मुद्राओं द्वारा रोगोपचार

मुद्राओं द्वारा रोगोपचार साधना के क्षेत्र में मुद्राओं का विशिष्ठ महत्व सर्वविदित है। तंत्र के क्षेत्र में भी मुद्राओं का सुनियोजित और विस्तृत विवरण मिलता है। मुद्रा के अनेक अर्थ हैं, किन्तु साधारणतया साधनात्मक कार्यो में प्रयुक्त होने वाली मुद्राओं को, जो उंगलियों के माध्यम से देवता के प्रीत्यर्थ प्रकट की जाती हैं मुद्राएं कहा जाता है। इनका प्रयोग शक्ति साधक अनिवार्यतः करते हैं, लेकिन अन्य साधकों के लिए भी मुद्रा प्रदर्शन अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि साधना क्रम में यह एक आवश्यक क्रिया मानी गई है। कुलावर्ण तंत्र में लिखा है- ‘‘मुद्राः कुर्वन्ति देवानां मनासि द्रावयन्यि च।’’
‘‘मुद्राओ को प्रदर्शित करने पर देवता प्रसन्न होते हैं तथा मुद्रा प्रदर्शित करने वाले भक्त पर द्रवित होकर कृपा करते हैं।’’ कुछ तंत्र शास्त्रों में स्पष्ट है, कि मुद्रा प्रदर्शित करने पर व्यक्ति को देवताओं की समीप्यता प्राप्त होती है; मुद्राओं के प्रदर्शित करने पर देवता पूर्ण रूप से सन्तुष्ट रहते हैं तथा इन के प्रदर्शन से साधारण पूजा भी उत्तम हो जाती है, बिना मुद्राओं के सम्पत्र की हुई साधनाए, जप, देवाचार्वन, योग आदि निष्फल हो जाते हैं। मुद्राओं का केवल एक पक्ष नहीं -‘‘क्या मुद्रा द्वारा रोगों का उपचार भी सम्भव है?’’

निर्विषोऽपि भेवेत् क्षिप्रं यो जन्तुर्विषमूर्छितः। चत्वारिंशित् समाख्याता मुद्रा श्रेष्ठा महाधिकाः।।

‘‘मुद्रा प्रदर्शन से विष द्वारा मूच्र्छित व्यक्ति भी स्वस्थ्य लाभ प्राप्त करता है। व्याधि और मुत्यु तक का निवारण मुद्राओं द्वारा संभव है। मोक्ष, जो मनुश्य जीवन का सर्वोच्च सोपान है, वह भी मुद्रा प्रदर्शन से प्राप्त किया जा सकता है।’’ मुद्राओं के महत्व को जानकर यदि व्यक्ति चाहे, तो अनेक रोगों पर नियंत्रण कर सकता है। वर्तमान समय में तो इतने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोग है, जिनसे बचना मनुश्य के लिए कठिन हो गया है, न चाहते हुए भी अनेक प्रकार की औशधिओं का सेवन करना पड़ता है और जिसके कारण कभी-कभी अनेक प्रकार के साईड़ इफेक्ट हो जाते हैं, जैसे चेहरे पर अनेक प्रकार के दाने, फुंसियां निकल आती हैं, जिसकी वजह से सौन्दर्य क्षीण हो जाता है। इसके लिए ‘कुम्भ मुद्रा ’ का प्रयोग करें, तो चेहरा रोग रहित, कान्तियुक्त और चमकदार बनने लगेगा। कुम्भ मुद्रा में साधक अपने दाहिने हाथ से हल्की खुली सी मुट्ठी  बनावें, इसी प्रकार दूसरे हाथ से भी करें, दोनों हाथ के अंगूठे से तर्जनी को स्पर्श करते रहें बायें हाथ को दाहिने हाथ के ऊपर रखें। इसे कुम्भ मुद्रा कहते है। इसके नित्य प्रदर्शन से साधक का चेहरा आकर्षक बनता है तथा दाने व मुहासे साफ हो जाते है।
स्वर शोधक-
साधक यदि ‘प्राण मुद्रा’ सम्पन्न करें, तो स्वर से सम्बन्धित रोगों को नियंत्रित कर सकते है। प्राण मुद्रा सम्पन्न करने के लिए साधक अपने अंगूठे से अनामिका और कनिष्ठका के पोरों को स्पर्श करें, बाकी दोनों अंगुलियों को सीधा रखें, तो प्राण मुद्रा के प्रदर्शित करने से साधक के स्वर संस्थान पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है जिसके कारण उसका स्वर शुद्ध होता है। जिनका स्वर घरघराता हो या आवाज स्पष्ट न हो, उसे प्राण मुद्रा करने से बहुत लाभ होता है।
मुख शोधन-
व्यान मुद्रा’ प्रदर्शित करने से साधक के मुख से सम्बधित रोगों का शमन होता है। साधक बैठ कर अपने हाथ के अंगूठे से मध्यमा और अनामिका को स्पर्श करें, इससे व्यान मुद्रा प्रदर्शित होती है। इस मुद्रा के प्रदर्शन से साधक के मुख सम्बन्धी रोगों पर प्रभाव पड़ता है; जैसे यदि उसके मुंह से दुर्गन्ध आती है या उसके मुंह का स्वाद अक्सर बिगड़ा रहता है अथवा मुख में छाले निकलने लगते हो, तो इस मुद्रा को नित्य करने से बहुत लाभ मिलता है। गले के रोग- सर्दी या गर्मी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला अंग गला ही होता है। यह शीघ्र ही वातावरण से प्रभावित हो कर संक्रमित हो जाता है, जिसकी वजह से गला बैठना, गले में सूजन, दर्द या टॉन्सिल्स की शिकायत होने लगती है। यदि ऐसा व्यक्ति ‘उदान मुद्रा’ सम्पन्न करता है, तो उसे गले से सम्बन्धित रोग नहीं होते। इस मुद्रा को करते समय अपने हाथ के अंगूठे से तर्जनी अंगुली को स्पर्श करें और पूर्ण रूप से स्थिर होकर बैठें व मन ‘सौं’ बीज पर एकाग्र करें।
हृदय सम्बन्धी रोग-
‘आवाहनी मुद्रा’ सम्पन्न करने से हृदय रोगों पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। आवाहनी मुद्रा सम्पन्न करने के लिए साधक दोनों हाथों को मिलाकर अंजुली बना लें व अंगूठों से अनामिका के मूल को स्पर्श करें। ऐसा साधक नित्य स्थिर मन से जिस आसन में वह सुविधा अनुभव करे चाहे पद्यासन हो या सुखासन हो, बैठ कर करे। यह मुद्रा सम्पन्न करने से साधक हृदय के रोगों पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। यदि साधक घबराहट का अनुभव कर रहा हो, तो वह थोड़ी देर इस मुद्रा को न करे, तो उसे लाभ अवश्य होगा।
पेट के रोग-
‘सम्मुखीकरण मुद्रा’ सम्पन्न करने से साधक पेट से सम्बधित रोगों पर विजय प्राप्त कर लेता है। इस मुद्रा को सम्पन्न करने के लिए साधक स्थिर बैठ जाये व अपने दोनों हाथों से मुट्ठी  बनाये, अंगूठे को मुट्ठी के अन्दर रखे तथा दोनों हाथों की मुट्ठी को परस्पर कनिष्ठिका उंगली से मिला ले। इसे सम्पन्न करने पर पेट में यदि कीड़े भी हों या पित्त अधिक बनता हो, तो व्यक्ति को राहत मिलती है। यह मुद्रा पेट से सम्बधित रोगों में अत्यन्त सहायक होती है, जिसे नित्य करने से व्यक्ति इन रोगों को नियंत्रित कर सकता है।
चर्मरोग-
खुजली होने या किसी वस्तु से खाने -पीने से एलर्जी हो जाने से पर चमड़ी से सम्बन्धित रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे व्यक्ति असहजता अनुभव करता है। इस रोग के लिए ‘चक्र मुद्रा’ करने से नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। दोनों हाथों की उंगलियों को फैला लें व बायें हाथ की कनिष्का अंगुली से दाहिने हाथ की कनिष्किा को स्पर्श करें तथा बायें हाथ के अंगूठे से दाहिने हाथ के अंगूठे को परस्पर स्पर्श करें। इस प्रकार से चक्र मुद्रा प्रदर्शित होती है।
उच्च रक्तचाप-
उच्च रक्तचाप में ‘ज्ञान मुद्रा’ सहायक होती है। इस मुद्रा को करने से व्यक्ति को अपने रक्तचाप को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। ज्ञान मुद्रा को करने के लिए अंगूठे और तर्जनी को परस्पर स्पर्श करें। यह मुद्रा शान्तचित होकर सम्पन्न करनी चाहिए और नियमित रूप से करनी चाहिए तभी राहत का अनुभव होता है।

