हल्दी कन्द चिकित्सा और मसाले के लिए उपयोगी है। हल्दी उष्णवीर्य होने से कफवात नामक पिŸारेचक और तिक्त होने से पित्तनाशक है। हल्दी वतु, तिक्ता, रूक्ष गरम, रंगने के काम आने वाली, कफ पित्त त्वचा के दोष, प्रमेह, रक्तदोष, सूजन, पाण्डु रोग को नष्ट करती है। विद्वानों का मत है कि यह वायु के दोषों को भी शांत करती है।
वास्तव में स्वास्थ्य की दृष्टि से इसके गुणों को देखकर मुग्ध हो जाना पड़ता है। आयुर्वेद की अनेक औषधियाँ अर्थात् घृत तेल आसव अरिष्टों तथा चूणों में इसका सम्मिश्रण होता है। केवल हल्दी के द्वारा अनेक रोग दूर हेाते हैं। पारद संहिता में इसके कल्प का वर्णन किया गया है जिसमें एक वर्ष तक हल्दी और दूूध के सेवन का महत्व बताया है। कहीं भी चोट लगी हो सूजन आया हो हल्दी-चूना मिलाकर लगा दिया जाए तो फौरन दर्द ठीक हो जाता है। और अगर भीतर चोट लग गई हो तो गुनगुने दूध में हल्दी का चूर्ण मिलाकर पिलाने से भीतरी चोट व दर्द में आराम मिलता है।
अम्लपित्त (एसीडिटी) का उपचार
आयुर्वेदिक चिकित्सा से एसीडिटी का उपचार –
अम्लपित्त या एसीडिटी आजकल की मार्डन खानपान की देन है, और यह परिवर्तित लाइफस्टाइल की देन भी है। आइये जानते हैं, अम्लपित के निवारणार्थ घरेलू उपचार-
— अदरक के सेवन से एसीडिटी से निजात मिल सकती हैं, इसके लिए आपको अदरक को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर गर्म पानी में उबालना चाहिए और फिर उसका पानी पीना चाहिए। अदरक की चाय भी ले सकते हैं।
— आंवला चूर्ण को एक महत्वपूर्ण औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आपको एसीडिटी की शिकायत होने पर सुबह- शाम आंवले का चूर्ण लेना चाहिए।
— मुलैठी का चूर्ण या फिर इसका काढ़ा भी आपको एसीडिटी से निजात दिलाएगा इतना ही नहीं गले की जलन भी इस काढ़े से ठीक हो सकती है।
— नीम की छाल को पीसकर उसका चूर्ण बनाकर पानी से लेने से एसीडिटी से निजात मिलती है।
— इतना ही नहीं यदि आप चूर्ण का सेवन नहीं करना चाहते तो रात को पानी में नीम की छाल भिगो दें और सुबह इसका पानी पीएं आपको इससे निजात मिलेगी।
— मुनक्का या गुलकंद के सेवन से भी एसीडिटी से निजात पा सकते हैं, इसके लिए आप मुनक्का को दूध में उबालकर ले सकते हैं या फिर आप गुलकंद के बजाय मुनक्का भी दूध के साथ ले सकते हैं।
— अधिक मात्रा में पानी पीने, दोपहर के खाने से पहले पानी में नींबू और मिश्री का मिश्रण, नियमित रूप से व्यायाम और दोपहर और रात के खाने के बीच सही अंतराल आदि सावधानियों से एसिडिटी की समस्या से बचा जा सकता।
हरीतकी (हरड़) रसायन
हरीतकी (हरड़) रसायन
आयुर्विज्ञान शास्त्र में लिखा है कि –
‘सर्वेषामेवरोगाणां निदानं कुपिता मलाः’
अर्थात् सब रोगों के मूल कारण बिगड़े हुये मल ही है जिसमें विशेष उल्लेखनीय उदरमल है। आजकल अधिकांश व्यक्ति प्रायः यही कहते सुने जाते है कि ‘उन्हें मलावरोध (कब्ज) रहता है, पाचनक्रिया ठीक रहीं, भूख नहीं लगती, शिर व पेट में पीड़ा रहती है’ आदि 2 इन सब व्याधियों को शांत करने के लिये हरीत की (हरड़) सर्वसुलभ सर्वाेत्तम महौषधि है। हरड़ का भिन्न-भिन्न ऋतुओं में अनुपान भेद से सेवन क्रम हमारे परम स्नेही आयुर्वेद जगत् के सुप्रसिद्ध वयोवृद्ध विद्वान् श्री पं0 मनोहर लाल जी वैद्यराज महोदय (दिल्ली) ने ज्योतिष-मार्तण्ड के पाठकों के लाभार्थ दिया, वह हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं।
हरड़ की उत्पत्ति के सम्बंध में प्राचीन ग्रंथों में लिखा है कि – देवताओं के अमृतपान करते हुये कुछ बूँदे पृथ्वी पर गिरी, उसी से हरीत की उत्पत्ति हुई, अतः अमृतोपमगुण इसमें विद्यमान है, इसीलिये कहा गया है- ‘‘कदाचित् कुप्यति माता नोदरस्था हरीत की।’’
यह सब मानते हैं कि यदि हरड़ समय के अनुसार विधिपूर्वक ली जाये तो मनुष्य कभी रोगी नहीं हो सकता। प्रत्येक ऋतु में हरीत की (हरड़) के सेवन का प्रयोग निम्नांकित है-
1-वर्षा ऋतु में:-
छोटी हरड़ का चूर्ण कपड़छान करके चतुर्थांश सेंधा नमक मिलाकर 4 माशे की मात्रा रात्रि में गर्म पानी से लिया जाये तो कब्ज, बलगमी खाँसी, बवासीर, पेट का दर्द, भूख न लगना, आदि रोग नष्ट होते हैं। 10 से 20 दिन तक ले सकते हैं।
2-शरद् ऋतु में:-
छोटी हरड़ के चूर्ण कपड़छान करके समानांश मिश्री मिलाकर 4 माशे की मात्रा में गर्म पानी से लें तो – पित्त विकार, जलन, मूत्रकच्छ, पित्ताशय का विकृत होना, पित्त जनित उदर विकार शांत होते हैं।
3-हेमन्त ऋतु में:-
छोटी हरड़ के चूर्ण में सोंठ का चूर्ण आधा भाग मिलाकर गर्म पानी से ले तो शीत व्याधि, गठिया जोड़ों का दर्द, अजीर्ण, उद्रशूल, पेचिस, पेट का अफरना, आदि समस्त उदर विकार शांत होते हैं।
4-शिशिर ऋतु में:-
हरड़ के चूर्ण में छोटी पीपल का चूर्ण 1/4 चतुर्थांश मिलाकर गर्म पानी से लें तो शीत व्याधि, शीत ज्वर, ज्वर सर्दी की खांसी, नजला, सीने का दर्द अजीर्ण मन्दाग्नि विशेष कर ठंड से चढ़ने वाला ज्वर व बलगमी खांसी में लाभदायक है।
5-वसंत ऋतु में:-
हरड़ का चूर्ण दो माशे में दुगना शहद मिलाकर चाटे तो बलगम, श्वांस खांसी बलगमी, बुखार, जुकाम, शिरदर्द को शांत करती है। एवं जुकाम में बंद नाक के बलगम को साफ करती है।
6-ग्रीष्म ऋतु में:-
हरड़ का चूर्ण कपड़छान करके, दुगना 1 साल पुराना गुड़ मिलाकर 1 माशे की गोली बना लें, प्रातः सायं और रात्रि में उबले हुये कवोष्णा पानी से 1 गोली लें, 10 दिन तक, तो समस्त वात रोग, पेट का फूलना वायु से मल का सूखकर कब्ज होना, सूखी खांसी, लू लग जाना, हैजा, मौसमी बुखार, भूख न लगना आदि समस्त विकारों को शांत करता है।
