अम्लपित्त (एसीडिटी) का उपचार

आयुर्वेदिक चिकित्सा से एसीडिटी का उपचार –

अम्लपित्त या एसीडिटी आजकल की मार्डन खानपान की देन है, और यह परिवर्तित लाइफस्टाइल की देन भी है। आइये जानते हैं, अम्लपित के निवारणार्थ घरेलू उपचार-

— अदरक के सेवन से एसीडिटी से निजात मिल सकती हैं, इसके लिए आपको अदरक को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर गर्म पानी में उबालना चाहिए और फिर उसका पानी पीना चाहिए। अदरक की चाय भी ले सकते हैं।

— आंवला चूर्ण को एक महत्वपूर्ण औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आपको एसीडिटी की शिकायत होने पर सुबह- शाम आंवले का चूर्ण लेना चाहिए।

— मुलैठी का चूर्ण या फिर इसका काढ़ा भी आपको एसीडिटी से निजात दिलाएगा इतना ही नहीं गले की जलन भी इस काढ़े से ठीक हो सकती है।

— नीम की छाल को पीसकर उसका चूर्ण बनाकर पानी से लेने से एसीडिटी से निजात मिलती है।

— इतना ही नहीं यदि आप चूर्ण का सेवन नहीं करना चाहते तो रात को पानी में नीम की छाल भिगो दें और सुबह इसका पानी पीएं आपको इससे निजात मिलेगी।

— मुनक्का या गुलकंद के सेवन से भी एसीडिटी से निजात पा सकते हैं, इसके लिए आप मुनक्का को दूध में उबालकर ले सकते हैं या फिर आप गुलकंद के बजाय मुनक्का भी दूध के साथ ले सकते हैं।

— अधिक मात्रा में पानी पीने, दोपहर के खाने से पहले पानी में नींबू और मिश्री का मिश्रण, नियमित रूप से व्यायाम और दोपहर और रात के खाने के बीच सही अंतराल आदि सावधानियों से एसिडिटी की समस्या से बचा जा सकता।

हरीतकी (हरड़) रसायन

हरीतकी (हरड़) रसायन
आयुर्विज्ञान शास्त्र में लिखा है कि –

‘सर्वेषामेवरोगाणां निदानं कुपिता मलाः’

अर्थात् सब रोगों के मूल कारण बिगड़े हुये मल ही है जिसमें विशेष उल्लेखनीय उदरमल है। आजकल अधिकांश व्यक्ति प्रायः यही कहते सुने जाते है कि ‘उन्हें मलावरोध (कब्ज) रहता है, पाचनक्रिया ठीक रहीं, भूख नहीं लगती, शिर व पेट में पीड़ा रहती है’ आदि 2 इन सब व्याधियों को शांत करने के लिये हरीत की (हरड़) सर्वसुलभ सर्वाेत्तम महौषधि है। हरड़ का भिन्न-भिन्न ऋतुओं में अनुपान भेद से सेवन क्रम हमारे परम स्नेही आयुर्वेद जगत् के सुप्रसिद्ध वयोवृद्ध विद्वान् श्री पं0 मनोहर लाल जी वैद्यराज महोदय (दिल्ली) ने ज्योतिष-मार्तण्ड के पाठकों के लाभार्थ दिया, वह हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं।

हरड़ की उत्पत्ति के सम्बंध में प्राचीन ग्रंथों में लिखा है कि – देवताओं के अमृतपान करते हुये कुछ बूँदे पृथ्वी पर गिरी, उसी से हरीत की उत्पत्ति हुई, अतः अमृतोपमगुण इसमें विद्यमान है, इसीलिये कहा गया है- ‘‘कदाचित् कुप्यति माता नोदरस्था हरीत की।’’

यह सब मानते हैं कि यदि हरड़ समय के अनुसार विधिपूर्वक ली जाये तो मनुष्य कभी रोगी नहीं हो सकता। प्रत्येक ऋतु में हरीत की (हरड़) के सेवन का प्रयोग निम्नांकित है-

1-वर्षा ऋतु में:-
छोटी हरड़ का चूर्ण कपड़छान करके चतुर्थांश सेंधा नमक मिलाकर 4 माशे की मात्रा रात्रि में गर्म पानी से लिया जाये तो कब्ज, बलगमी खाँसी, बवासीर, पेट का दर्द, भूख न लगना, आदि रोग नष्ट होते हैं। 10 से 20 दिन तक ले सकते हैं।

2-शरद् ऋतु में:-
छोटी हरड़ के चूर्ण कपड़छान करके समानांश मिश्री मिलाकर 4 माशे की मात्रा में गर्म पानी से लें तो – पित्त विकार, जलन, मूत्रकच्छ, पित्ताशय का विकृत होना, पित्त जनित उदर विकार शांत होते हैं।

3-हेमन्त ऋतु में:-
छोटी हरड़ के चूर्ण में सोंठ का चूर्ण आधा भाग मिलाकर गर्म पानी से ले तो शीत व्याधि, गठिया जोड़ों का दर्द, अजीर्ण, उद्रशूल, पेचिस, पेट का अफरना, आदि समस्त उदर विकार शांत होते हैं।