कमर के रोग-
‘सन्निरोधिनी मुद्रा’ सम्पन्न करने से कमर के रोगों पर नियंत्रण होता है। इस मुद्रा के लिए व्यक्ति अपने दोनों हाथों से मुत्ठियाँ बना कर उन्हे आमने-सामने कर जोड़ दें तथा थोडी देर तक कमर सीधी कर सुखासन पर बैठ कर यह मुद्रा सम्पन्न करें। इससे साधक को अपने कमर से सम्बधित रोगों में लाभ मिलता है। इस से कमर का तनाव भी समाप्त हो जाता है, कमर से सम्बधित अन्य रोगों में भी लाभ मिलता है।
गुर्दे के रोग-
यदि कोई गुर्दे के रोग से पीडि़त है या गुर्दे से सम्बधित किसी रोग से ग्रस्त है, तो वह यदि ‘गदा मुद्रा’ का नियमित अभ्यास करता है, तो उसे सम्बधित रोग पर नियंत्रण प्राप्त होता है। इस मुद्रा को प्रदर्शित करने के लिए दोनों हाथों की उंगलियों को एक दूसरे में फंसा दें। इससे गदा मुद्रा प्रदर्शित होगी। इस मुद्रा का नियमित अभ्यास करने से व्यक्ति को यदि गुर्दे में सूजन है तो उसे अच्छे परिणाम की प्राप्ति होती है।
हाथ और पांव से सम्बधित रोग-
यदि सायंकाल खड़े होकर ‘सम्पुटी मुद्रा’ को सम्पन्न किया जाए, तो साधक को हाथ और पांव से सम्बन्धित रोगों में आराम मिलता है। यदि पावों में अक्सर दर्द रहता हो तथा घुटने मोड़ने में अत्यधिक कष्ट हो, तो यह मुद्रा आराम दिलाने में सहायक होती है। वजन उठाने पर दर्द का अनुभव हो, तो इस मुद्रा को करने से लाभ होता है। इस मुद्रा को सम्पन्न करने के लिए बायें हाथ को आकाश की ओर रखें तथा उस पर दाहिने हाथ से सम्पुट करें। यह मुद्रा साधक 5 मिनट तक नित्य करें।
वात रोग
‘शंख मुद्रा’ इस मुद्रा को नित्य करने से व्यक्ति यदि वात रोग से पीडि़त है, तो उसे इस रोग में आराम मिलता है। इस मुद्रा को साधक प्रातः काल स्थिर भाव से बैठ कर सन्ध्यादि से पूर्व प्रदर्शित करे। इस मुद्रा के लिए बायें हाथ के अंगूठे को दाहिने हाथ से मुट्ठी बनाकर पकडे़ं तथा मुट्ठी को दाहिने हाथ की अंगुलियों से स्पर्श करायें, तो शंख मुद्रा प्रकट होगी। यह मुद्रा यदि नियमित रूप से 5-7 मिनट तक सम्पन्नकी जाय, तो वात रोगों में आश्चर्य जनक लाभ होता है।

यंत्रा और मंत्रा

यंत्रा और मंत्रा प्रजनन के देवता काम ने कादिविद्या मूलमंत्रा की उपासना की थी। जिसके बल से कामदेव का सामर्थय इतना बढ़ गया की वह बड़े-बड़े मुनियों के चित्त को भी आच्छत् करने लगा। ब्लें रति का बीज मंत्रा है। ब् और ल् उसके नेत्रा हैं और ए शक्ति रूप है। वपुषा पद से व्, लेह्येत पद से ले और महतां मुनिनां पद के अनुस्वार से लेकर उक्त बीज मंत्रा का उद्धरण किया जाता है। माया बीज और कामबीज के योग से ‘‘हृी क्लीं ब्लें’’ इस साध्य सिद्धमंत्रा का उद्धार है। इस मंत्रा से हृदयचक्र और महानाद के ऊपर शक्ति का न्यास किया जाता है। अर्थात् यंत्राकृति तैयार की जाती है। जिस का फल सौभाग्य प्राप्ति है।

इसी प्रकार महामृत्युजय यंत्रा और मंत्रा का विचार करें तो देखते हैं- इसके बीज हृौं जूं सः’ शिव-शक्तिमय हैं। हृौं शिवबीज, जूं जीवनबीज, सः शक्तिबीज है। शिवबीज हृौं से जीवनशिक्ति जूं का आप्यायन होता है तथा शक्तिबीज सः से जीवनशक्ति (जीवनक्रम) की वृद्धि होती है। जूं (जीवनशक्ति) के शिवशक्त्याश्रय होने से जीवन वृद्धि का नाम मृत्यु्जयसिद्धि है।

अभिष्ट की प्राप्ति के लिये मंत्रा और तंत्रा का या इनकी शक्तियों और प्रतिक्रियाओं का जो प्रयोग प्रतिकात्मक अथवा चित्रात्मक रूप से किया जाता है, उस स्वरूप को ‘यंत्रा’ कहा जाता है।

यंत्रा एवं उसकी साधना करके लौकिक कामनाओं की पूर्ति की जाती है। अथवा कहा जा सकता है कि अपनी कामना पूर्ति के लिये यंत्रा साधना क्रियात्मक विधान है। इसके द्वारा साधक साध्य से मिलकर अपनी समस्त इच्छाओं की पूर्ति करता है। इन यंत्रों के द्वारा न केवल हमारी सांसारिक इच्छायें पूर्ण होती हैं, बल्कि लौकिक सिद्धियाँ भी मिलती हैं जिनसे दुःखों की निवृति और अंत में मुक्ति भी संभव है।

प्रस्तुत ‘‘यंत्रा विशेषांक’’ में अनेक प्रकार के यंत्रा सम्बंधी लेख भिन्न-भिन्न लेखकों के द्वारा दिये गये हैं। वस्तुतः प्रत्येक साधक (लेखक) के अपने-अपने अनुभव के आधार पर ही यंत्रा सम्बंधी लेख प्रकाशित किये गये हैं। इस के साथ मेरी अपनी राय यही है कि आप किसी भी सिद्ध साधक के द्वारा प्राण प्रतिष्ठित यंत्रा ही लें क्योकि यंत्रा स्वयं में जड होते हैं; इनकी जब तक प्राण प्रतिष्ठा नहीं करवाई जाती तब तक यह चैत्नय अवस्था में नही आते और ना ही अपना पूर्ण शुभ प्रभाव ही प्रकट करते हैं। अथवा प्राण प्रतिष्ठा का विधान स्वयं समझकर स्वयं ही प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हैं। यह भी ध्यान रहे की कभी-कभी यंत्रा पूजा की सम्पूर्ण विधि-विधान के बाद भी सिद्ध नहीं होते ऐसा उस पूजा की प्रक्रिया की सही जानकारी के आभाव के कारण होता है।

एक्युप्रेशर-सिद्धान्त और पद्धति

एक्युप्रेशर-सिद्धान्त और पद्धति हमारा शरीर संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है।यह शरीर श्रेष्ठ स्वंयचालित, कोमल, नाजुक, सुक्ष्म पर अत्यंत शक्तिशाली यंत्रों से सुसज्जित है। हृदय और फेफड़े कभी न रुकनेवाले पंप हैं, आँखें आश्चर्यजनक कैमरा और प्रोजेक्टर हैं, कान अद्भुत ध्वनि व्यवस्था है, पेट आश्चर्यजनक रासायनिक लॅबोरेटरी  है, नाडि़याँ (छमतअमे) मीलों तक फैली सूक्ष्म संचार-व्यवस्था हैं, अनंत क्षमतावाला यह मस्तिष्क अद्भुत कॅम्प्यूटर है। और सबसे बड़ी विशेषता इसमें यह है कि इन सभी यंत्रो के बीच सहयोग के कारण हमारा यह मानव शरीर सौ से भी अधिक वर्षों तक सुचारु रुप से कार्यरत रह सकता है।

हम सौ वर्षों से भी अधिक समय तक सरलता पूर्वक जी सकते हैं। हर किसी अच्छे यंत्र में ऐसी रचना होती है जब भी कोई बड़ा खतरा पैदा होता है, वह अपने आप बंद हो जाता है और दोबारा तभी चालू होता है जब आप उसका बटन दबाते हैं-जैसे रेफ्रिजरेटर और गरम पानी का गीज़र। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसी ही कोई रचना-व्यवस्था हमारे मानव शरीर रुपी यंत्र मे भी हो। यह सच है कि हमारे शरीर की रचना बहुत ही जटिल है, परंतु उसकी देखभाल करना बहुत ही आसान है। प्रकृति ने स्वंय हमारे शरीर में ऐसी व्यवस्था की है, जिसके द्वारा अपने आप सभी यंत्रों की देखभाल सुचारु रुप से होती रहती है। भारत में सैकड़ों वर्ष पूर्व से एक्युप्रेशर थैरेपी प्रचलित थी।