इस प्रकार छओं ऋतुओं में हरड़ सेवन करने से शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है। कोई रोग फटकने नहीं पाता।
हस्तमुद्राओं से रोगों की चिकित्सा
मित्रों हस्त मुद्राओं hast mudra द्वारा मनुष्य अनेकानेक रोगों की चिकित्सा कर निरोग रह सकता है। मानव-शरीर अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है। शरीर की अपनी एक मुद्रामयी भाषा है, जिसे करने से शारीरिक स्वास्थ्य-लाभ में सहयोग प्राप्त होता है।
यह शरीर पंच तत्त्वों के योग से बना है। पाँच तत्त्व यह हैं-(1) पृथ्वी, (2) जल, (3) अग्नि, (4) वायु एवं (5) आकाश।
शरीर में जब भी इन तत्त्वों का असंतुलन होता है, रोग पैदा हो जाते हैं। यदि हम इनका संतुलन करना सीख जायें तो बीमार हो ही नहीं सकते एवं यदि हो भी जायें तो इन तत्त्वों को संतुलित करके आरोग्यता वापस ला सकते हैं।
हस्त-मुद्रा-चिकित्सा के अनुसार हाथ तथा हाथों की अँगुलियों और अँगुलियों से बनने वाली मुद्राओं में आरोग्य का राज छिपा हुआ है। हाथ की अँगुलियों में पंचतत्त्व प्रतिष्ठित हैं। ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले इसकी खोज कर ली थी एवं इसे उपयोग में बराबर प्रतिदिन लाते रहे, इसीलिये वे लोग स्वस्थ रहते थे।
ये शरीर में चैतन्य को अभिव्यक्ति देने वाली कुंजियाँ हैं। मनुष्य का मस्तिष्क विकसित है, उसमें अनन्त क्षमतायें हैं। ये क्षमतायें आवृत हैं, उन्हें अनावृत करके हम अपने लक्ष्य को पा सकते हैं।
नृत्य करते समय भी मुद्रायें बनायी जाती हैं, जो शरीर की हजारों नसों व नाडि़यों को प्रभावित करती हैं और उनका प्रभाव भी शरीर पर अच्छा पड़ता है। हस्त-मुद्रायें तत्काल ही असर करना शुरू कर देती हैं।
जिस हाथ में ये मुद्राएँ बनाते हैं, शरीर के विपरीत भाग मेें उनका तुरंत असर होना शुरू हो जाता है। इन सब मुद्राओं का प्रयोग करते समय वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन का प्रयोग करना चाहिये।
इन मुद्राओं को प्रतिदिन तीस से पैंतालीस मिनट तक करने से पूर्ण लाभ होता है। एक बार में न कर सके तो दो तीन बार में भी किया जा सकता है। किसी भी मुद्रा को करते समय जिन अँगुलियों का कोई काम न हो उन्हें सीधी रखे। वैसे तो मुद्रायें बहुत हैं पर कुछ मुख्य मुद्राओं का वर्णन यहाँ किया जा रहा है, जैसे-
(1) ज्ञान-मुद्रा
विधि- अँगूठे को तर्जनी अँगुली के सिरे पर लगा दंे। शेष तीनों अँगुलियाँ चित्र के अनुसार सीधी रहेंगी।
लाभ- स्मरण शक्ति का विकास होता है और ज्ञान की वृद्धि होती है, पढ़ने में मन लगता है, मस्तिष्क के स्नायु मजबूत होते हैं, सिर-दर्द दूर होता है तथा अनिद्रा का नाश, स्वभाव में परिवर्तन, अध्यात्म-शक्ति का विकास और क्रोध का नाश होता है।
सावधानी- खान-पान सात्त्विक रखना चाहिये, पान-पराग, सुपारी, जर्दा इत्यादि का सेवन न करे। अति उष्ण और अति शीतल पेय पदार्थों का सेवन न करे।
(2) वायु-मुद्रा
विधि- तर्जनी अँगुली को मोड़कर अँगूठे के मूल में लगाकर हल्का दबायंे। शेष अँगुलियाँ सीधी रखें।
लाभ- वायु शांत होती है। लकवा, साइटिका, गठिया, संधिवात, घुटने के दर्द ठीक होते हैं। गर्दन के दर्द, रीढ़ के दर्द जैसे रोगों में लाभ होता है। विशेष- इस मुद्रा से लाभ न होने पर प्राण-मुद्रा के अनुसार प्रयोग करंे।
सावधानी- लाभ हो जाने तक ही करें।
(3) आकाश-मुद्रा
विधि- मध्यमा अँगुली को अँगूठे के अग्रभाग से मिलायें। शेष तीनों अँगुलियाँ सीधी रहें।
लाभ- कान के सब प्रकार के रोग जैसे बहरापन आदि, हड््िडयों की कमजोरी तथा हृदय-रोग ठीक होता है।
सावधानी- भोजन करते समय एवं चलते फिरते यह मुद्रा न करें। हाथों को सीधा रखंे। लाभ हो जाने तक ही करें।
(4) शून्य-मुद्रा
विधि- मध्यमा अँगुली को मोड़कर अँगुष्ठ के मूल में लगायंे एवं अँगूठे से दबायंे।
लाभ- कान के सब प्रकार के रोग जैसे बहरापन आदि दूर होकर शब्द साफ सुनायी देता है, मसूढ़े की पकड़ मजबूत होती है तथा गले के रोग एवं थायरायड-रोग मेें फायदा होता है।
(5) पृथ्वी-मुद्रा
विधि- अनामिका अँगुली को अँगूठे से लगाकर रखें।
लाभ- शरीर में स्फूर्ति, कान्ति एवं तेजस्विता आती है। दुर्बल व्यक्ति मोटा बन सकता है, वजन बढ़ता है, जीवन शक्ति का विकास होता है। यह मुद्रा पाचन-क्रिया ठीक करती है, सात्त्विक गुणों का विकास करती है, दिमाग में शान्ति लाती है तथा विटामिन की कमी को दूर करती है।
(6) सूर्य-मुद्रा
विधि- अनामिका अँगुली को अँगूठे के मूल पर लगाकर अँगूठे से दबायें।
लाभ- शरीर संतुलित होता है, वजन घटता है, मोटापा कम होता है। शरीर में उष्णता की वृद्धि, तनाव में कमी, शक्ति का विकास, खून का कोलस्ट्राॅल कम होता है। यह मुद्रा मधुमेह, यकृत (जिगर)- के दोषों को दूर करती है।
सावधानी- दुर्बल व्यक्ति इसे न करें। गर्मी में ज्यादा समय तक न करें।
(7) वरुण-मुद्रा
विधि- कनिष्ठा अँगुली को अँगूठे से लगाकर मिलायंे।
लाभ- यह मुद्रा शरीर में रूखापन नष्ट करके चिकनाई बढ़ाती है। चमड़ी चमकीली तथा मुलायम बनाती है। चर्म रोग, रक्त-विकार एवं जल-तत्त्व की कमी से उत्पन्न व्याधियों को दूर करती है। मुहाँसों को नष्ट करती है और चेहरे को सुन्दर बनाती है।
सावधानी- कफ प्रकृति वाले इस मुद्रा का प्रयोग अधिक न करें।
(8) अपान-मुद्रा
विधि- मध्यमा तथा अनामिका अँगुलियों को अंगूठे के अग्रभाग से लगा दंे।
लाभ- शरीर और नाड़ी की शुद्धि तथा कब्ज दूर होता है। मल-दोष नष्ट होते हैं, बवासीर दूर होता है। वायु-विकार, मधुमेह, मूत्रावरोध, गुर्दों के दोष, दाँतों के दोष दूर होते हैं। पेट के लिये उपयोगी है। हृदय-रोग में फायदा होता है तथा यह पसीना लाती है।