4-शिशिर ऋतु में:-
हरड़ के चूर्ण में छोटी पीपल का चूर्ण 1/4 चतुर्थांश मिलाकर गर्म पानी से लें तो शीत व्याधि, शीत ज्वर, ज्वर सर्दी की खांसी, नजला, सीने का दर्द अजीर्ण मन्दाग्नि विशेष कर ठंड से चढ़ने वाला ज्वर व बलगमी खांसी में लाभदायक है।

5-वसंत ऋतु में:-
हरड़ का चूर्ण दो माशे में दुगना शहद मिलाकर चाटे तो बलगम, श्वांस खांसी बलगमी, बुखार, जुकाम, शिरदर्द को शांत करती है। एवं जुकाम में बंद नाक के बलगम को साफ करती है।

6-ग्रीष्म ऋतु में:-
हरड़ का चूर्ण कपड़छान करके, दुगना 1 साल पुराना गुड़ मिलाकर 1 माशे की गोली बना लें, प्रातः सायं और रात्रि में उबले हुये कवोष्णा पानी से 1 गोली लें, 10 दिन तक, तो समस्त वात रोग, पेट का फूलना वायु से मल का सूखकर कब्ज होना, सूखी खांसी, लू लग जाना, हैजा, मौसमी बुखार, भूख न लगना आदि समस्त विकारों को शांत करता है।
इस प्रकार छओं ऋतुओं में हरड़ सेवन करने से शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है। कोई रोग फटकने नहीं पाता।

त्रिफला

त्रिफला कब और कैसे लेना चाहिए :-

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त्रिफला के सेवन से अपने शरीर का कायाकल्प करके जीवन भर स्वस्थ रहा जा सकता है, आयुर्वेद की महान देन त्रिफला से हमारे देश का आम व्यक्ति परिचित है, आप ने भी कभी न कभी कब्ज दूर करने के लिए इसका सेवन भी अवश्य किया होगा। पर बहुत कम लोग जानते हैं, इस त्रिफला चूर्ण जिसे आयुर्वेद रसायन भी मानता है, से अपने कमजोर शरीर का कायाकल्प भी किया जा सकता है। बस जरुरत है तो इसके नियमित सेवन करने की, क्योंकि त्रिफला का वर्षों तक नियमित सेवन ही आपके शरीर का कायाकल्प कर सकता है।

त्रिफला सेवन विधि – सुबह हाथ मुंह धोने व कुल्ला आदि करने के बाद खाली पेट ताजे पानी के साथ इसका सेवन करें, तथा सेवन के बाद एक घंटे तक पानी के अलावा कुछ ना लें, इस नियम का कठोरता से पालन करें।

यह तो हुई साधारण त्रिफला सेवन विधि, पर आप कायाकल्प के लिए नियमित इसका इस्तेमाल कर रहे है तो, इसे विभिन्न ऋतुओं के अनुसार इसके साथ गुड़, सैंधा नमक आदि विभिन्न वस्तुएं मिलाकर लें, हमारे यहाँ वर्ष भर में छ: ऋतुएँ होती हैं, और प्रत्येक ऋतु में दो दो मास होते हैं।

1- ग्रीष्म ऋतु- 14 मई से 13 जुलाई तक, त्रिफला को गुड़ 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।

2- वर्षा ऋतु- 14 जुलाई से 13 सितम्बर तक, इस समय इस त्रिदोषनाशक चूर्ण के साथ सैंधा नमक 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें |

3- शरद ऋतु – 14 सितम्बर से 13 नवम्बर तक, इस समयावधि में त्रिफला के साथ देशी खांड 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।

4- हेमंत ऋतु- 14 नवम्बर से 13 जनवरी के बीच त्रिफला के साथ सौंठ का चूर्ण 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।

5- शिशिर ऋतु- 14 जनवरी से 13 मार्च के बीच छोटी पीपल का चूर्ण 1/4 भाग मिलाकर सेवन करें।

6- बसंत ऋतु- 14 मार्च से 13 मई के दौरान इस के साथ शहद मिलाकर सेवन करें। शहद उतना मिलाएं जितना मिलाने से अवलेह बन जाये।

इस तरह इसका सेवन करने से एक वर्ष के भीतर शरीर की सुस्ती दूर होगी, दो वर्ष सेवन से सभी रोगों का नाश होगा, तीसरे वर्ष तक सेवन से नेत्रों की ज्योति बढ़ेगी, चार वर्ष तक सेवन से चेहरे का सोंदर्य निखरेगा, पांच वर्ष तक सेवन के बाद बुद्धि का अभूतपूर्व विकास होगा, छ: वर्ष तक सेवन के बाद बल बढेगा, सातवें वर्ष में सफ़ेद बाल काले होने शुरू हो जायेंगे, और आठ वर्ष सेवन के बाद शरीर युवाशक्ति सा परिपूर्ण लगेगा।

दो तोला हरड बड़ी मंगावें। तासू दुगुन बहेड़ा लावें।
और चतुर्गुण मेरे मीता ले आंवला परम पुनीता।।
कूट छान या विधि खाय। ताके रोग सर्व कट जाय।।