दुर्भाग्य से हम उसे अच्छी तरह संभाल नहीं सके और ‘एक्यूपंक्चर के रुप में वह श्रीलंका जा पहुँची। श्रीलंका से बौद्ध भिक्षु इस चिकित्सा पद्धति को चीन और जापान ले गए। वहाँ इसका व्यापक प्रचार हुआ। आज चीन संपूर्ण विश्व को एक्युपंक्चर पद्धति सिखा रहा है। सोलहवीं शताब्दी में रेड इंडियन्स एक्यूप्रेशर पद्धति द्वारा पैर के तलवे के बिन्दुओं का दबाकर रोग मिटाते थे। एक्युप्रेशर शब्द ‘एक्युपंक्चर’ शब्द से सम्बन्ध है। ‘एक्यु’ आर्थात सूई और ‘पंक्चर’ अर्थात छेद करना। ‘एक्युपंक्चर’ का अर्थ है सूई द्वारा शरीर के किसी भी बिंदु पर छेदकर रोग नष्ट करने या शरीर के किसी अंग को निरोग बनाने की कला। ‘एक्युप्रेशर’ का अर्थ है उँगली, अंगूठे अथवा किसी कुंद साधन से दबाव देकर शरीर को निरोग रखने की पद्धति।

हमारा शरीर पंच महाभूतों अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश जैसे पाँच मूल तत्वों से बना है। विद्युत उसका संचालन करती है। एक्युपंक्चर पद्धति में इस विद्युत के दो प्रकार माने गए हैं-पहला पॉज़िटिव  (ची) तथा दूसरा निगेटिव (चेन)। यह विद्युत प्राण-जीवन-बैटरी से उत्पन्न होती है। पंच महाभूतों या पंच तत्वों पर हमारे शरीर की विद्युत का नियंत्रण है। पश्चिमी देशों में भी अब इस विद्युत को जीव-विद्युत (बायो-इलेक्ट्रिसिटी-ठपव. म्समबजतपबपजल) अथवा जीवन-शक्ति (बायो- एनर्जी-ठपव.म्दमतहल) के रुप में स्वीकृति मिली है। यह प्राणशक्ति जीवन-बैटरी हमारे शरीर में गर्भाधारण के समय से ही स्थापित हो जाती है। यह जीवन-बैटरी अपरिवर्तनीय है और इससे चेतनारुपी विद्युत-प्रवाह उत्पन्न होता है।

इस बैटरी से चकाचैंध करने वाला सफेद प्रकाश उत्पन्न होता है। इसे कुछ यौगिक क्रियाओं द्वारा कपाल के मध्य भाग में बंद आँखों द्वारा देखा जा सकता है। इस प्रकाश के दर्शन अनेक लोगों ने और स्वंय इस लेखक ने भी किए हैं। इस बैटरी से उत्पन्न विद्युत-प्रवाह हमारे शरीर में प्रवाहित होता है। इसे हम चेतना कहते हैं। इस विद्युत-प्रवाह की भिन्न-भिन्न रेखाएँ ‘मेरीडिअन्स’ कहलाती हैं। ये दाहिने हाथ की उँगलियों और अंगूठे के सिरे से आरम्भ होकर शरीर के सभी भागों में होकर दाहिने पैर के अंगूठे और उँगलियों के सिरों तक जाती हैं। उसी तरह बाएँ हाथ की उँगलियों और अंगूठे के सिरों से उत्पन्न प्रवाह शरीर के बाएँ हिस्से में घूमकर बाएँ पैर के अंगूठे तथा उँगलियों के सिरों से उत्पन्न प्रवाह शरीर के बाएँ हिस्से में घूमकर बाँए पैर के अंगूठे तथा उँगलियों के सिरों तक जाता है। जब तक चेतना का यह विद्युत-प्रवाह शरीर में ठीक ढंग से घूमता रहता है, शरीर तंदुरुस्त रहता है। अत्यधिक श्रम, छीज आदि कारणों से जब यह विद्युत-प्रवाह शरीर के किसी भी अवयव तक ठीक से नहीं पहुँच पाता, तब वह अवयव सुचारु रुप से काम नहीं करता, इसलिए उस हिस्से में दर्द या रोग होता है। अतः इस प्रवाह को यदि उस अवयव तक पहुँचाया जाए, तो वहाँ होनेवाला दर्द-पीड़ा अथवा रोग (यदि हुआ हो, तो) दूर हो जाता है। इस प्रकार एक्यूप्रेशर एक ऐसी प्राकृतिक चिकित्सा पद्यति है, जो हमारे शरीर की भीतरी रचना द्वारा वाँछित भाग में आवश्यकतानुसार विद्युत-प्रवाह पहुँचाकर हमें रोगों से दूर रखती है। संचालन व्यवस्था एक्युपंक्चर, शीआत्सु या पॉइंटेड प्रेशर थैरेपी के अनुसार हमारे शरीर में विद्यमान विद्युत-प्रवाह की शिराओं पर पूरे शरीर में लगभग 100 बिंदु हैं। इन बिंदुओं पर दबाव डालकर या पंक्चरिंग कर रोग को मिटाया जा सकता है।

सामान्य लोगों के लिए एक्युप्रेशर पद्धति को समझना तथा इस पद्धति द्वारा उपचार करना अत्यंत सरल है। अतः कोई भी व्यक्ति, भले ही वह दस वर्ष का बालक ही क्यों न हो, इस पद्धति का अध्ययन व अभ्यास कर सकता है। हमारे शरीर में विद्युत-प्रवाह का स्विच-बोर्ड हाथ के दोनों पंजों तथा पैर के  दोनों तलवों में स्थित है। भिन्न-भिन्न स्विच कहाँ हैं, इस का अध्यन किया जा सकता है। अधिकतर अवयव और अंतःस्रावी ग्रंथियाँ शरीर के दाएँ व बाएँ भाग में स्थित हैं। अतः उनके स्पर्श-बिन्दु भी दाएँ व बाएँ पंजों एंव पैरों के दोनों तलवों में हैं। हृदय और तिल्ली (प्लीहा) शरीर के बाईं ओर है, इसलिए उनसे संबंधित बिंदु हाथ के बाएँ पंजे या बाएँ पैर के तलवे में हैं। लिवर, पित्ताशय (ळंसस इसंककमत) और आंत्रपुच्छ (।चचमदकपग) शरीर के दांई ओर हैं, अतः उनके बिंदु दाएँ हाथ के पंजे या दाएँ पैर के तलवे में हैं। सूर्य केन्द्र को छोड़कर अन्य सभी अवयवों की प्रकृति से हम परिचित हैं। ये दोनों केन्द्र विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं, अतः यहाँ इनकी विस्तृत जानकारी दी जाती है। सूर्य केन्द्र इसको ‘नाभिचक्र’ भी कहते हैं।

