चमत्कारी पौधा अशोक

चमत्कारी पौधा अशोक शोक वृक्ष के नाम से हम सभी परिचित हैं। यह वही वृक्ष है जिसकी छाया तले लंका में माता सीताजी को रखा गया था। यह एक सुंदर सुखद, छाया प्रधान वृक्ष है। इसके पत्ते 8 से 10 इंच लम्बे तथा 2 से 3 इंच चैडे होते हैं। प्रारम्भ में इन पत्तों का रंग ताम्रवर्ण का होता है- इसीलिए इसे ‘‘ताम्र पल्लव’’ भी कहा जाता है। इसके पुश्प गुच्छों में लगते हैं। तथा पुश्प काल में पहले ये नारंगी तदुपरांत लाल रंग के हो जाते हैं। इसलिए अशोक का एक नाम ‘‘हेम्पुश्प’’ भी है। अशोक के पुश्प वसंत ऋतु में खिलते हैं। पुश्पित होने पर ये मन को आनंदित करने वाले होते हैं।

औशधीय  चमत्कार- अपनी सघन सुखदायिनी छाया के द्वारा इस वृक्ष ने जिस प्रकार माँ सीता के दुख को कम किया था। ठीक उसी प्रकार इस वृक्ष के अनेक औशधीय प्रयोग भी हैं। जो कि स्त्रियों में होने वाली व्याधियों को हरने में सक्षम है। वास्तव में इसकी छाल में ‘‘टेनिन’’ तथा ‘‘कैटेचिन’’ नामक रसायन पर्याप्त मात्रा में होते हैं। ये रसायन ही औशधीय  महत्व के हैं। इसलिए औशधी के रूप में इसकी छाल का ही अधिक उपयोग किया जाता है। अशोक से निर्मित अशोकारिष्ट नामक एक आयुर्वेदिक औशधी के गुणों से हम सभी भली-भाँति परिचित हैं।
अश्मरी (पथरी) रोग में- अशोक के बीजों के 2 ग्राम चूर्ण को जल के साथ नित्य कुछ समय तक सेवन करने से अश्मरी रोग का शमन होता है।
गर्भपात रोकने के लिए- प्रायः अनेक महिलाओं को गर्भाशय की निबर्लता के कारण गर्भपात होता है अथवा कभी-कभी महिलाओं को अधिक रक्तस्राव होने लगता है। शास्त्रों में इसके लिए ‘‘अशोक-घृत’’ लेने की सलाह दी गयी है अथवा ऐसे मामले में अशोक की छाल का चूर्ण थोड़ी-सी मात्रा में गाय के दूध के साथ लेने से लाभ हाता है। इस के लिए एक मात्रा 2 से 4 ग्राम की होती है और इसे लगभग एक सप्ताह लेना होता है।
मासिक धर्म की गड़बड़ी- जिन महिलाओं को मासिक धर्म अधिक होता हो अथवा अनियमित होता हो उनके लिए भी अशोक की छाल का व्यवहार करना हितकर है। इसके लिए रोगी महिला को लगभग 2 तोला मात्रा अशोक की छाल लेकर उसे दूध में उबालें जब दूध पर्याप्त गाढ़ा हो जाए तब छाल को अलग कर उस दूध में भरपूर अथवा आवश्यक मात्रा में खांड मिलाकर सेवन करना चाहिए। लिए जाने वाले दूध की मात्रा 250 मिली लीटर हो। इसका सेवन 3 दिन तक करना चाहिए।

रक्त प्रदर में रक्त प्रदर और अधिक मासिक स्राव की स्थिति में अशोक की छाल और सफेद जीरे का आसव भी बहुत लाभकारी है। इसे बनाने के लिए छाल और सफेद जीरे की 2-2 तोला मात्रा लेकर उन्हें आधा सेर जल में उबालते हैं। जब लगभग चैथाई पानी रह जाय तब उतार कर इसे छान लें और इसमें खांड मिलाकर सुबह-सुबह सेवन करें इससे रक्त प्रदर और अधिक मासिक स्राव के विकार दूर होते हैं। यह आसव एक बार में लगभग 2 तोला सेवन किया जा सकता है तथा दिन में 3 या 4 बार सेवन करें।