त्रिफला का अनुपात होना चाहिए :- 1 : 2 : 3 = 1 (हरड ) + 2 (बहेड़ा ) + 3 (आंवला )
मतलब जैसे आपको 100 ग्राम त्रिफ़ला बनाना है तो, 20 ग्राम हरड + 40 ग्राम बहेडा + 60 ग्राम आंवला
अगर साबुत मिले तो तीनो को पीस लेना और अगर चूर्ण मिल जाए तो मिला लेना

त्रिफला लेने का सही नियम –

सुबह अगर हम त्रिफला लेते हैं तो, उसको हम “पोषक” कहते हैं। क्योंकि सुबह त्रिफला लेने से त्रिफला शरीर को पोषण देता है, जैसे शरीर में vitamine, iron, calcium, micronutrients की कमी को पूरा करता है, एक स्वस्थ व्यक्ति को सुबह ही त्रिफला खाना चाहिए।

सुबह जो त्रिफला खाएं हमेशा गुड के साथ खाएं।

रात में जब त्रिफला लेते हैं उसे “रेचक” कहते हैं क्योंकि रात में त्रिफला लेने से पेट की सफाई (कब्ज इत्यादि) का निवारण होता है।

रात में त्रिफला हमेशा गर्म दूध के साथ लेना चाहिए।

— नेत्र प्रक्षलन: (त्रिफला के पानी से नेत्रों को धोना) एक चम्मच त्रिफला चूर्ण रात को एक कटोरी पानी में भिगोकर रखें, सुबह कपड़े से छानकर उस पानी से आंखें धो लें। यह प्रयोग आंखों के लिए अत्यंत हितकर है। इससे आंखें स्वच्छ व दृष्टि सूक्ष्म होती है। आंखों की जलन, लालिमा आदि तकलीफें दूर होती हैं।

— कुल्ला करना : त्रिफला रात को पानी में भिगोकर रखें। सुबह मंजन करने के बाद यह पानी मुंह में भरकर रखें। थोड़ी देर बाद निकाल दें। इससे दांत व मसूड़े वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं। इससे अरुचि, मुख की दुर्गंध व मुंह के छाले नष्ट होते हैं।

— त्रिफला के गुनगुने काढ़े में शहद मिलाकर पीने से मोटापा कम होता है। त्रिफला के काढ़े से घाव धोने से एलोपैथिक – एंटिसेप्टिक की आवश्यकता नहीं रहती। घाव जल्दी भर जाता है।

— गाय का घी व शहद के मिश्रण (घी अधिक व शहद कम) के साथ त्रिफला चूर्ण का सेवन आंखों के लिए वरदान स्वरूप है।

— संयमित आहार-विहार के साथ इसका नियमित प्रयोग करने से मोतियाबिंद, कांचबिंदु-दृष्टिदोष आदि नेत्र रोग होने की संभावना नहीं होती।

— मूत्र संबंधी सभी विकारों व मधुमेह में यह फायदेमंद है। रात को गुनगुने पानी के साथ त्रिफला लेने से कब्ज नहीं रहती है।

— मात्रा : 2 से 4 ग्राम चूर्ण दोपहर को भोजन के बाद अथवा रात को गुनगुने पानी के साथ लें।

— त्रिफला का सेवन रेडियोधर्मिता से भी बचाव करता है। प्रयोगों में देखा गया है कि, त्रिफला की खुराकों से गामा किरणों के रेडिएशन के प्रभाव से होने वाली अस्वस्थता के लक्षण भी नहीं पाए जाते हैं। इसीलिए त्रिफला चूर्ण आयुर्वेद का अनमोल उपहार कहा जाता है।

सावधानी : दुर्बल, कृश व्यक्ति तथा गर्भवती स्त्री को एवं नए बुखार में त्रिफला का सेवन नहीं करना चाहिए।

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अशोकारिष्ट

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जो स्त्रियों के समस्त शोकों (रोगों) को दूर रखता है, वह वृक्ष दिव्य औषधि अशोक कहलाती है। नारी स्वास्थ्य के परम मित्र अशोक वृक्ष की छाल का मुख्य घटक के रूप मे प्रयोग कर “अशोकारिष्ट” बनाया जाता है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ “भैषज्य रत्नावली” के अनुसार अशोकारिष्ट रक्तप्रदर, ज्वर, रक्तपित्त, रक्तार्श (खूनी बवासीर), मन्दाग्नि, अरुचि, प्रमेह, शोथ आदि रोगों को नष्ट करता है। गर्भाशय को बलवान बनाने और गर्भाशय की शिथिलता से उत्पन्न होने वाले अत्यार्तव विकार ( Polymenorrhea) मे इसका उत्तम उपयोग होता है ।