यह छाती के नीचे स्थित सभी अवयवों का संचालन करता है। इस नाभिचक्र का उल्लेख केवल भारतीय आयुर्वेद में ही मिलता है, अन्य किसी थैरेपी में नहीं। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि इस थैरेपी की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी। डायाफ्राम (पेट के परदे) के नीचे स्थित कोई भी अवयव यदि ठीक से काम न करे तो इस बिन्दु पर दबाव देना होता है।
नाभिचक्र परखने की पद्धति है:- सुबह खाली पेट सीधे लेट कर यदि नाभि पर उँगली या अंगूठे से दबाया जाए, तो वहाँ हृदय की धड़कन महसूस होगी। ऐसी धड़कन महसूस करने पर समझ लें कि यह चक्र सही हालत में है। यदि नाभिचक्र ठीक ढंग से काम कर रहा हो, तो नाभि से दाएँ स्तनाग्र और बाएँ स्तनाग्र के बीच का अंतर समान होता है। किंतु यदि यह नाभिचक्र ऊपर या नीचे की ओर सरका हुआ हो, तो उपर्युक्त अंतर नापने से मालूम होता है कि यह चक्र ऊपर चढ़ा हुआ है या नीचे उतरा हुआ है। अत्यधिक बोझ उठाने, पाचनशक्ति मंद पड़ने या गैस के दबाव से नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरक जाता है। ऐसी हालत में धड़कन नाभि में नहीं, उसके आसपास मालूम होगी। अत्यधिक वजन उठाने अथवा अत्यधिक गैस उत्पन्न होने पर नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरकता है। नाभिचक्र के ऊपर की ओर सरकने पर कब्जियत होती है और नीचे सरकने पर वायु के दबाव के कारण दस्तें लगती हैं। जब दवाओं से भी यह तकलीफ दूर नहीं हो तो एक्यूप्रेशर पद्धति की सहायता अवश्य लेनी चाहिए।
पाचन-क्रिया अक्सर खराब हो जाती है! यदि यह शिकायत दीर्घ काल तक चलती है तो, और कभी-कभी ऑपरेशन भी कराना पड़ता है। इसमें दवाओं से भी लाभ नहीं होता। ऐसी स्थिति में यह संभावना अधिक रहती है कि नाभिचक्र ऊपर की ओर सरका हुआ हो। इसलिए कोई भी उपचार शुरु करने से पहले इस बात की जाँच कर लें कि नाभिचक्र ठीक अपनी जगह पर है या नहीं? नाभिचक्र घड़ी के मुख्य स्प्रिंग जैसा होता है। यदि उसे अपने स्थान पर न लाया जाए, तो किसी भी उपचार से अपेक्षित परिणाम नहीं निकल सकता। निम्नलिखित पद्धतियों में से किसी भी एक पद्धति द्वारा नाभिचक्र को केंद्र-अपने मूल स्थान-में लाया जा सकता है। ये सभी प्रयोग प्रातः खाली पेट या भोजन के 3, 4 घंटे बाद किए जा सकते हैं।

  1. अंगूठे से नाभि के इर्द-गिर्द दबाव देकर नाभिचक्र को केन्द्र की ओर ठेलना।
  2. नाभि पर वज़न रखकर नाभिचक्र को केन्द्र की ओर सरकाना।
  3. सीधे लेट जाइए। दोनों हाथ शरीर से सटाकर रखिए। किसी से अपने दोनों घुटनों पर दबाव देने के लिए कहिए। जो अंगूठा निचली सतह पर हो, उस पैर के घुटने पर भी अधिक दबाव दीजिए। यदि आवश्वकता हो, तो दूसरा व्यक्ति एक हाथ में दोनों पैरों के अंगूठे पकडे़ रखें और जो अंगूठा नीचे हो उसे ऊपर खींचने का प्रयास करें। इस पर भी यदि दोनों अंगूठे एक लाइन में न आ पाएँ, तो यही क्रिया दोबारा कीजिए।
  4. सीधे लेट जाइए। दोनों हाथ शरीर से सटाकर रखिए। सिर के नीचे तकिया न रखें, सिर को जमीन पर टिकाइए। दोनों पैर ऊपर उठाइए और उन्हें जमीन से 10 अंश के कोण पर रखिए। फिर सिर को बिना जमीन से उठाए दोनों पैरों को सीधे रखते हुए धीमे-धीमे जमीन पर लाइए। इस प्रकार पाँच-छह बार कीजिए। इसके बाद इसकी जाँच कीजिए कि नाभि में धड़कन महसूस होती है या नहीं?
  5. जमीन पर सीधे लेट जाइए। साँस बाहर छोडि़ए। अब पुनः साँस लेने के र्पूव पेट को फुलाइए और इस स्थिति में यथासंभव अधिक समय तक रखिए। नाभिचक्र के अपने स्थान पर आने तक यह क्रिया बार-बार दोहराते रहिए।
  6. बाएँ हाथ की कोहनी के जोड़ में हाथ की हथेली जमाइए और झटके से अंगूठे द्वारा बाएँ कन्धे का स्पर्श कीजिए। जब तक ये अंगूठा बाएँ कंधे का स्पर्श न करे, तब तक यह प्रयत्न जारी रखिए। इसी प्रकार यह क्रिया दाएँ हाथ से कीजिए और साथ वाली आकृति से परीक्षण कीजिए।

जब भी कब्जियत अथवा दस्त की तकलीफ हो, तो सर्वप्रथम इस बात की जाँच कीजिए कि नाभिचक्र सही हालत में है या नहीं। ठीक हालत में न होने पर उसे ठीक कीजिए। एक रोगी को हाएटस हर्निया (भ्मपजने भ्मतदपं) था। डॉक्टर ने उसे ऑपरेशन करवाने की सलाह दी थी। उसका नाभिचक्र ठीक कर दिया गया। केवल दो दिन में ही उसकी तकलीफ दूर हो गई। एक स्त्री-रोग विशेषज्ञ महिला डॉक्टर को कई वर्षों से पेडू में दर्द होता था। उनका नाभिचक्र सही हालत में ला देने के पश्चात् वे एकदम ठीक हो गई। एक किशोरी के पेट में ऐसा दर्द था कि वह जो भी खाती-पीती, तुरन्त ही उल्टी होकर बाहर निकल जाता। वह बंबई के एक मशहूर अस्पताल में 21 दिनों तक रही, फिर भी रोग कोई भी निदान नहीं हो सका।

उसकी शिकायत पूर्वत जारी रही। पेट में ऐसी पीड़ा होती थी कि वह पलंग पर तड़पने लगती थी। जाँच करने पर पता चला कि उसका नाभिचक्र अपने स्थान पर सही हालत में नहीं है। उसका नाभिचक्र ठीक कर दिया गया और उसकी उल्टी बंद हो गई। उसे एक सप्ताह तक हरे रस और फल के रस पर रखा गया। उसकी सारी पीड़ा दूर हो गई। एक रोगी को लंबे अरसे से खूनी अर्श की तकलीफ थी। उसे ऑपरेशन करवाने की सलाह दी गई। ऑपरेशन के केवल तीन दिन पूर्व उसने एक्यूप्रेशर-विशेषज्ञ की सलाह ली। उसकी नाभिचक्र ठीक कर दी गई। फलतः इतनी तेजी से सुधार हुआ कि ऑपरेशन कराने की जरुरत ही नहीं रही।“ संभव हो तो ‘स्वास्थ्य-पेय’ या ताँबा, चाँदी और सुवर्ण-सेवित पानी पिएँ। जाली (मइ):बड़ी जाली अंगूठे व पहली उँगली के बीच में तथा छोटी जालियाँ उगँलियों के बीच में स्थिति हैं। यहाँ से ज्ञानतंतु (छमतअमे) रीढ़ के द्वारा हमारे शरीर में फैलते हैं। अतः ज्ञानतंतु (छमतअमे) संबंधी किसी भी गड़बड़ी मे इन जलियों पर एक्यूप्रेशर चिकित्सक द्वारा उपचार होना चाहिए। एक्युप्रेशर थैरेपी के अनुसार हाथ के पजों या पैर के तलवों के बिंदुओं व उनके आसपास दबाव देना पड़ता है। ऐसा करने से बिन्दु से संलग्न अवयव की ओर विद्युत-प्रवाह होने लगता है।

अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ:- ये शरीर के सभी अवयवों का संचालन करती हैं। उनके बिन्दुओं पर ज्यादा दबाव देना आवश्यक है। ऐसा करने से संबद्ध अंतःस्रावी ग्रंथि ठीक से काम करने लगती है। यदि कोई ग्रंथि कम सक्रिय हो, तो दबाव देने पर उसकी सक्रियता बढ़ती है और वह सुचारु रुप से काम करती है और यदि कोई अंतःस्रावी ग्रंथि अपेक्षाकृत अधिक काम करती हो, तो दबाव देने पर उसकी सक्रियता कम होती है-वह नियंत्रित होती है और मात्रानुसार कार्य करने लगती है। इस प्रकार केवल दबाव देकर अंतःस्रावी ग्रंथियों का नियमन हो सकता है। अंगूठे, पहली उँगली, कुंद पेन्सिल या लकड़ी की चूसनी (भ्ंदक डेंहमत) से बिन्दुओं पर दबाव दिया जा सकता है। किसी भी बिन्दु पर 4-5 सेकंड तक दबाव देना चाहिए। फिर 1-2 सेंकड के लिए दबाव हटा लें और पुनः दबाव दें। इसी प्रकार 1-2 मिनट पंपिंग पद्धति से दबाव दें अथवा भारपूर्वक मसाज करें। दबाव की मात्राः-जब हम किसी भी बिन्दु पर दबाव देते हैं, तब वहाँ हमें दबाव या भार का अनुभव होना चाहिए। ज्यादा दबाव जरुरी नहीं है। यदि नरम हाथ हों, तो कम दबाव देने पर भी दबाव का अनुभव होगा। अंतःस्रावी ग्रंथियों के बिन्दुओं को छोड़कर प्रत्येक बिंदु पर तिरछे से भार देने से पर्याप्त दबाव आएगा। यह छाती के नीचे स्थित सभी अवयवों का संचालन करता है।
इस नाभिचक्र का उल्लेख केवल भारतीय आयुर्वेद में ही मिलता है, अन्य किसी थैरेपी में नहीं। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि इस एक्यूपे्रशर थैरेपी की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी। डायाफ्राम (पेट के परदे) के नीचे स्थित कोई भी अवयव यदि ठीक से काम न करे तो नाभिचक्र की परिक्षा करवानी चाहिए।

