ग्रहों का रोगों से सम्बध

ग्रहों का रोगों से सम्बध रोग की कभी-कभी पहचान नहीं हो पाती और गलत उपचार के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है, मगर यदि डॅाक्टर, वैद्य या चिकित्सक इस कार्य के लिए ज्योतिष का सहारा लें, तो वह सहजता से उस रोग को पहचान सकते हैं, जिसकी वजह से रोगी कष्ट में है और इस दृष्टि से ज्योतिष और रोग का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह लेख आप सभी के लिए इतना ही आवश्यक है, जितना कि एक ज्योतिषी के लिए। वैदिक ज्योतिष के अनुसार किसी ग्रह द्वारा प्रदत्त रोग उस पर शनि, मंगल या राहू के प्रभाव के कारण प्रस्फुटित होते हैं। इनमें शनि अग्रणीय है। कुण्डली जब शनि का सम्बन्ध कुण्डली के रोग भाव अर्थात् छठे भाव से हो या इसका सम्बन्ध आठवें या बारहवें भाव से हो तो यह अपने से सम्बन्धित रोग देता है। इस पर इसके शुत्र ग्रहों का प्रभाव रोगों के आरोह अवरोह एवं उनकी विविधता देता है, तब इसके द्वारा प्रदत्त रोग शनैः शनैः बढ़ते या घटते हैं। शनि के द्वारा रोग उसके कारकत्व में आने वाले अंगों में होते हैं।

ये अंग हैं त्वचा, हड्डियां, घुटने, पैर, पित्ताशय, दांत, टांगें, अड्रेनलिन ग्रन्थि, हड्डियो को जोड़ने वाली मांसपेशियों के तन्तु। शनि प्रधान रोगों में वात विकार जोड़ों का गठिया, बाय का दर्द, जहरीले पदार्थ का सेवन, शरीर में जहरीले पदार्थो के बनने की प्रक्रिया, जैव रसायनों या अजैव रसायनों की कमी या बढ़ोत्तरी से पैदा होने वाले रोग प्रधानतया आते हैं। दूसरे ग्रहों के प्रभाव के साथ शनि का योगदान निम्न रोगों में भी होता है- बालों के रोग, तिल्ली या प्लीहा सम्बधित रोग, दायें पैर के पंजे का रोग, रिकेटस, जिह्ना सम्बन्धी रोग, आंखों से सम्बन्धित रोग जैसे मोतियाबिन्द, नाक के रोग, अण्डकोशों का बढ़ना, कुष्ठ, राज यक्ष्मा, लकवा होना, पागलपन आदि। शनि की दुश्मनी सूर्य से है। सूर्य का प्रभाव शनि पर पड़ने पर रोगों की शुरूआत होती है। शनि जनित रोग, पीड़ा या शनि जनित दुःखों की शुरूआत अन्तिम 60 बर्षो के अन्तराल में प्रभाव जातक पर होता है। लग्न गत शनि जातक को आलसी, गन्धीला, कामुक तो बनाता ही है, साथ ही उसे नाक सम्बन्धित दोश, रोग भी देता है।
शनि का प्रभाव गुरु पर होने से आकृति विवर्ण होने लगती है, कफ की प्रधानता हो जाती है, दृष्टि मन्द होने लगती है, सफेद मोतिया बढ़ने लगता है, सन्तोष कम होता है। यदि लग्न गत शनि की दृष्टि चन्द्रमा पर पड़ जाय, तो जातक पराधीन जीवन व्यतीत करता है। पराधीन जातकों का शनि नीच का, दुर्बल, शुत्र क्षेत्री हुआ करता है। वैसे लग्न गत शनि वाले व्यक्तियों को अपने पारिवारिक सदस्यों के अधीन वृद्धावस्था व्यतीत करनी पड़ती है। परन्तु यदि लग्न गत शनि धनु, मीन या बुध की राशियों का ही (यानी चतुर्थेश या दशमेश की राशि का हो), तो राजरोग कारक होता है, परन्तु रोग को देने से वंछित नहीं होता है, हां उपयुक्त इलाज के साधन भी जातक को उपलब्ध कराता है, लेकिन रोग के समाप्त होने या न होने की शर्त नहीं है। मिथुन का लग्न गत शनि फोडे़ं, फुन्सी, दाद, कैन्सर का कारक होता है। ऐसे जातकों की कुण्डली में बुध पर या शनि पर सूर्य, मंगल या राहू का प्रभाव हुआ करता है लग्न गत कर्क का शनि भी उपरोक्त फलों का जनक होता है। ऐसा शनि कई स्त्रियों से यौन सम्बन्ध करा लेता है। इस योग में यदि शुक्र-राहू का सम्बन्ध हो ओैर शुक्र शनि की राशि में हो या राहू शनि की राशि में हो तो ऐसे जातकों को अप्सरा, यक्षिणी, जिन्नी आदि की सिद्धि आसान होती है, परन्तु इसके कारण उसका पतन भी होता है।