सावधानी- इस मुद्रा से मूत्र अधिक होगा।
(9) अपान वायु या हृदय-रोग-मुद्रा
विधि- तर्जनी अँगुली को अँगूठे के मूल में लगायंे तथा मध्यमा और अनामिका अँगुलियों को अँगूठे के अग्रभाग से लगा दंे।
लाभ- जिनका दिल कमजोर है, उन्हें यह प्रतिदिन करना चाहिये। दिल का दौरा पड़ते ही यह मुद्रा कराने पर आराम होता है। पेट में गैस होने पर यह उसे निकाल देती है। सिर-दर्द होने तथा दमे की शिकायत होने पर लाभ होता है। सीढ़ी चढ़ने से पाँच-दस मिनट पहले यह मुद्रा करके चढ़े। इससे उच्च रक्तचाप में फायदा होता है।
सावधानी- हृदय का दौरा आते ही इस मुद्रा का आकस्मिक तौर पर उपयोग करें।
(10) प्राण-मुद्रा
विधि- कनिष्ठा तथा अनामिका अंगुलियों के अग्रभाग कोे अँगूठे के अग्रभाग से मिलायंे।
लाभ- यह मुद्रा शारीरिक दुर्बलता दूर करती है, मन को शान्त करती है, आँखों के दोषों को दूर करके ज्योति बढ़ाती है, शरीर की रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाती है, विटामिनों की कमी को दूर करती है तथा थकान दूर करके नवशक्ति का संचार करती है। लंबे उपवास-काल के दौरान भूख-प्यास नहीं सताती तथा चेहरे और आँखों एवं शरीर को चमकदार बनाती है। अनिद्रा में इसे ज्ञान-मुद्रा के साथ करंे।
(11) लिंग-मुद्रा
विधि- चित्र के अनुसार मुट्ठी बाँधे तथा बायें हाथ के अँगूठे को खड़ा रखें, अन्य अँगुलियाँ बँधी हुई रखें।
लाभ- शरीर में गर्मी बढ़ाती है। सर्दी, जुकाम, दमा, खाँसी, साइनस, लकवा तथा निम्न रक्तचाप में लाभप्रद है, कफ को सुखाती है।
सावधानी- इस मुद्रा का प्रयोग करने पर जल, फल, फलों का रस, घी और दूध का सेवन अधिक मात्रा में करंे। इस मुद्रा को अधिक लम्बे समय तक न करे।
त्रिफला
त्रिफला कब और कैसे लेना चाहिए :-
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त्रिफला के सेवन से अपने शरीर का कायाकल्प करके जीवन भर स्वस्थ रहा जा सकता है, आयुर्वेद की महान देन त्रिफला से हमारे देश का आम व्यक्ति परिचित है, आप ने भी कभी न कभी कब्ज दूर करने के लिए इसका सेवन भी अवश्य किया होगा। पर बहुत कम लोग जानते हैं, इस त्रिफला चूर्ण जिसे आयुर्वेद रसायन भी मानता है, से अपने कमजोर शरीर का कायाकल्प भी किया जा सकता है। बस जरुरत है तो इसके नियमित सेवन करने की, क्योंकि त्रिफला का वर्षों तक नियमित सेवन ही आपके शरीर का कायाकल्प कर सकता है।
त्रिफला सेवन विधि – सुबह हाथ मुंह धोने व कुल्ला आदि करने के बाद खाली पेट ताजे पानी के साथ इसका सेवन करें, तथा सेवन के बाद एक घंटे तक पानी के अलावा कुछ ना लें, इस नियम का कठोरता से पालन करें।
यह तो हुई साधारण त्रिफला सेवन विधि, पर आप कायाकल्प के लिए नियमित इसका इस्तेमाल कर रहे है तो, इसे विभिन्न ऋतुओं के अनुसार इसके साथ गुड़, सैंधा नमक आदि विभिन्न वस्तुएं मिलाकर लें, हमारे यहाँ वर्ष भर में छ: ऋतुएँ होती हैं, और प्रत्येक ऋतु में दो दो मास होते हैं।
1- ग्रीष्म ऋतु- 14 मई से 13 जुलाई तक, त्रिफला को गुड़ 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।
2- वर्षा ऋतु- 14 जुलाई से 13 सितम्बर तक, इस समय इस त्रिदोषनाशक चूर्ण के साथ सैंधा नमक 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें |
3- शरद ऋतु – 14 सितम्बर से 13 नवम्बर तक, इस समयावधि में त्रिफला के साथ देशी खांड 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।
4- हेमंत ऋतु- 14 नवम्बर से 13 जनवरी के बीच त्रिफला के साथ सौंठ का चूर्ण 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।
5- शिशिर ऋतु- 14 जनवरी से 13 मार्च के बीच छोटी पीपल का चूर्ण 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।
6- बसंत ऋतु- 14 मार्च से 13 मई के दौरान इस के साथ शहद मिलाकर सेवन करें। शहद उतना मिलाएं जितना मिलाने से अवलेह बन जाये।
इस तरह इसका सेवन करने से एक वर्ष के भीतर शरीर की सुस्ती दूर होगी, दो वर्ष सेवन से सभी रोगों का नाश होगा, तीसरे वर्ष तक सेवन से नेत्रों की ज्योति बढ़ेगी, चार वर्ष तक सेवन से चेहरे का सोंदर्य निखरेगा, पांच वर्ष तक सेवन के बाद बुद्धि का अभूतपूर्व विकास होगा, छ: वर्ष तक सेवन के बाद बल बढेगा, सातवें वर्ष में सफ़ेद बाल काले होने शुरू हो जायेंगे, और आठ वर्ष सेवन के बाद शरीर युवाशक्ति सा परिपूर्ण लगेगा।
दो तोला हरड बड़ी मंगावें। तासू दुगुन बहेड़ा लावें।
और चतुर्गुण मेरे मीता ले आंवला परम पुनीता।।
कूट छान या विधि खाय। ताके रोग सर्व कट जाय।।
त्रिफला का अनुपात होना चाहिए :- 1 : 2 : 3 = 1 (हरड ) + 2 (बहेड़ा ) + 3 (आंवला )
मतलब जैसे आपको 100 ग्राम त्रिफ़ला बनाना है तो, 20 ग्राम हरड + 40 ग्राम बहेडा + 60 ग्राम आंवला
अगर साबुत मिले तो तीनो को पीस लेना और अगर चूर्ण मिल जाए तो मिला लेना
त्रिफला लेने का सही नियम –
सुबह अगर हम त्रिफला लेते हैं तो, उसको हम “पोषक” कहते हैं। क्योंकि सुबह त्रिफला लेने से त्रिफला शरीर को पोषण देता है, जैसे शरीर में vitamine, iron, calcium, micronutrients की कमी को पूरा करता है, एक स्वस्थ व्यक्ति को सुबह ही त्रिफला खाना चाहिए।
सुबह जो त्रिफला खाएं हमेशा गुड के साथ खाएं।
रात में जब त्रिफला लेते हैं उसे “रेचक” कहते हैं क्योंकि रात में त्रिफला लेने से पेट की सफाई (कब्ज इत्यादि) का निवारण होता है।
रात में त्रिफला हमेशा गर्म दूध के साथ लेना चाहिए।