नाभिचक्र परखने की पद्धति है:- सुबह खाली पेट सीधे लेट कर यदि नाभि पर उँगली या अंगूठे से दबाया जाए, तो वहाँ हृदय की धड़कन महसूस होगी। ऐसी धड़कन महसूस करने पर समझ लें कि यह चक्र सही हालत में है। यदि नाभिचक्र ठीक ढंग से काम कर रहा हो, तो नाभि से दाएँ स्तनाग्र और बाएँ स्तनाग्र के बीच का अंतर समान होता है। किंतु यदि यह नाभिचक्र ऊपर या नीचे की ओर सरका हुआ हो, तो उपर्युक्त अंतर नापने से मालूम होता है कि यह चक्र ऊपर चढ़ा हुआ है या नीचे उतरा हुआ है। अत्यधिक बोझ उठाने, पाचनशक्ति मंद पड़ने या गैस के दबाव से नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरक जाता है। ऐसी हालत में धड़कन नाभि में नहीं, उसके आसपास मालूम होगी। अत्यधिक वजन उठाने अथवा अत्यधिक गैस उत्पन्न होने पर नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरकता है। नाभिचक्र के ऊपर की ओर सरकने पर कब्जियत होती है और नीचे सरकने पर वायु के दबाव के कारण दस्तें लगती हैं। जब दवाओं से भी यह तकलीफ दूर नहीं हो तो एक्यूप्रेशर पद्धति की सहायता अवश्य लेनी चाहिए।
नोट- नाभीचक्र की परिक्षा और उपचार किसी अनुभवी वैद्य अथवा एक्यूप्रेशरिस्ट से करवानी चाहिए।

चमत्कारी पौधा अशोक

चमत्कारी पौधा अशोक शोक वृक्ष के नाम से हम सभी परिचित हैं। यह वही वृक्ष है जिसकी छाया तले लंका में माता सीताजी को रखा गया था। यह एक सुंदर सुखद, छाया प्रधान वृक्ष है। इसके पत्ते 8 से 10 इंच लम्बे तथा 2 से 3 इंच चैडे होते हैं। प्रारम्भ में इन पत्तों का रंग ताम्रवर्ण का होता है- इसीलिए इसे ‘‘ताम्र पल्लव’’ भी कहा जाता है। इसके पुश्प गुच्छों में लगते हैं। तथा पुश्प काल में पहले ये नारंगी तदुपरांत लाल रंग के हो जाते हैं। इसलिए अशोक का एक नाम ‘‘हेम्पुश्प’’ भी है। अशोक के पुश्प वसंत ऋतु में खिलते हैं। पुश्पित होने पर ये मन को आनंदित करने वाले होते हैं।

औशधीय  चमत्कार- अपनी सघन सुखदायिनी छाया के द्वारा इस वृक्ष ने जिस प्रकार माँ सीता के दुख को कम किया था। ठीक उसी प्रकार इस वृक्ष के अनेक औशधीय प्रयोग भी हैं। जो कि स्त्रियों में होने वाली व्याधियों को हरने में सक्षम है। वास्तव में इसकी छाल में ‘‘टेनिन’’ तथा ‘‘कैटेचिन’’ नामक रसायन पर्याप्त मात्रा में होते हैं। ये रसायन ही औशधीय  महत्व के हैं। इसलिए औशधी के रूप में इसकी छाल का ही अधिक उपयोग किया जाता है। अशोक से निर्मित अशोकारिष्ट नामक एक आयुर्वेदिक औशधी के गुणों से हम सभी भली-भाँति परिचित हैं।
अश्मरी (पथरी) रोग में- अशोक के बीजों के 2 ग्राम चूर्ण को जल के साथ नित्य कुछ समय तक सेवन करने से अश्मरी रोग का शमन होता है।
गर्भपात रोकने के लिए- प्रायः अनेक महिलाओं को गर्भाशय की निबर्लता के कारण गर्भपात होता है अथवा कभी-कभी महिलाओं को अधिक रक्तस्राव होने लगता है। शास्त्रों में इसके लिए ‘‘अशोक-घृत’’ लेने की सलाह दी गयी है अथवा ऐसे मामले में अशोक की छाल का चूर्ण थोड़ी-सी मात्रा में गाय के दूध के साथ लेने से लाभ हाता है। इस के लिए एक मात्रा 2 से 4 ग्राम की होती है और इसे लगभग एक सप्ताह लेना होता है।
मासिक धर्म की गड़बड़ी- जिन महिलाओं को मासिक धर्म अधिक होता हो अथवा अनियमित होता हो उनके लिए भी अशोक की छाल का व्यवहार करना हितकर है। इसके लिए रोगी महिला को लगभग 2 तोला मात्रा अशोक की छाल लेकर उसे दूध में उबालें जब दूध पर्याप्त गाढ़ा हो जाए तब छाल को अलग कर उस दूध में भरपूर अथवा आवश्यक मात्रा में खांड मिलाकर सेवन करना चाहिए। लिए जाने वाले दूध की मात्रा 250 मिली लीटर हो। इसका सेवन 3 दिन तक करना चाहिए।

रक्त प्रदर में रक्त प्रदर और अधिक मासिक स्राव की स्थिति में अशोक की छाल और सफेद जीरे का आसव भी बहुत लाभकारी है। इसे बनाने के लिए छाल और सफेद जीरे की 2-2 तोला मात्रा लेकर उन्हें आधा सेर जल में उबालते हैं। जब लगभग चैथाई पानी रह जाय तब उतार कर इसे छान लें और इसमें खांड मिलाकर सुबह-सुबह सेवन करें इससे रक्त प्रदर और अधिक मासिक स्राव के विकार दूर होते हैं। यह आसव एक बार में लगभग 2 तोला सेवन किया जा सकता है तथा दिन में 3 या 4 बार सेवन करें।

श्वेत प्रदर में– श्वेत प्रदर से पीडित महिलाओं को अशोक की छाल का दुग्ध कषाय लेना चाहिए। इस कषाय को बनाने के लिए लगभग 250 मि0 ली0 दूध और 100 ग्राम अशोक छाल मिला कर इस मिश्रण को इतना गरम करें कि सम्पूर्ण जलीय अंश उड़ जाए, इसके पश्चात् प्राप्त दूध की लगभग 2 या 3 तोला मात्रा दिन में दो बार लें। यह प्रयोग मासिक स्राव के चैथे दिन के पश्चात् से प्रारंभ करें। इस प्रकार यह महिलाओं के लिए एक अमोघ औशधी है।
अशोक के तांत्रिक चमत्कार- तंत्रशास्त्रों में अशोक के अनेक प्रयोग वर्णित हैं-
1. जिस घर में उत्तर की ओर अशोक का वृक्ष लगा हो उस घर में बिनबुलाए शोक नहीं आते।
2. सोमवार के दिन शुभ मुहूर्त में अशोक के पत्तों को घर में रखने से घर में शांति व श्री वृद्धि होती है।
3. अशोक वृक्ष का बाँदा चित्रा नक्षत्र में लाकर रखने से ऐश्वर्य वृद्धि होती है।
4. उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में निकाला गया अशोक का बाँदा अदृश्यीकरण हेतु प्रयुक्त होता है।
5. अशोक के वृक्ष के नीचे स्नान करने वाले व्यक्ति की ग्रहजनित बाधाएँ दूर होती हैं।
6. मंदबुद्धी/स्मृति लोप वाले जातक या जिनकी पत्रिका में बुध नीच का बैठा हो उनके लिये अशोक वृक्ष के नीचे स्नान करना कष्ट निवारक होता है।
7. इस वृक्ष को घर के उत्तर दिशा में रोपित करने से वास्तुदोश का निवारण होता है।
8. अशोक का वृक्ष घर में होने से घर में लगे अन्य अशुभ वृक्षों का दोश शांत हो जाता है।