गर्भाशय के अन्दर के आवरण मे विकृति ( Endometritis), डिम्बवाहिनी ( Fallopian tube) की विकृति, गर्भाशय के मुख (Cervix Uteri) पर, योनि मार्ग मे, गर्भाशय के अन्दर या बाहर व्रण (घाव) हो जाने से अत्यार्तव रोग उत्पन्न होता है, इसमे यह अशोकारिष्ट उत्तम लाभ करता है। बहुत सी लड़कियों और स्त्रियों को मासिक धर्म के दौरान भयंकर पीड़ा होती हैं, जिसे कष्टार्तव (Dysmenorrhea) कहते हैं। इस रोग के पीछे मुख्यतः डिम्बवाहिनी और डिम्बाशय की विकृति कारण होती है । इसमे कमर मे भयंकर दर्द, उदर पीड़ा, सिरदर्द, उल्टियां आदि कष्ट उत्पन्न होते हैं। इन सभी विकारों मे यह योग अशोकारिष्ट उत्तम लाभ करता है।

भोजनोपरान्त आधा कप पानी मे मिलाकर इसकी 4-4 चम्मच मात्रा दोनो समय लेनी चाहिए।
वर्तमान समय में अधिकांश स्त्रियाँ व लड़कियां प्रदर रोग से ग्रसित रहती है। इसका कारण है – अति सहवास, गर्भस्राव, गर्भपात, अपच, अजीर्ण, कमजोरी, अति परिश्रम, मद्यपान, अधिक उपवास, अधिक शोक, तनाव, चिन्ताग्रस्त रहना, दिन मे शयन, आलस्य, बिलकुल श्रम न करना, तले हुए, खटाई युक्त और तेज मिर्च मसालेदार पदार्थों का अति सेवन, इन सब कारणों से स्त्रियो के शरीर मे पित्त प्रकोप व अम्लपित्त की स्थिति निर्मित होती है, और इसका प्रभाव रक्त पर होता है, और योनि मार्ग से चिकना, लसदार, चावल के धोवन के समान श्वेत स्राव या पीला, नीला, लाल-काला मांस के धोवन के समान रक्त गिरने लगता है, और उससे दुर्गन्ध आने लगती है, और परिणाम स्वरूप शरीर दर्द, कमजोरी,कमर व पैरो में दर्द, सिरदर्द, चक्कर आना, बेचैनी व कब्ज आदि शिकायतें हो जाती है। इन सब व्याधियों के कारणों को नष्ट करने के लिये यह अशोकारिष्ट उत्तम है—————————————————-

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वायरस

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अष्ठांग आयुर्वेद का एक अंग है- भूत-चिकित्सा जिसमें भूत अर्थात् विषाणु जनित रोगों की चिकित्सा का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। भूत अर्थात् विषाणु को आज का चिकित्सा विज्ञान (virus) के नाम से जानता है। विषाणु जनित रोग भी अनेक हैं, जिसकी औषधिय चिकित्सा अधुनिक चिकित्सा शास्त्रीयों के पास लगभग नहीं है। परंतु वैदिक व पौराणिक काल में यह चिकित्सा आयुर्वेदिक औषधियों तथा मंत्रों के द्वारा सहज ही उपलब्ध थी।

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इस प्रकार के रोगों को जटिल रोगों की श्रेणी में रखा गया है, आज वायरस जनित रोगों के रूप में जिन रोगों को पहचाना जा चुका है उनमें- लीवर के कुछ रोग जैसे- 1. हैपेटाईटस ए, बी, सी, इत्यादि, 2. चेचक या चेचक जैसे रोग- पोक्स, चिकन-पोक्स, चिकन-गुनिया इत्यादि, 3. गलगण्ड, 4. फलू श्रेणी के कुछ रोग जैसे स्वाईन फलू इत्यादि, 5. फाईलेरिया इत्यादि प्रमुख है। और अब एक नया रोग ईबोला सामने आया है।

इस के अतिरिक्त भी अनेक रोग हैं जो कभी-कभी अनुकूल वातावरण मिलने पर तुरंत प्रकट होते हैं। इनमें से अनेक रोग तो ऐसे हैं जो सैकडों वर्षो के बाद तब प्रकट होते हैं जब उनके विषाणुओं को अनुकूल मौसम तथा परिस्थिति मिलती है। इसी लिये ऐसे रोग जब-जब प्रकट होते हैं तब-तब आधुनिक चिकित्सा शास्त्री हैरान व परेशान हो जाते हैं। क्योकि उनके लिये सामान्य रोगों से हटकर यह बिलकुल नये रोग होते हैं। जैसा की गत कुछ वर्षो में नये-नये रोग प्रकट होते दिखाई देते रहे हैं।