— नेत्र प्रक्षलन: (त्रिफला के पानी से नेत्रों को धोना) एक चम्मच त्रिफला चूर्ण रात को एक कटोरी पानी में भिगोकर रखें, सुबह कपड़े से छानकर उस पानी से आंखें धो लें। यह प्रयोग आंखों के लिए अत्यंत हितकर है। इससे आंखें स्वच्छ व दृष्टि सूक्ष्म होती है। आंखों की जलन, लालिमा आदि तकलीफें दूर होती हैं।
— कुल्ला करना : त्रिफला रात को पानी में भिगोकर रखें। सुबह मंजन करने के बाद यह पानी मुंह में भरकर रखें। थोड़ी देर बाद निकाल दें। इससे दांत व मसूड़े वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं। इससे अरुचि, मुख की दुर्गंध व मुंह के छाले नष्ट होते हैं।
— त्रिफला के गुनगुने काढ़े में शहद मिलाकर पीने से मोटापा कम होता है। त्रिफला के काढ़े से घाव धोने से एलोपैथिक – एंटिसेप्टिक की आवश्यकता नहीं रहती। घाव जल्दी भर जाता है।
— गाय का घी व शहद के मिश्रण (घी अधिक व शहद कम) के साथ त्रिफला चूर्ण का सेवन आंखों के लिए वरदान स्वरूप है।
— संयमित आहार-विहार के साथ इसका नियमित प्रयोग करने से मोतियाबिंद, कांचबिंदु-दृष्टिदोष आदि नेत्र रोग होने की संभावना नहीं होती।
— मूत्र संबंधी सभी विकारों व मधुमेह में यह फायदेमंद है। रात को गुनगुने पानी के साथ त्रिफला लेने से कब्ज नहीं रहती है।
— मात्रा : 2 से 4 ग्राम चूर्ण दोपहर को भोजन के बाद अथवा रात को गुनगुने पानी के साथ लें।
— त्रिफला का सेवन रेडियोधर्मिता से भी बचाव करता है। प्रयोगों में देखा गया है कि, त्रिफला की खुराकों से गामा किरणों के रेडिएशन के प्रभाव से होने वाली अस्वस्थता के लक्षण भी नहीं पाए जाते हैं। इसीलिए त्रिफला चूर्ण आयुर्वेद का अनमोल उपहार कहा जाता है।
सावधानी : दुर्बल, कृश व्यक्ति तथा गर्भवती स्त्री को एवं नए बुखार में त्रिफला का सेवन नहीं करना चाहिए।
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अशोकारिष्ट
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जो स्त्रियों के समस्त शोकों (रोगों) को दूर रखता है, वह वृक्ष दिव्य औषधि अशोक कहलाती है। नारी स्वास्थ्य के परम मित्र अशोक वृक्ष की छाल का मुख्य घटक के रूप मे प्रयोग कर “अशोकारिष्ट” बनाया जाता है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ “भैषज्य रत्नावली” के अनुसार अशोकारिष्ट रक्तप्रदर, ज्वर, रक्तपित्त, रक्तार्श (खूनी बवासीर), मन्दाग्नि, अरुचि, प्रमेह, शोथ आदि रोगों को नष्ट करता है। गर्भाशय को बलवान बनाने और गर्भाशय की शिथिलता से उत्पन्न होने वाले अत्यार्तव विकार ( Polymenorrhea) मे इसका उत्तम उपयोग होता है ।
गर्भाशय के अन्दर के आवरण मे विकृति ( Endometritis), डिम्बवाहिनी ( Fallopian tube) की विकृति, गर्भाशय के मुख (Cervix Uteri) पर, योनि मार्ग मे, गर्भाशय के अन्दर या बाहर व्रण (घाव) हो जाने से अत्यार्तव रोग उत्पन्न होता है, इसमे यह अशोकारिष्ट उत्तम लाभ करता है। बहुत सी लड़कियों और स्त्रियों को मासिक धर्म के दौरान भयंकर पीड़ा होती हैं, जिसे कष्टार्तव (Dysmenorrhea) कहते हैं। इस रोग के पीछे मुख्यतः डिम्बवाहिनी और डिम्बाशय की विकृति कारण होती है । इसमे कमर मे भयंकर दर्द, उदर पीड़ा, सिरदर्द, उल्टियां आदि कष्ट उत्पन्न होते हैं। इन सभी विकारों मे यह योग अशोकारिष्ट उत्तम लाभ करता है।
भोजनोपरान्त आधा कप पानी मे मिलाकर इसकी 4-4 चम्मच मात्रा दोनो समय लेनी चाहिए।
वर्तमान समय में अधिकांश स्त्रियाँ व लड़कियां प्रदर रोग से ग्रसित रहती है। इसका कारण है – अति सहवास, गर्भस्राव, गर्भपात, अपच, अजीर्ण, कमजोरी, अति परिश्रम, मद्यपान, अधिक उपवास, अधिक शोक, तनाव, चिन्ताग्रस्त रहना, दिन मे शयन, आलस्य, बिलकुल श्रम न करना, तले हुए, खटाई युक्त और तेज मिर्च मसालेदार पदार्थों का अति सेवन, इन सब कारणों से स्त्रियो के शरीर मे पित्त प्रकोप व अम्लपित्त की स्थिति निर्मित होती है, और इसका प्रभाव रक्त पर होता है, और योनि मार्ग से चिकना, लसदार, चावल के धोवन के समान श्वेत स्राव या पीला, नीला, लाल-काला मांस के धोवन के समान रक्त गिरने लगता है, और उससे दुर्गन्ध आने लगती है, और परिणाम स्वरूप शरीर दर्द, कमजोरी,कमर व पैरो में दर्द, सिरदर्द, चक्कर आना, बेचैनी व कब्ज आदि शिकायतें हो जाती है। इन सब व्याधियों के कारणों को नष्ट करने के लिये यह अशोकारिष्ट उत्तम है—————————————————-
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उपवास
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उपवास के लाभ –
आयुर्वेद के अनुसार प्राणी के उदर में खाने को जठराग्नि पचाती है। और खाना न खाने पर पर वह शरीर के दोषों को पचाती है। वस्तुत: मात्रा तथा समय को ध्यान में रख कर यदि भोजन नहीं किया जायेगा तो उस खाने से शरीर में विकार पैदा होंगे।
उदाहरणार्थ – यदि शरीर के इस नियम पर यदि हम ध्यान नहीं देते, अर्थात् मात्रा का ध्यान रख कर यदि हम नहीं खाते, अर्थात् भोजन वास्तविक भूख समाप्त होते ही हम बंद नहीं कर देते, भोजन के साथ यदि फल, फूल, शाक, तरकारी इत्यादि नहीं खाते, या फिर समय का ध्यान नहीं रखते, अर्थात् बिना भूख लगे ही हम खाते हैं तो ऐसा भोजन हमें अवश्य हानि पहुँचायेगा। प्रकृति के सारे कार्य धीरे-धीरे और बंधे नियमों के आधार पर होते हैं। आज ही हम गलत भोजन करें, और आज ही हम रोगी हो जायें, ऐसा प्रायः नहीं होता, गलत समय और गलत प्रकार से भोजन करने से शरीर में विकार धीरे धीरे विकसित होते हैं।