कमल का औशधीय महत्व

कमल का औशधीय  महत्व कमल को हिन्दी मराठी एवम् गुजराती में इसी नाम से जाना जाता है। इस के अतिरिक्त इसे कन्नड़ में बिलिया ताबरे, तेलगू में कलावा, तमिल में अम्बल या सामरे, मलयालम में अरबिन्द, पंजाबी में कांवल, सिन्धी में पबन, संस्कृत में पुण्डरीक, पद्म, रक्त-पद्म, शत-पत्र, अग्रेजी में लोटस तथा लेटिन में नेलम्बियम, स्पेसियोसम कहते हैं। नीलकमल का वनस्पति भाषा में नाम नेलम्बियम न्यूसीफेरा है। यह वनस्पति जगत निम्फीऐसी कुल में आता है।
संक्षिप्त विवरण- कमल के नाम से हम सभी भली भाँति परिचित हैं। यह एक बड़ा जलज क्षुप है जो कि बहुधा गम्भीर और निर्मल नीर वाले स्वच्छ सरोवरों तथा तालों में उत्त्पन्न होते हैं। इनके पत्ते बड़े-बड़े और गोल तथा चिकने (जिन पर जल का बिन्दु न ठहरे) होते हैं। कमल के पुश्प के नीचे डन्डी होती है उसको मृणाल अर्थात् कमल नाल कहते हैं। कमल पुश्प में उपस्थित ‘‘पीले जीरे’’ को कमल केशर तथा कमल पुश्प की रज को मकरंद तथा कमल के पुश्प के पश्चात् जो फल लगते हैं उन्हें पद्म कोश कहते हैं। पद्म कोश में निकलने वाले बीजों को कमल गट्टा तथा कमल की जड़ को मसीड़ा कहते हैं।

आयुर्वेद का मत आयुर्वेद के मतानुसार कमल शीतल, वर्ण को उत्तम करने वाला, मधुर और कफ-पित्त, तृषा, दाह, रूधिर विकार, फोड़ा, विष तथा विसर्प नाशक है। यह हृदय को शांति एवं चित्त को आनंदित करने वाला है। इस के अलावा कमल केशर शीतल, वृष्य, कसैली, ग्राही, कफ, पित्त तथा दाह, तृषा, रक्त विकार, बवासीर, विष, सृजन, इत्यादि का शमन करने वाली होती है। मृणाल शीतल, वृष्य भारी, पाक में मधुर, दुग्धवर्द्धक, वातकफकारक, ग्राही, रूक्ष, पित्त, दाह तथा रक्त विकार को दूर करने वाली है। कमलगट्टा स्वादु, कड़वा, और उत्तम गर्भस्थापक होता है। यह रक्त पित्त का शमन करता है और वात को बढ़ाता है। भवप्रकाश के अनुसार यह कफ एवं वात को हरनेवाला है।
कमलनाल, अविदाही, रक्त और पित्त को शुद्ध करने वाली मधुर, रूक्ष, तथा पित्त और दाह शामक है। यह मूत्र कृच्छ नाशक तथा उत्तम रक्त वर्द्धक एवं वमनहर है।
कमलपत्र शीतल, कड़वे, कसैले तथा दाह, तृषा, मूत्र कच्छ और रक्त-पित्त नाशक होते हैं।

कमल के भेद-
कमल में पुश्प, वर्ष और आकार भेद से अनेक जातियाँ होती हैं। इन सब में ‘‘सूर्य विकासी’’ व ‘‘चन्द्र विकासी’’ प्रमुख हैं। इनमें से सूर्य विकासी बड़े तथा चन्द्र विकासी छोटे होते हैं। इन दोनों ही प्रकार में श्वेत, रक्त तथा नील ये 3- 3 भेद हैं।

कमल के औशधीय  प्रयोग-
1. नवीन श्वेत प्रदर में- नील कमल की केसर सेंधव नमक, जीरा तथा मुलैठी को समभाग लेकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को 5 ग्राम की मात्रा में दही अथवा शहद के साथ सेवन करने से श्वेत प्रदर का नाश होता है।
2. रक्तार्श में- 5 ग्राम कमल केशर प्रतिदिन सुबह मक्खन के साथ लेने से शीघ्र ही रक्तार्श नष्ट होता है।

  1. दाह शमन हेतु- कमन और केले के पत्तों को बिछा कर उसपर शयन करने से शरीर की दाह शांत होती है। पुनः यदि शरीर पर इसी के साथ-साथ चंदन के पानी का भी छिड़काव किया जाय तो और भी जल्दी आराम होता है।
  2. वमन नाश हेतु- कमल गट्टे को भूनकर उसकी गिरी को सेवन करने से वमन का नाश हाता है। किंतु इस प्रयोग में गिरी के मध्य का हरे रंग का अंकुर निकाल देना चाहिए।
  3. कूचों को कठोर करने के लिए- कूचों को कठोर करने के लिए कमल गट्टा, हल्दी तथा असगंध समान मात्रा में लेकर और दूध में पीसकर उसमें बराबर मात्रा में मिश्री मिला कर 10 ग्राम मात्रा में दूध के साथ सेवन की जाय तो शीघ्र लाभ दिखाई देता है।
  4. समागम शक्ति बढ़ाने के लिए- कमल की जड़ को तिल के तेल में औटाकर रख लें इस तेल की सिर में मालिश करने से सिर तथा नेत्रों में तरावट आती है। तथा समागम की शक्ति बढ़ती है।
    7. स्वप्न दोश के लिए- कमल के पत्तों को बिछौने के नीचे बिछाकर उसपर शयन करने से स्वप्न दोश में कमी आती है।
    8. सिर की शीतलता के लिए- एक लीटर तेल में कमल के पंचांग को ड़ालकर औटावें जब वह जल जावे तो छानकर रख लें, इस तेल को सिर में लगाने से सिर में तनाव तथा पीड़ा दूर होती है।
    9. रक्त प्रदर में- कमल केशर, मुलतानी मिट्टी और मिश्री के चूर्ण को फाँककर ऊपर से जल पीने से रक्त प्रदर मिटता है।
    10. कांच निकलने में- कमल के पत्तों को पीसकर खांड के साथ सेवन करने से कांच का निकलना बंद हो जाता है।
    11. गर्भाशय से रक्तस्राव होने पर- गर्भिणी के गर्भाशय से रक्तस्राव होने पर कमल पुष्पों का फाण्ट देने से रक्तस्राव शीघ्र ही बंद होता है। यह गर्भिणी के लिए निर्दोश उपाय है।
    12. स्त्रीयों की दुर्बलता के लिए- कमल गट्टे के चूर्ण को मिश्री मिले हुए दूध के साथ एक माह तक सेवन करने से स्त्रीयों के शरीर की दुर्बलता दूर होती है।
    कमल का ज्योतिषीय महत्व
    1. जिस की जन्मपत्रिका में लग्न स्वामी की स्थिति निर्बल हो उस जातक को कार्तिक मास में नित्यप्रति विष्णु व लक्ष्मी जी की प्रतिमा पर कमल के फूल अर्पित करने चाहिएं। ऐसा करने से लग्नेश का दोश दूर हो जाता है।
    2. जो व्यक्ति रविवार के दिन इलायची, साठी चावल, खस, मधु, अमलतास, कमल, कुंकुम, मेनसिल तथा देवदार को जल में ड़ाल कर उस जल से स्नान करता है उस की सुर्य पीड़ा शांत होती है। 7 रविवार यह प्रयोग करना चाहिए।
    कमल का तांत्रिक महत्व
    1. शास्त्रानुसार लक्ष्मी जी की पूजा में कमल के पुष्पों को अर्पित करना बहुत शुभ होता है।
  5. कमल गट्टे तथा हल्दी की गाँठ दोनों पांच-पांच पीस लेकर अपनी तिजोरी में रखने से उसमें धन-धान्य की बरकत बनी रहती है।
    कमल का वास्तु में महत्व
    घर के ईशान क्षेत्र में एक छोटा सा तलाब बना कर उसमें नीलकमल या रक्त कमल का रोपण करने से उस घर में लक्ष्मी जी का सदा वास रहता है।

औषधी (वनस्पति) तंत्र

औषधी (वनस्पति) तंत्र आज मानव भौतिक विज्ञान के शिखर पर पहुँच कर भी प्रकृति के सम्मुख बौना ही है। वह प्रकृति के रहस्यों का उदघाटन करने के बावजूद, भी सृष्टि के अंशमात्र से भी परिचित नहीं हो पाया है।
पृथ्वी पर कितने ही प्रकार के पेड़- पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु तथा वनस्पतियाँ हैं, किन्तु उनका पूर्ण विवरण आज तक तैयार नहीं किया जा सका। प्रत्येक जीव-जन्तु और वनस्पति के अपने कुछ गुण-दोश हैं।

