। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों की रचना हुई थी। ज्ञान और विज्ञान की पूर्णता तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की थी, पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, कि भारत वर्ष में ही आयुर्वेद का इतना अधिक विकास हुआ, जिससे संसार ने एक स्वर से यह स्वीकार किया की भारतवर्ष प्राणविज्ञान के क्षेत्र में सबसे आगे रहा है, और आयुर्वेद में निहित ज्ञान की समानता नहीं की जा सकती। आधुनिक चिकित्सा भले ही सर्जरी के क्षेत्र मे अधिक महत्त्वपूर्ण और सफल हो, परन्तु रोगों के निर्मूलन (अथवा जड़ से समापन) में अभी तक यह कोरा का कोरा ही है, कुछ एलौपैथिक औषधियों के द्वारा रोगों को कुछ समय के लिए दबा भले ही दिया जाए, परन्तु रोगों को मिटाने की युक्ति या निदान उसके पास नहीं है। आयुर्वेद ‘प्राणों का वेद’ कहा जाता है, हमारे पूर्वजों ने प्रयत्न करके ऐसी वनस्पतियों और जड़ी बूटियों का पता लगाया था, जो अद्भुत और तुरन्त सफलता देने वाली हैं। परन्तु हम उन्हें प्रायः भूल ही चुके है। यदि देखा जाय, तो संसार में कोई ऐसा रोग नहीं, जिनका आयुर्वेदिक पद्वति द्वारा उन्मूलन न किया जा सकता हो, इन जड़ी बूटियों की विशेषता है, कि इनके सेवन से कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता।

अपराजिता-

इसे संस्कृत में ‘विष्णुकान्ता’, हिन्दी में ‘कालीजीरी’ और गुजराती में ‘गरणी’ कहा जाता है, यह एक बहुवर्षिय जीवी वानस्पतिक बेल है, जिसमें पीले फूल लगते हैं, इसके फूल का आकार बड़ा होता है, इसलिए इसे ‘गौकर्णी’ भी कहते हैं। यह जंगल में सामान्यतः प्राप्त हो जाती है, इसके पुष्प बीजों को निकाल कर उसका अवलेह बनाकर नित्य सेवन किया जाए, तो यह पेचिश को समाप्त कर देती है, इसका विशेष गुण यह है, कि यदि शराब की मात्रा ज्यादा लेने से लीवर बढ़ गया या लीवर में सूजन आ गई हो, तो एक-एक चम्मच सात दिन लेने से लीवर की सूजन समाप्त हो जाती है। इसकी जड़ को पीसकर नित्य फंकी लेने से आंखों की ज्योति बढ़ जाती है, और चश्मा उतर जाता है इसके अलावा इसके बीज यकृत, प्लीहा, जलोदर, पेट के कीड़े, आमाशय में सूजन, कफ, स्त्रियों के रोग और क्षय आदि में तुरन्त और आश्चर्यजनक रूप से सफलता देते हैं। इसकी छाल को दूध में पीसकर शहद मिलाकर पीने से गर्भपात रूक जाता है। इसके बीजों को पीसकर लेप करने से अंडकोष की सूजन समाप्त हो जाती है।

अमलतास-

इसे संस्कृत में ‘हेमपुष्पा’ गुजराती में ‘गरमाड़ी’ तथा मराठी में ‘वाहवोह’ कहते है, इसके पेड़ की चैड़ाई लगभग तीन फिट होती है। तथा काले रंग की फलियाँ लगती हैं, इस पेड़ की छाल उतारने पर लाल रंग का रस निकलता है जो की क्षय रोग को दूर करने की क्षमता रखता है। इसके मुकाबले की अन्य कोई वनस्पति नहीं है, इसकी जड़ को दूध में औटाकर सेवन करने से किसी भी प्रकार का क्षय रोग समाप्त हो जाता है। यदि इसकी जड़ को घिस कर दाद पर लगाया जाए, तो कुछ ही दिनों में वह दाद समाप्त हो जाता है। इसकी जड़, छाल, फल-फूल और पत्ते -इन पांचों को जल में पीस कर दाद-खुजली या चर्म विकारों में प्रयोग करने से जादू के समान असर होता है। यदि पेशाब के साथ खून गिरता हो, तो इसका गूदा नाभि पर लेप करने से लाभ होता हैं आंतो के रोग, कुष्ठ, कब्जी, गले की तकलीफ आदि में भी इसकी जड़ महत्त्वपूर्ण औषधि कही गई है।

आंवला-

इसे लगभग सभी भाषाओं में आंवला ही कहते हैं और इसके पेड़ पूरे भारतवर्ष के जंगलों में होते हैं, कोष्ठ बद्धता को मिटाने में यह महत्त्वपूर्ण है। उत्तम पके हुए एक हजार आंवले लेकर एक बड़ी हांडी में भर कर रख दें और उसमें दूध डाल कर हांडी को भर दें। फिर उसे धीरे -धीरे आंच पर पकाकर नीचे उतार दें, इसके बाद 10 तोला ‘त्रिफला’ और 80 तोला ‘मिश्री’ मिला कर अवलेह बना लें, और इसे किसी स्वच्छ पात्र में भर कर रखें। इसका नित्य आधा तोला सेवन करने पर शीघ्र ही व्यक्ति के शरीर की झुर्रियां मिट जाती हैं और उसे नव यौवन प्राप्त हो जाता हैं। यदि जवान पुरूष या स्त्री इसका सेवन करें, तो उसे अत्यधिक पौरूषता, कामेाद्दीप्तता तथा चेहरे की सुन्दरता प्राप्त होती है। यदि आंवले के पानी के साथ शहद और मिसरी मिलाकर लिया जाए, तो श्वेत प्रदर समाप्त हो जाता हैं।