श्वेत प्रदर में– श्वेत प्रदर से पीडित महिलाओं को अशोक की छाल का दुग्ध कषाय लेना चाहिए। इस कषाय को बनाने के लिए लगभग 250 मि0 ली0 दूध और 100 ग्राम अशोक छाल मिला कर इस मिश्रण को इतना गरम करें कि सम्पूर्ण जलीय अंश उड़ जाए, इसके पश्चात् प्राप्त दूध की लगभग 2 या 3 तोला मात्रा दिन में दो बार लें। यह प्रयोग मासिक स्राव के चैथे दिन के पश्चात् से प्रारंभ करें। इस प्रकार यह महिलाओं के लिए एक अमोघ औशधी है।
अशोक के तांत्रिक चमत्कार- तंत्रशास्त्रों में अशोक के अनेक प्रयोग वर्णित हैं-
1. जिस घर में उत्तर की ओर अशोक का वृक्ष लगा हो उस घर में बिनबुलाए शोक नहीं आते।
2. सोमवार के दिन शुभ मुहूर्त में अशोक के पत्तों को घर में रखने से घर में शांति व श्री वृद्धि होती है।
3. अशोक वृक्ष का बाँदा चित्रा नक्षत्र में लाकर रखने से ऐश्वर्य वृद्धि होती है।
4. उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में निकाला गया अशोक का बाँदा अदृश्यीकरण हेतु प्रयुक्त होता है।
5. अशोक के वृक्ष के नीचे स्नान करने वाले व्यक्ति की ग्रहजनित बाधाएँ दूर होती हैं।
6. मंदबुद्धी/स्मृति लोप वाले जातक या जिनकी पत्रिका में बुध नीच का बैठा हो उनके लिये अशोक वृक्ष के नीचे स्नान करना कष्ट निवारक होता है।
7. इस वृक्ष को घर के उत्तर दिशा में रोपित करने से वास्तुदोश का निवारण होता है।
8. अशोक का वृक्ष घर में होने से घर में लगे अन्य अशुभ वृक्षों का दोश शांत हो जाता है।

Aayurveda : a Veda for Vitality & Life (आयुर्वेद प्राणों का वेद)

हमारा भारत देश कई दृष्टियों से महान है, सबसे पहले यहीं पर सभ्यता का उदय हुआ था। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों की रचना हुई थी। ज्ञान और विज्ञान की पूर्णता तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की थी, पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, कि भारत वर्ष में ही आयुर्वेद का इतना अधिक विकास हुआ, जिससे संसार ने एक स्वर से यह स्वीकार किया की भारतवर्ष प्राणविज्ञान के क्षेत्र में सबसे आगे रहा है, और आयुर्वेद में निहित ज्ञान की समानता नहीं की जा सकती। आधुनिक चिकित्सा भले ही सर्जरी के क्षेत्र मे अधिक महत्त्वपूर्ण और सफल हो, परन्तु रोगों के निर्मूलन (अथवा जड़ से समापन) में अभी तक यह कोरा का कोरा ही है, कुछ एलौपैथिक औषधियों के द्वारा रोगों को कुछ समय के लिए दबा भले ही दिया जाए, परन्तु रोगों को मिटाने की युक्ति या निदान उसके पास नहीं है। आयुर्वेद ‘प्राणों का वेद’ कहा जाता है, हमारे पूर्वजों ने प्रयत्न करके ऐसी वनस्पतियों और जड़ी बूटियों का पता लगाया था, जो अद्भुत और तुरन्त सफलता देने वाली हैं। परन्तु हम उन्हें प्रायः भूल ही चुके है। यदि देखा जाय, तो संसार में कोई ऐसा रोग नहीं, जिनका आयुर्वेदिक पद्वति द्वारा उन्मूलन न किया जा सकता हो, इन जड़ी बूटियों की विशेषता है, कि इनके सेवन से कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता।