तंत्र के प्रारम्भिक- युग में, जिज्ञासु-साधकों के द्वारा किये गये अनुसन्धान के फलस्वरूप हमें वनस्पति शास्त्र और पदार्थ-विज्ञान तथा इनके मिश्रित रूप आयुर्वेद-शास्त्र सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। वह विपुल साहित्य और वे ग्रन्थ-प्रकृति की रहस्यमता पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। महर्षियों के अपनी दीर्घकालीन-शोध और अनुभवों के आधार पर विभिन्न वानस्पतिक-पदार्थो के जो बहु-उपयोगी प्रयोग-परिणाम घोषित किये हैं, उसमें से दो-एक का आंशिक-विवरण (तन्त्र-सन्दर्भ में) यहाँ प्रस्तुत है।
ये प्रयोग विभिन्न प्रकार की समस्याओं के निराकरण हेतु निश्चित किये गये हैं। एक समय इनका देश-व्यापी प्रचार था। काल के प्रभाव से ये लुप्तप्रायः हो गये और आज इनके ज्ञाता साधक गिने-चुने ही रह गये हैं। उनमें भी जो वास्तविक ममज्र्ञ और समर्थ हैं, वे एकान्त सेवी, निस्पृहः और विशुद्ध साधक हैं, पर जो अल्पज्ञ, प्रशंसा-लोलुप, अर्थकामी और विवेक-शून्य हैं, वे डंके की चोट पर अपना प्रचार करते हुए, आडम्बर के जाल में आस्थावान लोगों को फँसाकर लूटने का कार्य कर रहे हैं।
उनके इस आचरण का भेद खुलने पर जन-सामान्य में इन विषयों के प्रति अनास्था ही उत्पन्न होती है, फलस्वरूप नैतिकता, अध्यात्म और संस्कृति का ह्रास होकर अनैतिकता, अराजकता, विभ्रम और पतन का वातावरण निर्मित होता है। मैं मंत्र- तंत्र पर अनुसंन्धानरत बुद्धिमान साधकों से आशा करता हूँ कि वह इन को पहचानें और इन की पोल खोंलें।
लगभग सभी नगण्य प्रतीत होने वाली वनस्पतियों की आश्चर्यजनक उपयोग- विधियों का उल्लेख करते हुए, महर्षियों ने इस सत्य को प्रतिपादित किया है कि सृष्टि का एक कण भी व्यर्थ नहीं है, सबकी ही कुछ न कुछ उपयोगिता है। आवश्यकता है केवल उन्हें परखने और प्रयुक्त करने की। सृष्टि में जहां एक ओर आम, अमरूद, केला, कटहल, नींबू और नारियल जैसे फल हैं। गेहूँ, जौ, चना, धान आदि जैसे अनाज हैं। वहीं घास-पात कही जाने वाली जड़ी-बूटियों में भी अद्भुत गुण समाहित हैं।

अद्भुत गुणों से युक्त्त– अपामार्ग पौधे का विवरण प्रस्तुत है। अपामार्ग, लटजीरा, अंझाझार, ओंगा, चिरचिटा- यह सब एक ही पौधे के नाम है। यह समग्र भारतवर्ष तथा एशिया के उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में पाया जाता है। वर्षा का प्रथम पानी पड़ते ही आपामार्ग के पौधे अंकुरित होते हैं।

 

Pencil Therapy Intro पेंसिल थेरेपी क्या है?

पेंसिल थेरेपी क्या है ? What is pencil therapy??

पेंसिल थेरेपी pencil therapy शारीरिक दर्द और मानसिक तनाव के निवारण की एक सरल पद्धति है। इस थेरेपी से अकुप्रेसर, अकुपंचर, सु-जोक, रेफ़्लेक्सोलोजी, इत्यादि के लाभ मिलते हैं लेकिन इसे सीखना और करना अत्यंत आसान है। जिनके शरीर में दर्द या तनाव हो उन्हें यह थेरेपी pencil therapy करते समय अपनी उंगली पर दर्द का अनुभव होगा। थेरेपी करने से उन्हें दर्द और तनाव से राहत मिलेगी।

पेंसिल थेरेपी करने के क्या लाभ है ?

पेंसिल थेरेपी pencil therapy करने से दर्द से पीड़ित व्यक्ति को दर्द में राहत मिलती है और मानसिक तनाव ग्रस्त को तनाव से मुक्ति मिलती है। जिस व्यक्ति के शरीर में दर्द न हो उसे हलकापन या स्फूर्ति का एहसास होता है / नई ऊर्जा का संचार हुआ है ऐसा मालूम होता है। कई प्रकार की बीमारियों में पेंसिल थेरेपी pencil therapy से लाभ लिया जा सकता है। यदि कोई डाक्टरी दवा शुरू हो तो उसे बिना अपने डाक्टर के सलाह के बंद नहीं करना चाहिए।

पेंसिल थेरेपी करते समय कितना दर्द होता है?

पेंसिल थेरेपी pencil therapy करते समय दर्द से पीड़ित व्यक्ति को उंगली में असहनीय दर्द का अनुभव होता है। जिसके शरीर में अधिक दर्द हो उन्हें उंगली पर भी अधिक दर्द होगा और जिनके शरीर में दर्द कम हो उन्हें उंगली पर दर्द कम होगा। स्वस्थ व्यक्ति को सहनीय या साधारण दर्द होता है।

पेंसिल थेरेपी सीखने के लिए क्या जानकारी होना आवश्यक है?

यह थेरेपी बहुत ही आसान है। इसे कोई भी सीख और कर सकता है। इसे सीखने और करने के लिए पढ़ा लिखा होना आवश्यक नहीं है।

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पेंसिल थेरेपी कैसे की जाती है?

बेलनाकार पेंसिल को हाथ और पैर की उँगलियों पर अंगूठे से थोड़े से दबाव के साथ घुमाया जाता है। पेंसिल को उँगलियों के चार साइड और चार कोनों पर घुमाया जाता है। नाखूनों पर पेंसिल नहीं घुमाते हैं। नाखून को छोड़कर बाकी सारी उंगली पर पेंसिल घुमाई जाती है।

पेंसिल थेरेपी कब की जा सकती है?

पेंसिल थेरेपी भोजन के एक घंटा पहले या दो ढाई घंटे बाद की जा सकती है। स्नान के एक घंटे पहले या एक घंटे बाद भी की जा सकती है। पेंसिल थेरेपी कैसी

उँगलियों पर की जा सकती है?

पेंसिल थेरेपी pencil therapy करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि जिन उँगलियों पर पेंसिल घुमाना है वे उँगलियाँ स्वस्थ है। उँगलियाँ कटी फटी न हो; उनपर कोई घाव या फोड़ा फुंसी या चोट न लगी हो; जिन उँगलियों में पहले से ही दर्द हो उनपर पेंसिल थेरेपी नहीं करनी चाहिए।

क्या महिलाओं को भी पेंसिल थेरेपी की जा सकती है?

गर्भवती महिलाओं को पेंसिल थेरेपी का उपचार नहीं देना चाहिए।
यदि कोई महिला मासिक धर्म में हो तो उन्हें पूरी पेंसिल थेरेपी नहीं देना चाहिए। यदि उन्हें कोई दर्द हो तो उस दर्द का उपचार किया जा सकता है। जैसे कि यदि सर दर्द हो या और कोई दर्द हो तो उस दर्द के निवारण के लिए जितना उपचार देना आवश्यक हो उतना उपचार देना चाहिए।

पेंसिल थेरेपी की क्या विशेषताएँ हैं?