सिंह राशि या कन्या का लग्न गत शनि पुत्र सुख में बाधा कारक होता है। द्वितीय भावस्थ मेष या वृषभ का शनि अल्पायु कारक होता है। चेहरे पर चोट का निशान या दाग देता है मिथुन का दूसरे भाव का शनि, परन्तु इस फल के लिये बुध पर सूर्य, मंगल या गुरू का प्रभाव भी होना चाहिये। दूसरे भाव में कर्क या सिंह राशि का शनि हो, तो जातक अल्पायु होता है, सम्भवतया वह राजदण्ड का भागी भी बने। तुला, वृश्चिक राशि का द्वितीयस्थ शनि जातक को पेट के रोग देता है। मीन का द्वितीय भावस्थ शनि राजदण्ड प्रदायक होता है। क्रूर, पापी ग्रहों का फल तीसरे भाव में अच्छा कहा जाता है। प्रायः ज्योतिष के सार ग्रंथ इस फल के लिये एकमत हैं, परन्तु यह उपयुक्त नहीं है।
तीसरा भाव आठवें से आठवां भाव है।भावाति भावम् सिद्धान्त के अनुसार इस भाव का सम्बन्ध मृत्यु के कारणों से भी है। इस भाव का शनि प्रायः दूसरे मारकों के कारकत्व को लेकर प्रधान मारक बन जाता है। परन्तु तुला, मकर कुम्भ का शनि इस का अपवाद है, यहां शनि अरिष्ठ नाशक बन जाता है, कर्क, सिंह राशि का शनि अल्पायु प्रदान करने के साथ-साथ जातक को अस्वस्थ भी रखता है, ऐसे जातकों की मृत्यु अस्वाभाविक कारणों से और तत्काल होती है। कन्या व तुला का तृतीयस्थ शनि मृत सन्तान पैदा कराता है। यह फल मंगल के द्वादश भावस्थ होने पर अवश्यम्भावी होता है। पंचम भाव में भी राहू या केतु का प्रभाव होना आवश्यक है इस फल के लिये। कन्या या तुला का तृतीयस्थ शनि हो, सूर्य पर राहू या केतू का प्रभाव हो, तो भी जातक को मृत सन्तान होती है। यदि सातवें भाव पर पाप प्रभाव हो और शनि तीसरे भाव में हो, तो जातक की पत्नी का सम्बन्ध उसके देवर या पर पुरूष से होता है। वृश्चिक या धनु या तृतीयस्थ शनि जातक की पत्नी के लिये घातक होता है।
चैथे भाव के शनि का सम्बन्ध अष्टमेश के साथ होने पर माता का सुख कम होता है, जातक वात रोग से भी पीडि़त रहता है। इसकी पुष्टि जातक के बालों की अधिकता और लम्बे नाखून करते हैं। इस भाव में सूर्य या मंगल या राहू का साथ या प्रभाव (शनि पर) होने पर शनि हृदय रोग का भी प्रदायक है। मेष चतुर्थ भावस्थ शनि भी हृदय रोग कारक होता है। चतुर्थ भावस्थ शनि वृद्धि कारक और लम्बी आयु देता है, इस भाव में बृषभ, कर्क और सिंह राशि के शनि का यही फल है। मिथुन का शनि यदि चैथे भाव में हो और दूसरे आयु कारक रोग भी न हों, तो पुत्र के हाथों मृत्यु कराता है या पुत्रहीनता का कारक होता है। कन्या का चैथे भाव में शनि जीवन पर्यन्त रोग भय देता है। तुला या वृश्चिक राशि का चतुर्थ भावस्थ शनि वात रोग देता है। मीन राशि चैथे भाव में हो, शनि भी चैथे भाव में हो, तो पूरे परिवार को नष्ट करता है।
शनि और सूर्य की युति प्रायः शुभ नहीं होती है, परन्तु पांचवें भाव में शनि, सूर्य की युति बहुत से बुरे फलों को नष्ट करने वाली होती है। सामाजिक पहचान एवं शिक्षा के क्षेत्र में पांचवें भावस्थ शनि, सूर्य पर गुरू का साथ या इसकी दृष्टि बहुत शुभ होती है, परन्तु प्रेम के क्षेत्र में असफलता देती है। पांचवें भाव में कर्क या सिंह का शनि अल्पायु और वृश्चिक या मकर का शनि सन्तान हीनता देता है। यही गुण द्वितीय भाव का स्वग्रही शनि भी देता है।
छठे भाव का शनि महिलाओं की कुण्डली में सौत का योग बनाता है। इस भाव का शनि गुह्य रोग, प्रमेह, मुधमेह, लकवा, वात रोग, पोलियो का कारक होता है। द्वादशेश शनि द्वादश में बैठ कर भी यही रोग देता है। अष्टमेश होकर यदि शनि छठे भाव में पडे़, तो विपरीत राजयोग कारक माना जाता है। परन्तु यदि ऐसा शनि वृश्चिक या धनु राशि का हो, तो वात रोग या शूल रोग कारक, नशा कारक, होता है। इस भाव में शनि मेष राशि होने पर जिगर और आंख; वृषभ का होने पर आंख व गुदा रोग, पित्ताशय, हृदय का रोग; मिथुन का होने पर दमा, मस्तिष्क सम्बन्धी, गुदा रोगों का; कर्क राशि का होने पर आमाशय आंख, हृदय रोगों का; कन्या राशि का होने पर शनि मूत्र सम्बन्धी; तुला का होने पर डिप्थीरिया; वृश्चिक का होने पर मस्तिष्क रोगों का कारक बनता है। कन्या राशि का शनि छठे भाव में हो, तो गिरने से चोट और रास्ते या विदेश में मृत्यु देता है। छठे भाव में तुला का शनि गिरने से चैट दे सकता है तथा जीवन, विशेषकर बाल्यावस्था कष्टकर होती है। वृश्चिक का शनि छठे भाव में पड़ कर सर्प, विष से भय देता है। इस भाव में धनु या मकर राशि का शनि राजयक्ष्मा रोग देता है।