आज चिकित्सा विज्ञान ने बेशक अनेक रोगों की चिकित्सा में विशेषकर ऐसे रोग जिनमें शल्यक्रिया की आवश्यकता होती है, के लिये काबिले-तारीफ प्रगति की है। परंतु वहीं यह अधुनिक चिकित्सा विज्ञान अनेक ऐसे विषाणु जनित रोगों से अपरिचित भी है, जिनकी चिकित्सा का वर्णन वेद-पुराणों एवं आयुर्वेद तथा मंत्रशास्त्रों में मिलता है। परंतु इसमें भी कठिनाई यह है कि- यह विवरण तथा उपचार पद्धितियाँ वेदों में, पुराणों में, आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र में, तथा मंत्र-तंत्र के प्राचीन ग्रन्थों में बिखरी हुई हैं। आज आवश्यकता है, इन्हें पहचान कर संकलित करने की और जठिल रोगों की चिकित्सा में इनका प्रयोग करने की। वैदिक तथा पौराणिक काल में अनेक ऐसे विषाणु जनित रोगों की पहचान की गई थी। इन्हीं विषाणु जनित रोगों में से कुछ वह रोग भी हैं जिन्हें आज का चिकित्सा विज्ञान मानसिक रोग मानता है। परंतु स्याने या ओझा तथा आयुर्वेद भी इन रोगों की पहचान भूतरोग (virus) से होने वाले रोगों के रूप में न केवल करता है, अपितु इनकी सफल चिकित्सा भी सुझाता है, यह बात अलग है कि आज उन रोगों की चिकित्सा करने वाले घीरे-धीरे लुप्त हो गये हैं। इनके लुप्त होने का एक कारण यह भी है कि इस चिकित्सा पद्धति को जानने वालों को जादू-टोना कर दूसरों को हानि पहुचाने वाला तांत्रिक माना जाता था, बेशक इनमें से कुछ स्याने इस प्रकार की दुष्प्रवृति वाले रहे होंगे। आज से 50-100 वर्ष पूर्व तक भी इन पद्धतियों को जानने वाले अनेक विद्वान उपलब्ध थे। जिन्हें आम लोग अपनी भाषा में स्याना या ओझा कहते थे। यह स्याने मंत्रो के साथ-साथ औषधियों का समुचित ज्ञान भी रखते थे। आज भी इन में से थोड़ी बहुत विद्या जानने वाले इन का सफल प्रयोग ऐसे ही विषाणु जनित रोगों पर किया करते हैं। जैसे- पीलिया रोग का झाड़ा करने वाले स्याने, गलगण्ड तथा फाईलेरिया की मंत्र चिकित्सा करने वाले ओझा और फलू की चिकित्सा करने वाले मांत्रिक।

अनेक मानसिक रोग हैं, जिन्हें आयुर्वेद शास्त्र भूत-चिकित्सा के नाम से पहचानता है, इनमें भी अधिकांश मानसिक रोगों की शिकार महिलायें ही होती हैं, यह वह मातायें बहने होती हैं, जो मासिक के दिनों में सफाई का विशेष ध्यान नहीं रखती हैं। इस प्रकार के भूतों (विषाणुओं) के अनेक नाम भी आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित हैं। इसी प्रकार नवजात शिशुओं को होने वाले कुछ विषाणु जनित रोगों का वर्णन भी इन शास्त्रों में वर्णित हैं। जिनके बचाव तथा उपचार का वर्णन भी सविस्तार मिलता है।

भूत-चिकित्सा हेतु चिकित्सा पद्धतियां?- विषाणु जनित रोगों की चिकित्सा करने वाले विशेषज्ञ जानते थे की किस प्रकार के विषाणु से होने वाले रोग की क्या पहचान है, तथा उस जठिल रोग की चिकित्सा में किस प्रकार की वनौषधि तथा किस प्रकार के मंत्रोपचार और किस तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण से बनने वाले विशेष योग (मुहूर्त) में आरम्भ करनी है, अथवा किस योग मुहूर्त में इनमें से किस प्रकार के रोग की औषधि तैयार की जानी चाहिये। इस प्रकार भूत-चिकित्सा में आयुर्वेद तथा मंत्रशास्त्र के साथ-साथ ज्योतिषीय योगदान भी बराबर का था। वैसे तो इन रोगों के अनेक ज्योतिषीय योग शास्त्रों में वर्णित हैं परंतु अधिकांश विषाणु जनित रोगों के प्रमुख कारक ग्रह शनि-राहु का विशेष योग होता है। इन कष्टसाध्य रोगों का विचार कुण्डली में लग्न, षष्ठ, अष्टम दोनों से, अष्टमात् अष्टम से अर्थात् तृतीय भाव, षष्ठात् षष्ठ अर्थात् एकादश व व्यय स्थान से किया जाता है। इसी प्रकार इन रोगों का उपाय-दवाई निर्माण तथा भक्षण का मुर्हूत चिंतामणि के मतानुसार इस प्रकार है –

भेषऽयं सल्लघुमृदुयरे मूलभे द्वयंगलाने।।
शुक्रेन्द्विज्यें विदि च दिवसे चापि तेषां रवेश्च
शुद्धेरिःफधुनमृतिगृहे सतिथौ नो जनर्भे।।

लघु संज्ञक- हस्त, अश्विनी, पुष्य, मृदु-मृगशीर्ष रेवती, चित्रा, अनुराधा, चरसंक्षक, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और मूल नक्षत्र में तथा द्विस्वभाव लग्न में शुक्र, सोम, गुरू, बुध, और रविवार के दिन में लग्न से सातवें, आठवें व बारहवें भाव शुद्ध हों, जन्म नक्षत्र न हो तथा शुभ तिथि में औषधि (दवाई) का सेवन अथवा निमार्ण करना श्रेष्ठ है। मेरे विचार से आज के समय में सभी विषाणु जनित तथा अन्य रोगों के उपाय में मंत्र सिद्ध कवच (ताबीज) तथा ग्रहों के रत्नादि का धारण करना भी कारगर उपाय हैं।