Benefits of Basil ( Tulsi, तुलसी )

benefits of basil tulsi in ayurveda

Benefits of Basil Tulsi in Ayurveda

तुलसी(basil) का पौधा उसी प्रकार वनस्पतियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है जिस प्रकार देवताओं में इन्द्र, प्रणियों में मनुष्य, नदियों में गंगा, छन्दों में गायत्री, पर्वतों में हिमालय और हाथियोें में ऐरावत हाथी श्रेष्ठ हैं, यही कारण है कि हिन्दु परिवारों में घर की पवित्रता की रक्षार्थ तुलसी का पौधा लगाया जाता है। तुलसी में जहाँ रासायनिक विशेषतायें हैं, वहाँ ‘‘सूक्ष्म’’ कारण शक्ति भी ऐसी है, जो मानसिक एवं भावानात्मक क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं। प्रत्यक्षतः आरोग्य रक्षा और रोग निवारण के दोनों ही गुण तुलसी में हैं। तुलसी में आरोग्य के लिए उपयोगी टाॅनिक भी है। साथ ही यह रोगों का शमन करते समय शरीर के सुरक्षा पक्ष को तनिक भी हानि नहीं पहुँचाती। उसमें ऐसा कोई दोष नहीं है, कि इसकें सेवन से किसी संकट में पड़ना पड़े। लाभ धीरे हो यह हो सकता है। साथ ही चिकित्सा उपचार के साथ जो खतरे जुड़े रहते हैं उसकी आशंका तनिक भी नहीं है। तुलसी अपने आप में पूर्ण औषधी है। अब वैज्ञानिक अनुसंधान और रसायनिक विश्लेषणों के आधार पर यह सिद्ध हो गया है कि तुलसी में किटाणु-नाशक तत्व प्रचूर मात्रा में होते है, जिससे रोग-निवारण में यह काफी सहायक सिद्ध होती है। तुलसी के पत्तों में एक प्रकार का किटाणु – नाशक द्रव्य होता है, जो हवा के सहयोग से वातावरण में फैलता है। तुलसी का स्पर्श करने वाली वायु जहाँ भी जाती है, वहीं अपना रोगनाशक एवं शोधक प्रभाव डालती है। तुलसी शरीर के विषैले कोषों को शुद्ध करती है और शरीर से दूषित तत्वों को निकाल बाहर करती है। शास्त्रकारों ने कहा है कि –

तुलसी काननं चैव गृहेयस्याव तिष्ठते।
तद्गृहे तीर्थभूतंहि न यन्ति यम किंकराः।।

अर्थात्-जिस घर में तुलसी(basil) का वन है वह घर तीर्थ के समान पवित्र है। उस घर में यमदूत नहीं आते।’ यहाँ यमदूतों का अर्थ रोग फैलाने वाले कीटाणु है। इसी प्रकार अन्यत्र कहा है:-

तुलसी विपिनस्यापि समन्तात्पावन स्थलम्।
कोषमात्रं भवत्येव गंगे यस्येव पायसः।।

अर्थात्- तुलसी वन के चारों ओर एक कोस अर्थात् दो मील तक की भूमि गंगाजल के समान पवित्र होती है। स्मरण रहे कि रोग किटाणु नाष की गंगा जल में अपूर्व शक्ति है। उसमे कोई कीटाणु जीवित नहीं रह सकता और इसलिये गंगाजल कभी सड़ता नहीं। भगवान के पंचामृत भोग प्रसाद में तुलसी का ही उपयोग किया जाता है। मरते समय तुलसी पत्र मुख में डालते हैं। तुलसी की माला पर किया हुआ जप श्रेष्ठ माना जाता है, तुलसी पंचांग द्वारा विनिर्मित एक ही तुलसी वटी द्वारा अनुपान भेद से समस्त रोगों का उपचार हो सकता है। तुलसी में रोग-नाषक शक्ति प्रचूर मात्रा में है। चरक के अनुसार यह हिचकी, खाँसी, दमा, फेफड़ों के रोग तथा विष-निवारक होती है।
भावमिश्र ने तुलसी को हृदय रोगों में लाभकारी(beneficial), रक्त विकार को दूर करने वाली औषधी बताया है। सुश्रुत ने भी इसे रोगनाषक, तेजवर्धक वात-कफ-षोधक, छाती के रोगों में लाभवर्धक तथा आन्त्र क्रिया को स्वस्थ रखने वाली औषधी बताया है। पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान ने भी तुलसी को खांसी, ब्रांकाइटिस, निमोनियाँ, फ्लू , क्षय आदि रोगों में लाभदायक बताया है। इसमें सन्देह नहीं कि संसार कि सभी चिकित्सा पद्धतियों ने तुलसी के महत्व को स्वीकार किया गया है। आयुर्वेदिक, ऐलौपैथिक, यूनानी, होमियोपैथिक सभी अपने अपने ढंग से रोग निवारण और स्वास्थ्य सुधार के लिये तुलसी का उपयोग करते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा की गई खोजों के आधार पर पता चला है कि तुलसी से प्राप्त होने वाला द्रव्य क्षय रोग के किटाणुओं का नाशक होता है। अधिकांश रोगों में तुलसी बहुत ही प्रभावशाली सिद्ध हुई है। दैनिक जीवन में सामान्य रूप से भी इसका सेवन करते रहना बहुत हितकर है। जुकाम, बुखार, मलेरिया, इन्फ्लूएन्जा आदि में तुलसी का काढ़ा बनाकर लेने से लाभ होता है। मलेरिया के लिये तो यह अमोध औषधि है।