मकर राशि का शनि स्त्री संसर्ग से मृत्यु देता है, एड्स एवं यौन रोगों की प्रबल सम्भावना रहती है। छठे भावस्थ कुम्भ या मीन का शनि पुत्र सुख की न्यूनता देता है। सातवें भाव में शनि दाम्पत्य भाव को विषमय ही नहीं बनाता, बल्कि बरबाद कर देता है। जातक की धूर्तता, क्रूरता, निर्दयता और मलिनता पत्नी को दूसरे पुरूष के आगोश में जाने को मजबूर कर देती है। पत्नी का यौन सम्बन्ध देवर या निकट के सम्बन्धी से बन जाता है ऐसे परिप्रेक्ष्य में। सातवें भाव का शनि निचले कटि प्रदेश और जाघों के ऊपर के भाग में रोगों का प्रकोप पैदा करता है। ऐसा शनि या तो सन्तान होने नहीं देता और यदि हो गई, तो वह रोगिणी होती है। सातवें शनि वाले जातक बिन ब्याहे रह जायें, तो काई आश्चर्य नहीं। उसका स्वग्रही शनि भी दाम्पत्य जीवन को सुखमय नहीं बना पाता है। सातवें भाव में मकर, कुम्भ या तुला राशि का शनि हो, तो ऐसे जातक के आकर्षण का केन्द्र स्त्री का गुप्तांग होता है, वह उसका स्पर्श, मर्दन, करना चाहता है या करता है। सप्तम शनि वैश्या गमन या पर स्त्री सम्बन्ध बनाता है। इस भाव में शुक्र या मंगल का सम्बन्ध इसको बल प्रदान करता है। शनि-चन्द्र युति इसी कारण वश गृहस्थों के लिये शुभ नहीं होती।