उपवास एक प्रकार से गलत भोजन करने का प्रायश्चित है। दोषों को पचाने वाली प्रक्रिया उपवास हैं। दोषों को पचाने में कुछ कष्ट होता है। दोष हमारी गलती से होते हैं। यदि शरीर के भीतर दोष जलते हैं तो, हम उसे ‘ज्वर’ कहते हैं, और जब दोष बाहर निकलते हैं तो हम उसे ‘कफ’ आदि कहते हैं। इस प्रकार से ‘रोग’ प्रकृति द्वारा शरीर के अन्दर संचित विजातीय द्रव्यों के बाहर निकालने के प्रयत्न का रूप है, ‘रोग‘ जिनका नाम सुन कर हम काँप जाते हैं, एक प्रकार से हमारे लिए मित्र हैं, शत्रु नहीं।
तीनों विकारों- वात-पित्त-कफ को जठराग्नि पचाता है, पेट को यदि हम अवकाश दें तो, वह दोषों को पचायेगा। तेज बुखार हमसे कहता है- अब मत खाना, यह अंतिम चेतावनी है।
लगातार भोजन करने से दोष अधिक हो जायेंगे, तब यदि हम पेट को भोजन न देंगे तो कष्ट होगा। जितना ही शरीर में विजातीय द्रव्य होगा, उपवास काल में उतना ही कष्ट होगा। याद रहे शरीर में उपवास के कारण कष्ट नहीं होता वरन् कष्ट तो उन विकारों के कारण होता हैं जो हमारे शरीर में होते हैं।
उपवास करने से सफाई होती है। एक तो हम नित्य-नित्य घर में झाड़ू लगाते हैं। फिर हर इतवार को अर्थात् प्रति सप्ताह पर्याप्त सफाई करते हैं। और वर्ष भर में एक बार दीपावली के अवसर पर तो पूरे घर भर की सफाई होती है सफेदी आदि पोत कर। यही लाभ उपवास के संबंध में होना चाहिए। नव दुर्गाओं के अवसर पर ऋतु परिवर्तन होता है, तथा रोगों का तब प्रकोप होता है। अतः 9 दिन नव रात्रि में हम बड़ी सफाई (वार्षिक) उपवास द्वारा करें। नित्य प्रति के उपवास यह है कि 12 बजे दोपहर के पहले भोजन न करे तो हमारा अर्ध उपवास हो जायगा। सप्ताह में एक बार या प्रति प्रदोष तथा एकादशी आदि का व्रत रखें तो यह साप्ताहिक उपवास हुआ।
शरीर में विकार के कारण ही कष्ट होता है। जितना ही हमारा शरीर मल रहित होगा, या मल रहित होता जायेगा, उतना कम कष्ट भय होगा या होता जायेगा। जैसे गर्द वाले फर्श में झाड़ू देने से तो गर्द उड़ेगी, पर साफ आँगन में झाड़ू देने पर गर्द नहीं उड़ेगी। गर्द उड़ेगी, इस डर से क्या हम झाड़ू ही न लगाएं? प्रारंभ में गर्द का कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा, और उसके बाद फिर ‘सफाई’ का आनन्द प्राप्त होगा।
बारह बजे दोपहर तक (मल बाहर निकालने का) काल है। अब जब माँस ही बनाता है तो सुबह ही क्यों खाया जाये? पानी शरीर के विकार को घोल कर बाहर निकालता है। इसी से जो प्रातःकाल पर्याप्त जल पीते हैं वह जानते हैं कि कितना खुल खुल कर पेशाब होता है।
ठंडा जल शक्तिवर्धक होता है, और गरम जल संचारक होता है। ठंडे जल से जो जितना नहायेगा उतना ही शरीर मजबूत बनेगा। परन्तु ‘अहिंसा’ का सदा ध्यान रखे। यदि कमजोर शरीर के ठंडा पानी माफिक न पड़े तो बहुत ठंडे पानी से नहाना शरीर के साथ ‘हिंसा’ होगी। धीरे-धीरे वह ठंडे जल का अभ्यास करें।
क्रिया के बाद प्रतिक्रिया सदा होती है। जितनी ही प्रतिक्रिया हो और अच्छी प्रतिक्रिया हो, उसी हिसाब से ठंडा पानी दें। उपवास के साथ पीने नहाने या एनेमा के रूप में जल का अटूट सम्बंध है, अतः जल का महत्व अत्यधिक है।
उपवास- जब पेट को भोजन मिलता है, तो उदर भोजन को पचाने का कार्य करने लगता है। परंतु भोजन न मिलने पर वह शरीर के दोषों को उभार कर उन्हें पचाने में लग जाता है। इस लिए उचित उपवास आवश्यक है, जब उदर ने दोषों को पचाने का कार्य आरम्भ कर दिया है, और उन उखड़े हुए दोषों के रूप में परिभ्रमण के कारण हमें कष्ट हो रहा हो जैसे जी मिचलाना, सरदर्द आदि और तब हमें भोजन कर लेना है, तो नतीजा यह होगा कि उभरे हुए दोष झट से दब जायेंगे। हमारा उदर दोषों को पचाना छोड़ फिर अन्न पचाने में लग जायेगा, तथा हमारे शारीरिक कष्ट शाँत हो जायेंगे।
यदि इतनी सी बात हम समझ लें तो भोजन तथा उपवास के सिद्धान्त को हम समझ गए। भोजन केवल माँस बनाता है, शक्ति नहीं देता। शक्ति तो केवल उस रहस्यमयी वस्तु से प्राप्त होती है, जिसे हम प्रकृति, ईश्वर या ऐसा ही कुछ नाम देते हैं। मेरी बात संभव है 99 प्रतिशत लोगों को ठीक न जंचे। उनके लिए उदाहरण हैं- अनोखे योगी “देवराहा बाबा” (समाधि में लीन रहते थे, कुछ नहीं खाया न ही पिया, उनकी तो अंतड़ियां ही सूख गई थीं।) आत्म शुद्धि तथा ईश्वर परायणता से वास्तविक शक्ति प्राप्त होती है। यही कारण है कि उपवास काल में मनुष्य आत्मा या ईश्वर के अति निकट होता है।—————————————————-
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वायरस
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अष्ठांग आयुर्वेद का एक अंग है- भूत-चिकित्सा जिसमें भूत अर्थात् विषाणु जनित रोगों की चिकित्सा का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। भूत अर्थात् विषाणु को आज का चिकित्सा विज्ञान (virus) के नाम से जानता है। विषाणु जनित रोग भी अनेक हैं, जिसकी औषधिय चिकित्सा अधुनिक चिकित्सा शास्त्रीयों के पास लगभग नहीं है। परंतु वैदिक व पौराणिक काल में यह चिकित्सा आयुर्वेदिक औषधियों तथा मंत्रों के द्वारा सहज ही उपलब्ध थी।
इस प्रकार के रोगों को जटिल रोगों की श्रेणी में रखा गया है, आज वायरस जनित रोगों के रूप में जिन रोगों को पहचाना जा चुका है उनमें- लीवर के कुछ रोग जैसे- 1. हैपेटाईटस ए, बी, सी, इत्यादि, 2. चेचक या चेचक जैसे रोग- पोक्स, चिकन-पोक्स, चिकन-गुनिया इत्यादि, 3. गलगण्ड, 4. फलू श्रेणी के कुछ रोग जैसे स्वाईन फलू इत्यादि, 5. फाईलेरिया इत्यादि प्रमुख है। और अब एक नया रोग ईबोला सामने आया है।