  • यह थेरेपी बहुत ही आसान और तुरंत आराम देने वाली है।
  • इसे कभी भी, कहीं भी किया जा सकता है।
  • इस थेरेपी को करने के लिए एक छोटे से बेलनाकार पेंसिल के टुकड़े की आवश्यकता होती है, जो कहीं भी, किसी को भी सहजता से उपलब्ध हो सकता है।
  • इसका कोई नेगेटिव साइड इफैक्ट भी नहीं है।
  • यह पद्धति पूर्णतया पारदर्शी है।
  • यदि शरीर में दर्द या तनाव हो तो ही उँगलियों पर दर्द होता है, अन्यथा नहीं।

योगासनों का परिचय – Introducing Yogasanas

योगशास्त्रों में योगासनों की संख्या का वर्णन करते हुए कहा गया है कि योगासन की संख्या इस संसार में मौजूद जीवों की संख्या के बराबर है। भगवान शिव द्वारा रचना किए गए आसनों की संख्या लगभग 84 लाख है। परंतु इन आसनों में से केवल महत्वपूर्ण 84 आसन ही सभी जानते हैं। हठयोग में केवल 84 आसनों को बताया गया है, जो मुख्य है तथा अन्य आसनों को इन्ही 84 आसनों के अन्तर्गत सम्माहित है। इन आसनों में 4 आसन मुख्य है-
  • समासन
  • पदमासन
  • सिद्धासन
  • स्तिकासन
बाकी अन्य दूसरे आसन व्यायामात्मक है। प्रत्येक आसन को अलग-अलग तरह से किया जाता है और इन आसनों के अभ्यास से अलग-अलग लाभ मिलते हैं। आसनों का प्रयोग केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी भी करते हैं। इन आसनों के अभ्यास से सभी को लाभ मिलता है। उदाहरण के लिए- जब बिल्ली सोकर उठती है, तो सबसे पहले चारों पैरो पर खड़े होकर पेट के भाग को ऊंचा करके अपनी पीठ को खींचती है। इस प्रकार से बिल्लियों द्वारा की जाने वाली यह क्रिया एक प्रकार का आसन ही है। इस तरह से कुत्ता भी जब अपने अगले व पिछले पैरों को फैलाकर पूरे शरीर को खींचता है तो यह भी एक प्रकार का आसन ही है। इससे सुस्ती दूर होती है और शरीर में चुस्ती-फुर्ती आती है। इस तरह से सभी पशु-पक्षी किसी न किसी रूप में आसन को करके ही स्वस्थ रहते हैं। योगशास्त्रों के बारे में लिखने व पढ़ने वाले अधिकांश योगी पशु-पक्षी आदि से प्रेरित थे। क्योंकि आसनों में अधिकांश आसनों के नाम किसी न किसी पशु या पक्षी के नाम से रखा गए है, जैसे- शलभासन. सर्पासन, मत्स्यासन, मयूरासन, वक्रासन, वृश्चिकासन, हनुमानासन, गरूड़ासन, सिंहासन आदि।
योगासन योगाभ्यास की प्रथम सीढ़ी है। यह शारीरिक स्वास्थ्य को ठीक करते हैं तथा शरीर को शक्तिशाली बनाकर रोग को दूर करते हैं। इसलिए योगासन का अभ्यास है, जिससे शरीर पुष्ट तथा रोग रहता है। योगासनों का अभ्यास बच्चे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी कर सकते हैं।
योगासन का अभ्यास करने से पहले इसके बारे में बताएं गए आवश्यक निर्देश का ध्यानपूर्वक अध्ययन कर निर्देशों का पालन करें। षटकर्मों द्वारा शरीर की शुद्धि करने के बाद योगासन का अभ्यास करना विशेष लाभकारी है। यदि षटकर्म करना सम्भव न हो तो षटकर्म क्रिया के अभ्यास के बिना ही इन आसनों का अभ्यास करना लाभदायक है।
कुछ आसनों के साथ प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा आदि क्रिया भी की जाती है। योगासनों के अभ्यास के प्रारंभ में उन आसनों का अभ्यास करना चाहिए, जो आसन आसानी से किये जा सकें। इन आसनों में सफलता प्राप्त करने के बाद ही कठिन आसन का अभ्यास करें। किसी भी योगासन को करना कठिन नहीं है। शुरू-शुरू में कठिन आसनों को करने में कठिनाई होती है, परंतु प्रतिदिन इसका अभ्यास करने से यह आसान हो जाता है।
yoga suryanamaskar
योगासन से रोगों का उपचार –
विभिन्न रोगों को दूर करने में `योग´ अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्राचीन काल से ही योग हमारी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग रहा है। `योग´ शब्द की उत्पत्ति युज धातु से हुई है, जिसका अर्थ जोड़ना, सम्मिलित होना तथा एक होना होता है। ´भगवत गीता´ के अनुसार `समत्व योग उच्यते´ अर्थात जीवन में समता धारण करना योग कहलाता है। योग कर्मसु कौशलम अर्थात कार्यो को कुशलता से सम्पादित करना ही योग है। महर्षि पतंजलि रचित योगसूत्र में सबसे पहले `अष्टांग योग´ की जानकारी मिलती है, जिसका अर्थ है आठ भागों वाला। इस योग के अनुसार `योगिश्चत्तवृत्ति निरोध´ अर्थात मन की चंचलता को रोकना योग माना जाता है।
रोगों में योगासन का उपयोग –
अनेक प्रकार के रोग-विकार आज की जीवन की सामान्य स्थिति है। समय-असमय, जाने-अंजाने में न खाने योग्य पदार्थों का भी सेवन करना हमारी आदत बन गई है, जो शारीरिक स्वास्थ्य को खराब करने में अहम भूमिका निभाते हैं। आज के समय में इनसे छुटकारा पाने का एक ही उपाय हैं- योगासन। योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति अपने आहार तथा खान-पान पर विशेष ध्यान देते हैं।
आयुर्वेद और योगासन दोनों के बीच घनिष्ठ सम्बंध है। आयुर्वेद में भोजन और परहेज का पालन करते हुए योगासन का अभ्यास करने से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति मिलती है। योगासन के निरंतर अभ्यास से पहले मनुष्य को शारीरिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है और शरीर में उत्पन्न रोगों को दूर करता है। योगासन से शरीर के मुख्य अंग स्वस्थ होते हैं, जैसे- पाचनतंत्र, स्नायुतंत्र, श्वासन तंत्र, रक्त को विभिन्न अंगो में पहुंचाने वाली तंत्र आदि प्रभावित होते हैं। योगासन के अभ्यास से शरीर के सभी अंग स्वस्थ होकर सुचारू ढंग से कार्यो को करने लगते हैं।
योगासन द्वारा रोगों को दूर करना –
योगशास्त्र में विभिन्न रोगों के विकारों को खत्म करने तथा स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए अनेक योगासनों को बताया गया है। जिन अंगों में कोई खराबी होती है, उस रोग से संबन्धित योगासन के निरंतर अभ्यास से रोग दूर हो जाते हैं। योगासनों द्वारा रोगो को खत्म कर शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है। यदि योगासनो के अभ्यास के नियमो का पालन करें और खान-पान व परहेजों का पालन कर आसनों का अभ्यास का पालन करें तो विभिन्न प्रकार के रोग दूर होकर शारीरिक स्वास्थ्यता बनी रह सकती है।

How to Overcome Paralysis in Ayurveda & Color Therapy

वनौषधियों के प्रयोग:

लकवा दूर करने के लिएः-

इसके लिए 100 मि. ली. ‘सरसो का शुद्ध तेल’ लें, इस तेल में एक तोला ‘काली मिर्च’ का कपड़े की सहायता से छना चूर्ण मिलावें। इसी प्रकार दस ग्राम ‘भांग’ का चूर्ण भी इसमें मिलाकर इस मिश्रण को 10 मिनट तक उबालें। ठंडा होने पर इस तेल को छानकर एक ‘सफेद पारदर्शी बोतल’ में भरकर उसके चारों ओर एक लाल पन्नी लपेट कर सूर्योदय तक सूर्य के प्रकाश में रखें। इस तेल की मालिश लकवे वाले भाग में करने से सम्बन्धित भाग में रक्त का प्रवाह आरम्भ हो जाता है।

To Overcome Paralysis :-

Take 100 ml ‘pure mustard oil’ back in the oil Tola ‘pepper’ powder Milaven filtered through the fabric. Similarly, add ten gram ‘cannabis’ powder into it, then boil the mixture for 10 minutes. On cooling, filter the oil in a “white transparent bottle”, then wrap red foil around the bottle and keep the bottle in sunlight until next sunrise. Massage this oil in the relative paralyzed part of the Body, the blood flow is initiated in that part by this message.

Epilepsy – stop attacks as per Ayurveda

वनौषधियों के प्रयोग:

मिर्गी के लिए-

जायफल आसानी से उपलब्ध हो जाने वाला फल है। इक्कीस ‘जायफल’ लाकर उनमें से सात जायफल ‘नीले रंग की बोतल में’ तथा सात जायफल हरे रंग की बोतल में सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक धूप में रखें। इस चैदह जायफल को शेष (बिना धूप में रखे), सात जायफल के साथ पिरो कर एक माला बनाकर मिर्गी के रोग को पहनाने से उसे मिर्गी के दौरे आने बंद हो जाते हैं।

The Epilepsy-

The Nutmeg fruit is readily available. Bring Twenty-one ‘Nutmeg’, Put seven (7) of them in a ‘Blue colored Bottle’ and seven (7) of them in ‘Green colored Bottle’  in the duration from Sunrise to Sunset and then Place both the bottles in the sun/sunlight. These Fourteen (14) nutmeg and remaining seven (7) nutmeg (that were housed without the sun/sunlight), total of 21, shall be used to make a Garland / Necklet and should be worn by the Patient, this should stop him from getting an attack of the disease Epilepsy.