उदासीनता, वैराग्य, आलस्य, यौन विकृतियां मानसिक या स्थूल स्तर पर परिलक्षित होती हैं। सातवें शनि-चन्द्र युति होने पर। परन्तु संन्यासियों को सातवें चन्द्र-शनि की युति अच्छी मानी गयी है। सातवें भाव में महिलाओं की कुण्डलियों का शनि भी यही फल देता है। सिंह राशि का सातवां शनि सांस के रोग देता है, कफ सम्बन्धी रोग भी होते हैं। दशम भावस्थ कन्या राशि का शनि भी कफ जनित रोग देता है। धनु, मकर का सातवें भाव में शनि फोडे़, फुन्सी, भगन्दर, बवासीर, स्त्री समागम जनित रोग, कैन्सर आदि रोगों का कारक होता है। इनमें से कोई भी रोग मृत्यु का कारण बन सकता है। अपने पाप प्रभाव का मूर्त रूप अष्टम भाव में शनि बन जाता है अकसर। केवल तुला, मकर या कुम्भ राशि का शनि अष्टमस्थ होकर दीर्घायु कारक होता है। पर जातकों को मध्यम स्वास्थ भी देता है।
आठवें भाव का शनि बादी, बवासीर, भगन्दर, गुह्य रोग, कोढ़, नेत्र विकार, पेचिश, हृदय रोग, दाद, खारिश, फोड़े, प्रेमह आदि बीमारियां पैदा करता है। अष्टम भावस्थ शनि राशि क्रम से मृत्यु का कारण बनता है।

भूख, उपवास से बहुत भोजन या भोजन न मिलना, रिश्तेदारों के हाथ, से संग्रहणी से, शत्रु के हाथों से, पीलिया से, राजयक्ष्मा रोग से, प्रमेह से, मानसिक बीमारी, चर्म रोग (खुजली), कांटा या इन्जेक्शन या सर्प दंश से, फोड़े या कैन्सर से, ऊपर से गिरने से या चोट लगने से मृत्यु की सम्भावना होती है। इस सम्भावना को ब्रह्म वाक्य में बदलने के लिये अष्टमेश का निर्बल होना और पाप प्रभाव में होना सम्बन्धित रोगों का कारण होता है।

मेष का अष्टमस्थ शनि सूर्य या राहू या केतु के प्रभाव के कारण पेट से सम्बन्धित विकार, नेत्र रोग, संग्रहणी, विषमय शरीर विकार देता है। जिन जातकों की कुण्डली में मिथुन या कर्क का अष्टम भाव में शनि होता है, उनके लिए राजदण्ड़, फांसी का भय पैदा रहता है। यदि चोरी करना मानसिक वृत्ति हो सकती है, तो यह अष्टम शनि की देन होगी, परन्तु द्वितीय भाव का शनि भी चोरी करने की प्रवृत्ति देता है। मीन राशि का अष्टमस्थ शनि संग्रहणी, सर्प भय, विष भय कारक होता है। नवें, दसवें, ग्यारहवें भाव का शनि अपना पापत्व खो देता है। संन्यासियों की कुण्डली में सप्तम शनि अच्छा माना जाता है। नवें भाव का शनि संन्यासी को मठाधीश बना देता है।
नवम भावस्थ शनि पैरों में विकार देता है। मेष, मीन का नवमस्थ शनि पुरूषत्वहीनता या बांझपन देता है। एकादश भावस्थ पाप प्रभाव वाला शनि मृत सन्तान पैदा कराता है। वृष राशि का एकादश शनि पत्नी को सन्तान के जन्म पर मरणासन्न बना देता है। बारहवें भाव में आकर शनि पापी बन जाता है। ऐसा जातक पूर्णतः संसारी बन जाता है।, धर्म-कर्म में उसकी आस्था नहीं होती है, आधि दैविक आधि-व्याधि को भोगता हुआ जीता है, उनका उपचार नहीं करता है। पसलियों के रोग, जांघ का फोड़ा आदि रोग धनु का शनि द्वादश भाव में देता है, ऐसे जातक दुबले-पतले शरीर वाले होते हैं, आखें छोटी-बड़ी होती है। बारहवां शनि राहू या सूर्य के प्रभाव के कारण अन्धापन या कानापन देता है, मस्तिष्क के विकार भी हो सकते हैं। मिथुन का शनि द्वादश भाव में बैठ कर आत्मघाती प्रवृत्ति जातक को देता है, विषैले जानवरों के काटने, विषैले इन्जेक्शनों, पानी में डूबने के कारण होने वाले कष्ट भी होते हैं। सिंह का द्वादशस्थ शनि पुत्र सुख नहीं देता है। तुला, वृश्चिक का शनि राज भय कारक होता है।