इस के अतिरिक्त भी अनेक रोग हैं जो कभी-कभी अनुकूल वातावरण मिलने पर तुरंत प्रकट होते हैं। इनमें से अनेक रोग तो ऐसे हैं जो सैकडों वर्षो के बाद तब प्रकट होते हैं जब उनके विषाणुओं को अनुकूल मौसम तथा परिस्थिति मिलती है। इसी लिये ऐसे रोग जब-जब प्रकट होते हैं तब-तब आधुनिक चिकित्सा शास्त्री हैरान व परेशान हो जाते हैं। क्योकि उनके लिये सामान्य रोगों से हटकर यह बिलकुल नये रोग होते हैं। जैसा की गत कुछ वर्षो में नये-नये रोग प्रकट होते दिखाई देते रहे हैं।
आज चिकित्सा विज्ञान ने बेशक अनेक रोगों की चिकित्सा में विशेषकर ऐसे रोग जिनमें शल्यक्रिया की आवश्यकता होती है, के लिये काबिले-तारीफ प्रगति की है। परंतु वहीं यह अधुनिक चिकित्सा विज्ञान अनेक ऐसे विषाणु जनित रोगों से अपरिचित भी है, जिनकी चिकित्सा का वर्णन वेद-पुराणों एवं आयुर्वेद तथा मंत्रशास्त्रों में मिलता है। परंतु इसमें भी कठिनाई यह है कि- यह विवरण तथा उपचार पद्धितियाँ वेदों में, पुराणों में, आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र में, तथा मंत्र-तंत्र के प्राचीन ग्रन्थों में बिखरी हुई हैं। आज आवश्यकता है, इन्हें पहचान कर संकलित करने की और जठिल रोगों की चिकित्सा में इनका प्रयोग करने की। वैदिक तथा पौराणिक काल में अनेक ऐसे विषाणु जनित रोगों की पहचान की गई थी। इन्हीं विषाणु जनित रोगों में से कुछ वह रोग भी हैं जिन्हें आज का चिकित्सा विज्ञान मानसिक रोग मानता है। परंतु स्याने या ओझा तथा आयुर्वेद भी इन रोगों की पहचान भूतरोग (virus) से होने वाले रोगों के रूप में न केवल करता है, अपितु इनकी सफल चिकित्सा भी सुझाता है, यह बात अलग है कि आज उन रोगों की चिकित्सा करने वाले घीरे-धीरे लुप्त हो गये हैं। इनके लुप्त होने का एक कारण यह भी है कि इस चिकित्सा पद्धति को जानने वालों को जादू-टोना कर दूसरों को हानि पहुचाने वाला तांत्रिक माना जाता था, बेशक इनमें से कुछ स्याने इस प्रकार की दुष्प्रवृति वाले रहे होंगे। आज से 50-100 वर्ष पूर्व तक भी इन पद्धतियों को जानने वाले अनेक विद्वान उपलब्ध थे। जिन्हें आम लोग अपनी भाषा में स्याना या ओझा कहते थे। यह स्याने मंत्रो के साथ-साथ औषधियों का समुचित ज्ञान भी रखते थे। आज भी इन में से थोड़ी बहुत विद्या जानने वाले इन का सफल प्रयोग ऐसे ही विषाणु जनित रोगों पर किया करते हैं। जैसे- पीलिया रोग का झाड़ा करने वाले स्याने, गलगण्ड तथा फाईलेरिया की मंत्र चिकित्सा करने वाले ओझा और फलू की चिकित्सा करने वाले मांत्रिक।
अनेक मानसिक रोग हैं, जिन्हें आयुर्वेद शास्त्र भूत-चिकित्सा के नाम से पहचानता है, इनमें भी अधिकांश मानसिक रोगों की शिकार महिलायें ही होती हैं, यह वह मातायें बहने होती हैं, जो मासिक के दिनों में सफाई का विशेष ध्यान नहीं रखती हैं। इस प्रकार के भूतों (विषाणुओं) के अनेक नाम भी आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित हैं। इसी प्रकार नवजात शिशुओं को होने वाले कुछ विषाणु जनित रोगों का वर्णन भी इन शास्त्रों में वर्णित हैं। जिनके बचाव तथा उपचार का वर्णन भी सविस्तार मिलता है।
भूत-चिकित्सा हेतु चिकित्सा पद्धतियां?- विषाणु जनित रोगों की चिकित्सा करने वाले विशेषज्ञ जानते थे की किस प्रकार के विषाणु से होने वाले रोग की क्या पहचान है, तथा उस जठिल रोग की चिकित्सा में किस प्रकार की वनौषधि तथा किस प्रकार के मंत्रोपचार और किस तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण से बनने वाले विशेष योग (मुहूर्त) में आरम्भ करनी है, अथवा किस योग मुहूर्त में इनमें से किस प्रकार के रोग की औषधि तैयार की जानी चाहिये। इस प्रकार भूत-चिकित्सा में आयुर्वेद तथा मंत्रशास्त्र के साथ-साथ ज्योतिषीय योगदान भी बराबर का था। वैसे तो इन रोगों के अनेक ज्योतिषीय योग शास्त्रों में वर्णित हैं परंतु अधिकांश विषाणु जनित रोगों के प्रमुख कारक ग्रह शनि-राहु का विशेष योग होता है। इन कष्टसाध्य रोगों का विचार कुण्डली में लग्न, षष्ठ, अष्टम दोनों से, अष्टमात् अष्टम से अर्थात् तृतीय भाव, षष्ठात् षष्ठ अर्थात् एकादश व व्यय स्थान से किया जाता है। इसी प्रकार इन रोगों का उपाय-दवाई निर्माण तथा भक्षण का मुर्हूत चिंतामणि के मतानुसार इस प्रकार है –
भेषऽयं सल्लघुमृदुयरे मूलभे द्वयंगलाने।।
शुक्रेन्द्विज्यें विदि च दिवसे चापि तेषां रवेश्च
शुद्धेरिःफधुनमृतिगृहे सतिथौ नो जनर्भे।।
लघु संज्ञक- हस्त, अश्विनी, पुष्य, मृदु-मृगशीर्ष रेवती, चित्रा, अनुराधा, चरसंक्षक, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और मूल नक्षत्र में तथा द्विस्वभाव लग्न में शुक्र, सोम, गुरू, बुध, और रविवार के दिन में लग्न से सातवें, आठवें व बारहवें भाव शुद्ध हों, जन्म नक्षत्र न हो तथा शुभ तिथि में औषधि (दवाई) का सेवन अथवा निमार्ण करना श्रेष्ठ है। मेरे विचार से आज के समय में सभी विषाणु जनित तथा अन्य रोगों के उपाय में मंत्र सिद्ध कवच (ताबीज) तथा ग्रहों के रत्नादि का धारण करना भी कारगर उपाय हैं।
किस प्रकार की जाती थी इन रोगों की चिकित्सा?-
1. विशेष मंत्रों को जिस साधक ने सिद्ध किया हो ऐसे साधक को अधिकार प्राप्त होता है कि वे उस मंत्र का प्रयोग जन कल्याण के लिये कर सकता है, वह सिद्ध किसी मोरपंखे, झाडू या चक्कू से रोगी पर मंत्र का झाड़ा करता है जिससे विषाणु जनित रोग शीघ्र शांत होते हैं।
2. कम-से-कम 12 वर्ष तक गायत्री साधना करने वाले साधक गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल (मंजे हुये शुद्ध बर्तन में शुद्ध कूपजल या गंगाजल डालकर 11 बार गायत्री मंत्र बोलते हुये उसमें दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली फिराकर रोगी तथा रोगी के कमरे में सर्वत्र छिड़क दें। थोड़ा-थोड़ा, प्रातः संध्या दोनों समय उस व्यक्ति को पिला दें और उसके बिछौनों पर छिड़क दें। उसके कान में गायत्री मंत्र सुनायें। गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित गंगाजल नहाते समय उसके मस्तक पर थोड़ा सा डाल दें।