किस प्रकार की जाती थी इन रोगों की चिकित्सा?-

1. विशेष मंत्रों को जिस साधक ने सिद्ध किया हो ऐसे साधक को अधिकार प्राप्त होता है कि वे उस मंत्र का प्रयोग जन कल्याण के लिये कर सकता है, वह सिद्ध किसी मोरपंखे, झाडू या चक्कू से रोगी पर मंत्र का झाड़ा करता है जिससे विषाणु जनित रोग शीघ्र शांत होते हैं।

2. कम-से-कम 12 वर्ष तक गायत्री साधना करने वाले साधक गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल (मंजे हुये शुद्ध बर्तन में शुद्ध कूपजल या गंगाजल डालकर 11 बार गायत्री मंत्र बोलते हुये उसमें दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली फिराकर रोगी तथा रोगी के कमरे में सर्वत्र छिड़क दें। थोड़ा-थोड़ा, प्रातः संध्या दोनों समय उस व्यक्ति को पिला दें और उसके बिछौनों पर छिड़क दें। उसके कान में गायत्री मंत्र सुनायें। गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित गंगाजल नहाते समय उसके मस्तक पर थोड़ा सा डाल दें।

3. श्रीमद्भागवत गीता का यह श्लोक उसको बार-बार सुनायें और कई कागजों पर लिखकर दीवाल पर टांग दें:-

स्थाने हृषीकेश तब प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो प्रेवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंधा।। (11।36)

इसके द्वारा (उपर्युक्त रीति से) अभिमंत्रित जल भी रोगी को पिलाना चाहिये। किसी मांत्रिक से सिद्ध यंत्र मंगलवार के दिन भोजपत्र पर लाल चंदन से लिखकर (पुरूष हो तो दाहिने हाथ में, स्त्री हो तो बायें हाथ में) चांदी या तांबे के ताबीज में डालकर, धूप देकर बांध दें, और प्रतिदिन गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल उस पर छिड़कते और उसे पिलाते रहें।

4. ऐसे और भी बहुत से मंत्र-यंत्र हैं, जो प्रेत-पीड़ा निवारण के सफल साधन हैं। परन्तु इनके जानकार बहुत कम मिलते हैं, ओर आज कल तो अधिकांश स्थानों पर ठगी भी चलती है। और भी अनेक यंत्र-मंत्र तथा शास्त्रीय उपाय-उपचार हैं, जिनका वर्णन इस छोटे से लेख में करना संभव नहीं है, अतः मंत्र-तंत्र-यंत्र के प्रयोग किसी विश्वास वाले साधक से ही लेने चाहियें जो इस विद्या पर अधिकार रखता हो। जो पाठक श्रद्धा रखते हों वे इस गायत्री सेवक डा. आर. बी. धवन से भी (झाड़ा) मंत्रोपचार के लिये सम्पर्क कर सकते हैं। आयुर्वेद में भूतबाधा की चिकित्सा का उल्लेख विशेष धूपों तथा अर्ध्यों के रूप में भी है, जिनसे यह पीड़ा शीघ्र मिट जाती है। उनका उपयोग भी हानिकर नहीं है, परन्तु उसमें भी जानकार विद्वान की जरूरत तो है ही। ऐसे कई देवस्थान भी हैं, जहाँ जाने से बाधायें दूर होती हैं। महामृत्युंजय मंत्र का जप, श्रीहनुमान चालीसा तथा बजरंग बाण के पाठ से भी भूतबाधा दूर होती है।

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एलर्जी

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“एलर्जी” एक आम शब्द, जिसका प्रयोग हम कभी किसी ख़ास व्यक्ति से मुझे एलर्जी है, के रूप में करते हैं, ऐसे ही हमारा शरीर भी ख़ास रसायन उद्दीपकों के प्रति अपनी असहज प्रतिक्रया को ‘एलर्जी’ के रूप में दर्शाता है।

बारिश के बाद आयी धूप तो ऐसे रोगियों क़ी स्थिति को और भी दूभर कर देती है, ऐसे लोगों को अक्सर अपने चेहरे पर रूमाल लगाए देखा जा सकता है, क्या करें छींक के मारे बुरा हाल जो हो जाता है।

हालांकि एलर्जी के कारणों को जानना कठिन होता है, परन्तु कुछ आयुर्वेदिक उपचार इसे दूर करने में कारगर हो सकते हैं, आप इन्हें अपनाएं और एलर्जी से निजात पाएं।

• नीम चढी गिलोय के डंठल को छोटे टुकड़ों में काटकर इसका रस हरिद्रा खंड चूर्ण के साथ 1.5 से तीन ग्राम नियमित प्रयोग करें, यह पुरानी से पुरानी एलर्जी में रामबाण औषधि है।

• गुनगुने निम्बू पानी का प्रातःकाल नियमित प्रयोग शरीर सें विटामिन- सी की मात्रा की पूर्ति कर एलर्जी के कारण होने वाले नजला-जुखाम जैसे लक्षणों को दूर करता है।