शनि, चन्द्र, सूर्य की युति पर यदि मंगल का प्रभाव हो, तो जातक का विवाह बांझ स्त्री से होता है। आठवें भाव में बुध के साथ आयु कारक माना जाता है और शनि-चन्द्र की युति वैराग्य कारक होती है, परन्तु यही शनि-चन्द्र की युति तीसरे भाव में हो और बुध आठवें पड़ा हो, तो जातक अल्पायु होता है, जातक का परिवार नष्ट हो जाता है, जातक की मां को दीर्घकालिक रोग होते हैं। शनि-मंगल की युति तृतीय या चतुर्थ भाव में हो, या इन भावों से तीसरे, आठवें या दसवें भाव में शनि-मंगल हो, तो जातक की पत्नी की मृत्यु शादी के शीघ्र बाद हो जाती है जातक को अपने भाई के साथ रहना पड़ता है। तीसरे या चैथे या सातवें भाव में शनि-बुध की युति प्रायः निरोग शरीर देती है, परन्तु इस योग में जातक नीच कुल की स्त्री के साथ रहता है। शनि-मंगल की युति सातवें या दसवें में हो, चन्द्रमा जन्म लग्न से तीसरे या चैथे हो और बुध चैथे, आठवें या बारहवें भाव में पडें हों, शनि, चन्द्र, बुध चैथे, आठवें या बारहवें भाव में पड़े हों, शनि, चन्द्र, बुध सातवें या दसवें भाव में हों, तो दस वर्ष की आयु में जातक की मृत्यु होती है। गुरू, शनि, चन्द्र यदि दूसरे या बारहवें भाव में हो, तो आखों की रोशनी नष्ट करते हैं। शनि-बुध की युति पर मंगल का प्रभाव छठे भाव में हो, तो जातक भाइयों से लड़ कर घर-द्वार छोड़ देता है।

 

Benefits of Basil ( Tulsi, तुलसी )

benefits of basil tulsi in ayurveda

Benefits of Basil Tulsi in Ayurveda

तुलसी(basil) का पौधा उसी प्रकार वनस्पतियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है जिस प्रकार देवताओं में इन्द्र, प्रणियों में मनुष्य, नदियों में गंगा, छन्दों में गायत्री, पर्वतों में हिमालय और हाथियोें में ऐरावत हाथी श्रेष्ठ हैं, यही कारण है कि हिन्दु परिवारों में घर की पवित्रता की रक्षार्थ तुलसी का पौधा लगाया जाता है। तुलसी में जहाँ रासायनिक विशेषतायें हैं, वहाँ ‘‘सूक्ष्म’’ कारण शक्ति भी ऐसी है, जो मानसिक एवं भावानात्मक क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं। प्रत्यक्षतः आरोग्य रक्षा और रोग निवारण के दोनों ही गुण तुलसी में हैं। तुलसी में आरोग्य के लिए उपयोगी टाॅनिक भी है। साथ ही यह रोगों का शमन करते समय शरीर के सुरक्षा पक्ष को तनिक भी हानि नहीं पहुँचाती। उसमें ऐसा कोई दोष नहीं है, कि इसकें सेवन से किसी संकट में पड़ना पड़े। लाभ धीरे हो यह हो सकता है। साथ ही चिकित्सा उपचार के साथ जो खतरे जुड़े रहते हैं उसकी आशंका तनिक भी नहीं है। तुलसी अपने आप में पूर्ण औषधी है। अब वैज्ञानिक अनुसंधान और रसायनिक विश्लेषणों के आधार पर यह सिद्ध हो गया है कि तुलसी में किटाणु-नाशक तत्व प्रचूर मात्रा में होते है, जिससे रोग-निवारण में यह काफी सहायक सिद्ध होती है। तुलसी के पत्तों में एक प्रकार का किटाणु – नाशक द्रव्य होता है, जो हवा के सहयोग से वातावरण में फैलता है। तुलसी का स्पर्श करने वाली वायु जहाँ भी जाती है, वहीं अपना रोगनाशक एवं शोधक प्रभाव डालती है। तुलसी शरीर के विषैले कोषों को शुद्ध करती है और शरीर से दूषित तत्वों को निकाल बाहर करती है। शास्त्रकारों ने कहा है कि –