3. श्रीमद्भागवत गीता का यह श्लोक उसको बार-बार सुनायें और कई कागजों पर लिखकर दीवाल पर टांग दें:-
स्थाने हृषीकेश तब प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो प्रेवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंधा।। (11।36)
इसके द्वारा (उपर्युक्त रीति से) अभिमंत्रित जल भी रोगी को पिलाना चाहिये। किसी मांत्रिक से सिद्ध यंत्र मंगलवार के दिन भोजपत्र पर लाल चंदन से लिखकर (पुरूष हो तो दाहिने हाथ में, स्त्री हो तो बायें हाथ में) चांदी या तांबे के ताबीज में डालकर, धूप देकर बांध दें, और प्रतिदिन गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल उस पर छिड़कते और उसे पिलाते रहें।
4. ऐसे और भी बहुत से मंत्र-यंत्र हैं, जो प्रेत-पीड़ा निवारण के सफल साधन हैं। परन्तु इनके जानकार बहुत कम मिलते हैं, ओर आज कल तो अधिकांश स्थानों पर ठगी भी चलती है। और भी अनेक यंत्र-मंत्र तथा शास्त्रीय उपाय-उपचार हैं, जिनका वर्णन इस छोटे से लेख में करना संभव नहीं है, अतः मंत्र-तंत्र-यंत्र के प्रयोग किसी विश्वास वाले साधक से ही लेने चाहियें जो इस विद्या पर अधिकार रखता हो। जो पाठक श्रद्धा रखते हों वे इस गायत्री सेवक डा. आर. बी. धवन से भी (झाड़ा) मंत्रोपचार के लिये सम्पर्क कर सकते हैं। आयुर्वेद में भूतबाधा की चिकित्सा का उल्लेख विशेष धूपों तथा अर्ध्यों के रूप में भी है, जिनसे यह पीड़ा शीघ्र मिट जाती है। उनका उपयोग भी हानिकर नहीं है, परन्तु उसमें भी जानकार विद्वान की जरूरत तो है ही। ऐसे कई देवस्थान भी हैं, जहाँ जाने से बाधायें दूर होती हैं। महामृत्युंजय मंत्र का जप, श्रीहनुमान चालीसा तथा बजरंग बाण के पाठ से भी भूतबाधा दूर होती है।
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एलर्जी
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“एलर्जी” एक आम शब्द, जिसका प्रयोग हम कभी किसी ख़ास व्यक्ति से मुझे एलर्जी है, के रूप में करते हैं, ऐसे ही हमारा शरीर भी ख़ास रसायन उद्दीपकों के प्रति अपनी असहज प्रतिक्रया को ‘एलर्जी’ के रूप में दर्शाता है।
बारिश के बाद आयी धूप तो ऐसे रोगियों क़ी स्थिति को और भी दूभर कर देती है, ऐसे लोगों को अक्सर अपने चेहरे पर रूमाल लगाए देखा जा सकता है, क्या करें छींक के मारे बुरा हाल जो हो जाता है।
हालांकि एलर्जी के कारणों को जानना कठिन होता है, परन्तु कुछ आयुर्वेदिक उपचार इसे दूर करने में कारगर हो सकते हैं, आप इन्हें अपनाएं और एलर्जी से निजात पाएं।
• नीम चढी गिलोय के डंठल को छोटे टुकड़ों में काटकर इसका रस हरिद्रा खंड चूर्ण के साथ 1.5 से तीन ग्राम नियमित प्रयोग करें, यह पुरानी से पुरानी एलर्जी में रामबाण औषधि है।
• गुनगुने निम्बू पानी का प्रातःकाल नियमित प्रयोग शरीर सें विटामिन- सी की मात्रा की पूर्ति कर एलर्जी के कारण होने वाले नजला-जुखाम जैसे लक्षणों को दूर करता है।
• अदरख, काली मिर्च, तुलसी के चार पत्ते, लौंग एवं मिश्री को मिलाकर बनायी गयी ‘हर्बल चाय’ एलर्जी से निजात दिलाती है।
• बरसात के मौसम में होनेवाले विषाणु (वायरस) संक्रमण के कारण ‘फ्लू’ जनित लक्षणों को नियमित ताजे चार नीम के पत्तों को चबा कर दूर किया जा सकता है।
• आयुर्वेदिक औषधि सितोपलादि चूर्ण’ एलर्जी के रोगियों में चमत्कारिक प्रभाव दर्शाती है।
• नमक पानी से ‘कुंजल क्रिया’ एवं ‘नेती क्रिया’ कफ दोष को बाहर निकालकर पुराने से पुराने एलर्जी को दूर कने में मददगार होती है।
• पंचकर्म की प्रक्रिया ‘नस्य’ का चिकित्सक के परामर्श से प्रयोग ‘एलर्जी’ से बचाव ही नहीं इसकी सफल चिकित्सा है।
• प्राणायाम में ‘कपालभाती’ का नियमित प्रयोग एलर्जी से मुक्ति का सरल उपाय है।
कुछ सावधानियां जिन्हें अपनाकर आप एलर्जी से खुद को दूर रख सकते हैं : –
• धूल, धुआं एवं फूलों के परागकण आदि के संपर्क से बचाव।
• अत्यधिक ठंडी एवं गर्म चीजों के सेवन से बचना।
• कुछ आधुनिक दवाओं जैसे : एस्पिरीन, निमासूलाइड आदि का सेवन सावधानी से करना।
• खटाई एवं अचार के नियमित सेवन से बचना।
हल्दी से बनी आयुर्वेदिक औषधि :- हरिद्रा खंड के सेवन से शीतपित्त, खुजली, एलर्जी, और चर्म रोग नष्ट होकर देह में सुन्दरता आ जाती है। बाज़ार में यह ओषधि सूखे चूर्ण के रूप में मिलती है। इसे खाने के लिए मीठे दूध का प्रयोग अच्छा होता है, परन्तु शास्त्र विधि में इसको निम्न प्रकार से घर पर बना कर खाया जाये तो अधिक गुणकारी रहता है। बाज़ार में इस विधि से बना कर चूँकि अधिक दिन तक नहीं रखा जा सकता, इसलिए नहीं मिलता है। घर पर बनी इस विधि से बना हरिद्रा खंड अधिक गुणकारी और स्वादिष्ट होता है। कई सालो से चलती आ रही एलर्जी, या स्किन में अचानक उठाने वाले चकत्ते, खुजली इसके दो तीन माह के सेवन से हमेशा के लिए ठीक हो जाती है। इस प्रकार के रोगियों को यह बनवा कर जरुर खाना चाहिए, और अपने मित्रो कोभी बताना चाहिए, यह हानि रहित निरापद बच्चे बूढ़े सभी को खा सकने योग्य है, जो नहीं बना सकते वे या शुगर के मरीज, कुछ कम गुणकारी, चूर्ण रूप में जो की बाज़ार में उपलब्ध हे का सेवन कर सकते हैं।
हरिद्रा खंड निर्माण विधि :-
सामग्री – हरिद्रा -320 ग्राम, गाय का घी – 240 ग्राम, दूध – 5 किलो, शक्कर -2 किलो।
सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, तेजपत्र, छोटी इलायची, दालचीनी, वायविडंग, निशोथ, हरड, बहेड़ा, आंवले, नागकेशर, नागरमोथा, और लोह भस्म, प्रत्येक 40-40 ग्राम (यह सभी आयुर्वेदिक औषधि विक्रेताओ से मिल जाएँगी), आप यदि अधिक नहीं बनाना चाहते तो हर वस्तु अनुपात रूप से कम की जा सकती है। (यदि हल्दी ताजी मिल सके तो 1 किलो 250 ग्राम लेकर छीलकर मिक्सर पीस कर काम में लें)
बनाने की विधि – हल्दी को दूध में मिलाकार खोया या मावा बनाये, इस खोये को घी डालकर धीमी आंच पर भूने, भुनने के बाद इसमें शक्कर मिलाये, सक्कर गलने पर शेष औषधियों का कपड छान बारीक़ चूर्ण मिला देवें। अच्छी तरह से पाक जाने पर चक्की या लड्डू बना लें।
सेवन की मात्रा – 20-25 ग्राम दो बार दूध के साथ।
(बाज़ार में मिलने वाला हरिद्रखंड चूर्ण के रूप में मिलता है, इसमें घी और दूध नहीं होता, शकर कम या नहीं होती अत : खाने की मात्रा भी कम 3 से 5 ग्राम दो बार रहेगी)।
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सुश्रुतसंहिता
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शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के पितामह और सुश्रुतसंहिता के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व काशी में हुआ था। सुश्रुत का जन्म विश्वामित्र के वंश में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की थी।
सुश्रुतसंहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसमें शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। आठवीं शताब्दी में सुश्रुतसंहिता का अरबी अनुवाद किताब-इ-सुश्रुत के रूप में हुआ। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी।
एक बार आधी रात के समय सुश्रुत को दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। उन्होंने दीपक हाथ में लिया और दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी। उस व्यक्ति की आंखों से अश्रु-धारा बह रही थी और नाक कटी हुई थी। उसकी नाक से तीव्र रक्त-स्राव हो रहा था। व्यक्ति ने आचार्य सुश्रुत से सहायता के लिए विनती की। सुश्रुत ने उसे अन्दर आने के लिए कहा। उन्होंने उसे शांत रहने को कहा और दिलासा दिया कि सब ठीक हो जायेगा। वे अजनबी व्यक्ति को एक साफ और स्वच्छ कमरे में ले गए। कमरे की दीवार पर शल्य क्रिया के लिए आवश्यक उपकरण टंगे थे। उन्होंने अजनबी के चेहरे को औषधीय रस से धोया और उसे एक आसन पर बैठाया। उसको एक गिलास में शोमरस भरकर सेवन करने को कहा और स्वयं शल्य क्रिया की तैयारी में लग गए। उन्होंने एक पत्ते द्वारा जख्मी व्यक्ति की नाक का नाप लिया और दीवार से एक चाकू व चिमटी उतारी। चाकू और चिमटी की मदद से व्यक्ति के गाल से एक मांस का टुकड़ा काटकर उसे उसकी नाक पर प्रत्यारोपित कर दिया। इस क्रिया में व्यक्ति को हुए दर्द का शौमरस ने महसूस नहीं होने दिया। इसके बाद उन्होंने नाक पर टांके लगाकर औषधियों का लेप कर दिया। व्यक्ति को नियमित रूप से औषाधियां लेने का निर्देश देकर सुश्रुत ने उसे घर जाने के लिए कहा।
सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ऑपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डी का पता लगाने और उनको जोड़ने में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे।
उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शरीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। उन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर संरचना, काया-चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी। कई लोग प्लास्टिक सर्जरी को अपेक्षाकृत एक नई विधा के रूप में मानते हैं। प्लास्टिक सर्जरी की उत्पत्ति की जड़ें भारत की सिंधु नदी सभ्यता से 4000 से अधिक साल से जुड़ी हैं। इस सभ्यता से जुड़े श्लोकों को 3000 और 1000 ई.पू. के बीच संस्कृत भाषा में वेदों के रूप में संकलित किया गया है, जो हिन्दू धर्म की सबसे पुरानी पवित्र पुस्तकों में में से हैं। इस युग को भारतीय इतिहास में वैदिक काल के रूप में जाना जाता है, जिस अवधि के दौरान चारों वेदों अर्थात् ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद को संकलित किया गया। चारों वेद श्लोक, छंद, मंत्र के रूप में संस्कृत भाषा में संकलित किए गए हैं और सुश्रुत संहिता को अथर्ववेद का एक हिस्सा माना जाता है।
सुश्रुत संहिता, जो भारतीय चिकित्सा में सर्जरी की प्राचीन परंपरा का वर्णन करता है, उसे भारतीय चिकित्सा साहित्य के सबसे शानदार रत्नों में से एक के रूप में माना जाता है। इस ग्रंथ में महान प्राचीन सर्जन सुश्रुत की शिक्षाओं और अभ्यास का विस्तृत विवरण है, जो आज भी महत्वपूर्ण व प्रासंगिक शल्य चिकित्सा ज्ञान है। प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है- शरीर के किसी हिस्से की रचना ठीक करना। प्लास्टिक सर्जरी में प्लास्टिक का उपयोग नहीं होता है। सर्जरी के पहले जुड़ा प्लास्टिक ग्रीक शब्द प्लास्टिको से आया है। ग्रीक में प्लास्टिको का अर्थ होता है बनाना, रोपना या तैयार करना। प्लास्टिक सर्जरी में सर्जन शरीर के किसी हिस्से के उत्तकों को लेकर दूसरे हिस्से में जोड़ता है। भारत में सुश्रुत को पहला सर्जन माना जाता है। आज से करीब 2500 साल पहले युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनकी नाक खराब हो जाती थी, आचार्य सुश्रुत उन्हें ठीक करने का काम करते थे।
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