अपराजिता-

इसे संस्कृत में ‘विष्णुकान्ता’, हिन्दी में ‘कालीजीरी’ और गुजराती में ‘गरणी’ कहा जाता है, यह एक बहुवर्षिय जीवी वानस्पतिक बेल है, जिसमें पीले फूल लगते हैं, इसके फूल का आकार बड़ा होता है, इसलिए इसे ‘गौकर्णी’ भी कहते हैं। यह जंगल में सामान्यतः प्राप्त हो जाती है, इसके पुष्प बीजों को निकाल कर उसका अवलेह बनाकर नित्य सेवन किया जाए, तो यह पेचिश को समाप्त कर देती है, इसका विशेष गुण यह है, कि यदि शराब की मात्रा ज्यादा लेने से लीवर बढ़ गया या लीवर में सूजन आ गई हो, तो एक-एक चम्मच सात दिन लेने से लीवर की सूजन समाप्त हो जाती है। इसकी जड़ को पीसकर नित्य फंकी लेने से आंखों की ज्योति बढ़ जाती है, और चश्मा उतर जाता है इसके अलावा इसके बीज यकृत, प्लीहा, जलोदर, पेट के कीड़े, आमाशय में सूजन, कफ, स्त्रियों के रोग और क्षय आदि में तुरन्त और आश्चर्यजनक रूप से सफलता देते हैं। इसकी छाल को दूध में पीसकर शहद मिलाकर पीने से गर्भपात रूक जाता है। इसके बीजों को पीसकर लेप करने से अंडकोष की सूजन समाप्त हो जाती है।

अमलतास-

इसे संस्कृत में ‘हेमपुष्पा’ गुजराती में ‘गरमाड़ी’ तथा मराठी में ‘वाहवोह’ कहते है, इसके पेड़ की चैड़ाई लगभग तीन फिट होती है। तथा काले रंग की फलियाँ लगती हैं, इस पेड़ की छाल उतारने पर लाल रंग का रस निकलता है जो की क्षय रोग को दूर करने की क्षमता रखता है। इसके मुकाबले की अन्य कोई वनस्पति नहीं है, इसकी जड़ को दूध में औटाकर सेवन करने से किसी भी प्रकार का क्षय रोग समाप्त हो जाता है। यदि इसकी जड़ को घिस कर दाद पर लगाया जाए, तो कुछ ही दिनों में वह दाद समाप्त हो जाता है। इसकी जड़, छाल, फल-फूल और पत्ते -इन पांचों को जल में पीस कर दाद-खुजली या चर्म विकारों में प्रयोग करने से जादू के समान असर होता है। यदि पेशाब के साथ खून गिरता हो, तो इसका गूदा नाभि पर लेप करने से लाभ होता हैं आंतो के रोग, कुष्ठ, कब्जी, गले की तकलीफ आदि में भी इसकी जड़ महत्त्वपूर्ण औषधि कही गई है।

आंवला-

इसे लगभग सभी भाषाओं में आंवला ही कहते हैं और इसके पेड़ पूरे भारतवर्ष के जंगलों में होते हैं, कोष्ठ बद्धता को मिटाने में यह महत्त्वपूर्ण है। उत्तम पके हुए एक हजार आंवले लेकर एक बड़ी हांडी में भर कर रख दें और उसमें दूध डाल कर हांडी को भर दें। फिर उसे धीरे -धीरे आंच पर पकाकर नीचे उतार दें, इसके बाद 10 तोला ‘त्रिफला’ और 80 तोला ‘मिश्री’ मिला कर अवलेह बना लें, और इसे किसी स्वच्छ पात्र में भर कर रखें। इसका नित्य आधा तोला सेवन करने पर शीघ्र ही व्यक्ति के शरीर की झुर्रियां मिट जाती हैं और उसे नव यौवन प्राप्त हो जाता हैं। यदि जवान पुरूष या स्त्री इसका सेवन करें, तो उसे अत्यधिक पौरूषता, कामेाद्दीप्तता तथा चेहरे की सुन्दरता प्राप्त होती है। यदि आंवले के पानी के साथ शहद और मिसरी मिलाकर लिया जाए, तो श्वेत प्रदर समाप्त हो जाता हैं।