तुलसी काननं चैव गृहेयस्याव तिष्ठते।
तद्गृहे तीर्थभूतंहि न यन्ति यम किंकराः।।

अर्थात्-जिस घर में तुलसी(basil) का वन है वह घर तीर्थ के समान पवित्र है। उस घर में यमदूत नहीं आते।’ यहाँ यमदूतों का अर्थ रोग फैलाने वाले कीटाणु है। इसी प्रकार अन्यत्र कहा है:-

तुलसी विपिनस्यापि समन्तात्पावन स्थलम्।
कोषमात्रं भवत्येव गंगे यस्येव पायसः।।

अर्थात्- तुलसी वन के चारों ओर एक कोस अर्थात् दो मील तक की भूमि गंगाजल के समान पवित्र होती है। स्मरण रहे कि रोग किटाणु नाष की गंगा जल में अपूर्व शक्ति है। उसमे कोई कीटाणु जीवित नहीं रह सकता और इसलिये गंगाजल कभी सड़ता नहीं। भगवान के पंचामृत भोग प्रसाद में तुलसी का ही उपयोग किया जाता है। मरते समय तुलसी पत्र मुख में डालते हैं। तुलसी की माला पर किया हुआ जप श्रेष्ठ माना जाता है, तुलसी पंचांग द्वारा विनिर्मित एक ही तुलसी वटी द्वारा अनुपान भेद से समस्त रोगों का उपचार हो सकता है। तुलसी में रोग-नाषक शक्ति प्रचूर मात्रा में है। चरक के अनुसार यह हिचकी, खाँसी, दमा, फेफड़ों के रोग तथा विष-निवारक होती है।
भावमिश्र ने तुलसी को हृदय रोगों में लाभकारी(beneficial), रक्त विकार को दूर करने वाली औषधी बताया है। सुश्रुत ने भी इसे रोगनाषक, तेजवर्धक वात-कफ-षोधक, छाती के रोगों में लाभवर्धक तथा आन्त्र क्रिया को स्वस्थ रखने वाली औषधी बताया है। पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान ने भी तुलसी को खांसी, ब्रांकाइटिस, निमोनियाँ, फ्लू , क्षय आदि रोगों में लाभदायक बताया है। इसमें सन्देह नहीं कि संसार कि सभी चिकित्सा पद्धतियों ने तुलसी के महत्व को स्वीकार किया गया है। आयुर्वेदिक, ऐलौपैथिक, यूनानी, होमियोपैथिक सभी अपने अपने ढंग से रोग निवारण और स्वास्थ्य सुधार के लिये तुलसी का उपयोग करते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा की गई खोजों के आधार पर पता चला है कि तुलसी से प्राप्त होने वाला द्रव्य क्षय रोग के किटाणुओं का नाशक होता है। अधिकांश रोगों में तुलसी बहुत ही प्रभावशाली सिद्ध हुई है। दैनिक जीवन में सामान्य रूप से भी इसका सेवन करते रहना बहुत हितकर है। जुकाम, बुखार, मलेरिया, इन्फ्लूएन्जा आदि में तुलसी का काढ़ा बनाकर लेने से लाभ होता है। मलेरिया के लिये तो यह अमोध औषधि है।