• अदरख, काली मिर्च, तुलसी के चार पत्ते, लौंग एवं मिश्री को मिलाकर बनायी गयी ‘हर्बल चाय’ एलर्जी से निजात दिलाती है।

• बरसात के मौसम में होनेवाले विषाणु (वायरस) संक्रमण के कारण ‘फ्लू’ जनित लक्षणों को नियमित ताजे चार नीम के पत्तों को चबा कर दूर किया जा सकता है।

• आयुर्वेदिक औषधि सितोपलादि चूर्ण’ एलर्जी के रोगियों में चमत्कारिक प्रभाव दर्शाती है।

• नमक पानी से ‘कुंजल क्रिया’ एवं ‘नेती क्रिया’ कफ दोष को बाहर निकालकर पुराने से पुराने एलर्जी को दूर कने में मददगार होती है।

• पंचकर्म की प्रक्रिया ‘नस्य’ का चिकित्सक के परामर्श से प्रयोग ‘एलर्जी’ से बचाव ही नहीं इसकी सफल चिकित्सा है।

• प्राणायाम में ‘कपालभाती’ का नियमित प्रयोग एलर्जी से मुक्ति का सरल उपाय है।

कुछ सावधानियां जिन्हें अपनाकर आप एलर्जी से खुद को दूर रख सकते हैं : –

• धूल, धुआं एवं फूलों के परागकण आदि के संपर्क से बचाव।

• अत्यधिक ठंडी एवं गर्म चीजों के सेवन से बचना।

• कुछ आधुनिक दवाओं जैसे : एस्पिरीन, निमासूलाइड आदि का सेवन सावधानी से करना।

• खटाई एवं अचार के नियमित सेवन से बचना।

हल्दी से बनी आयुर्वेदिक औषधि :- हरिद्रा खंड के सेवन से शीतपित्त, खुजली, एलर्जी, और चर्म रोग नष्ट होकर देह में सुन्दरता आ जाती है। बाज़ार में यह ओषधि सूखे चूर्ण के रूप में मिलती है। इसे खाने के लिए मीठे दूध का प्रयोग अच्छा होता है, परन्तु शास्त्र विधि में इसको निम्न प्रकार से घर पर बना कर खाया जाये तो अधिक गुणकारी रहता है। बाज़ार में इस विधि से बना कर चूँकि अधिक दिन तक नहीं रखा जा सकता, इसलिए नहीं मिलता है। घर पर बनी इस विधि से बना हरिद्रा खंड अधिक गुणकारी और स्वादिष्ट होता है। कई सालो से चलती आ रही एलर्जी, या स्किन में अचानक उठाने वाले चकत्ते, खुजली इसके दो तीन माह के सेवन से हमेशा के लिए ठीक हो जाती है। इस प्रकार के रोगियों को यह बनवा कर जरुर खाना चाहिए, और अपने मित्रो कोभी बताना चाहिए, यह हानि रहित निरापद बच्चे बूढ़े सभी को खा सकने योग्य है, जो नहीं बना सकते वे या शुगर के मरीज, कुछ कम गुणकारी, चूर्ण रूप में जो की बाज़ार में उपलब्ध हे का सेवन कर सकते हैं।

हरिद्रा खंड निर्माण विधि :-

सामग्री – हरिद्रा -320 ग्राम, गाय का घी – 240 ग्राम, दूध – 5 किलो, शक्कर -2 किलो।
सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, तेजपत्र, छोटी इलायची, दालचीनी, वायविडंग, निशोथ, हरड, बहेड़ा, आंवले, नागकेशर, नागरमोथा, और लोह भस्म, प्रत्येक 40-40 ग्राम (यह सभी आयुर्वेदिक औषधि विक्रेताओ से मिल जाएँगी), आप यदि अधिक नहीं बनाना चाहते तो हर वस्तु अनुपात रूप से कम की जा सकती है। (यदि हल्दी ताजी मिल सके तो 1 किलो 250 ग्राम लेकर छीलकर मिक्सर पीस कर काम में लें)

बनाने की विधि – हल्दी को दूध में मिलाकार खोया या मावा बनाये, इस खोये को घी डालकर धीमी आंच पर भूने, भुनने के बाद इसमें शक्कर मिलाये, सक्कर गलने पर शेष औषधियों का कपड छान बारीक़ चूर्ण मिला देवें। अच्छी तरह से पाक जाने पर चक्की या लड्डू बना लें।

सेवन की मात्रा – 20-25 ग्राम दो बार दूध के साथ।
(बाज़ार में मिलने वाला हरिद्रखंड चूर्ण के रूप में मिलता है, इसमें घी और दूध नहीं होता, शकर कम या नहीं होती अत : खाने की मात्रा भी कम 3 से 5 ग्राम दो बार रहेगी)।

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सुश्रुतसंहिता

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शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के पितामह और सुश्रुतसंहिता के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व काशी में हुआ था। सुश्रुत का जन्म विश्वामित्र के वंश में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की थी।

सुश्रुतसंहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसमें शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। आठवीं शताब्दी में सुश्रुतसंहिता का अरबी अनुवाद किताब-इ-सुश्रुत के रूप में हुआ। सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी।

एक बार आधी रात के समय सुश्रुत को दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। उन्होंने दीपक हाथ में लिया और दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी। उस व्यक्ति की आंखों से अश्रु-धारा बह रही थी और नाक कटी हुई थी। उसकी नाक से तीव्र रक्त-स्राव हो रहा था। व्यक्ति ने आचार्य सुश्रुत से सहायता के लिए विनती की। सुश्रुत ने उसे अन्दर आने के लिए कहा। उन्होंने उसे शांत रहने को कहा और दिलासा दिया कि सब ठीक हो जायेगा। वे अजनबी व्यक्ति को एक साफ और स्वच्छ कमरे में ले गए। कमरे की दीवार पर शल्य क्रिया के लिए आवश्यक उपकरण टंगे थे। उन्होंने अजनबी के चेहरे को औषधीय रस से धोया और उसे एक आसन पर बैठाया। उसको एक गिलास में शोमरस भरकर सेवन करने को कहा और स्वयं शल्य क्रिया की तैयारी में लग गए। उन्होंने एक पत्ते द्वारा जख्मी व्यक्ति की नाक का नाप लिया और दीवार से एक चाकू व चिमटी उतारी। चाकू और चिमटी की मदद से व्यक्ति के गाल से एक मांस का टुकड़ा काटकर उसे उसकी नाक पर प्रत्यारोपित कर दिया। इस क्रिया में व्यक्ति को हुए दर्द का शौमरस ने महसूस नहीं होने दिया। इसके बाद उन्होंने नाक पर टांके लगाकर औषधियों का लेप कर दिया। व्यक्ति को नियमित रूप से औषाधियां लेने का निर्देश देकर सुश्रुत ने उसे घर जाने के लिए कहा।

सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ऑपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डी का पता लगाने और उनको जोड़ने में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे। सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे।
उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शरीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे। सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। उन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर संरचना, काया-चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी। कई लोग प्लास्टिक सर्जरी को अपेक्षाकृत एक नई विधा के रूप में मानते हैं। प्लास्टिक सर्जरी की उत्पत्ति की जड़ें भारत की सिंधु नदी सभ्यता से 4000 से अधिक साल से जुड़ी हैं। इस सभ्यता से जुड़े श्लोकों को 3000 और 1000 ई.पू. के बीच संस्कृत भाषा में वेदों के रूप में संकलित किया गया है, जो हिन्दू धर्म की सबसे पुरानी पवित्र पुस्तकों में में से हैं। इस युग को भारतीय इतिहास में वैदिक काल के रूप में जाना जाता है, जिस अवधि के दौरान चारों वेदों अर्थात् ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद को संकलित किया गया। चारों वेद श्लोक, छंद, मंत्र के रूप में संस्कृत भाषा में संकलित किए गए हैं और सुश्रुत संहिता को अथर्ववेद का एक हिस्सा माना जाता है।

सुश्रुत संहिता, जो भारतीय चिकित्सा में सर्जरी की प्राचीन परंपरा का वर्णन करता है, उसे भारतीय चिकित्सा साहित्य के सबसे शानदार रत्नों में से एक के रूप में माना जाता है। इस ग्रंथ में महान प्राचीन सर्जन सुश्रुत की शिक्षाओं और अभ्यास का विस्तृत विवरण है, जो आज भी महत्वपूर्ण व प्रासंगिक शल्य चिकित्सा ज्ञान है। प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है- शरीर के किसी हिस्से की रचना ठीक करना। प्लास्टिक सर्जरी में प्लास्टिक का उपयोग नहीं होता है। सर्जरी के पहले जुड़ा प्लास्टिक ग्रीक शब्द प्लास्टिको से आया है। ग्रीक में प्लास्टिको का अर्थ होता है बनाना, रोपना या तैयार करना। प्लास्टिक सर्जरी में सर्जन शरीर के किसी हिस्से के उत्तकों को लेकर दूसरे हिस्से में जोड़ता है। भारत में सुश्रुत को पहला सर्जन माना जाता है। आज से करीब 2500 साल पहले युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनकी नाक खराब हो जाती थी, आचार्य सुश्रुत उन्हें ठीक करने का काम करते थे।

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मोटापा

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आयुर्वेद और मोटापा :-

मानव समुदाय के सामने मोटापा आज एक विचित्र महामारी के रूप में उभरा है। यह वैयक्तिक ही नहीं, वरन् चिकित्सा जगत एवं सभ्य समाज के लिये एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है। खान-पान के तौर-तरीके, रहन-सहन के ढंग, आरामतलबी आदि शरीर में अतिरिक्त चर्बी बढ़ाने के प्रमुख कारण हैं। कभी यह रोग मध्य वर्ग के नर-नारियों में ही यदा-कदा देखा जाता था, लेकिन आज युवा पीढ़ी के साथ ही बच्चे भी थुलथुलेपन के शिकार होते जा रहे हैं। आँकड़े बताते हैं कि इन दिनों विश्व भर में तीस करोड़ से अधिक लोग मोटापे या स्थूलता से त्रस्त हैं। यह एक ऐसा महारोग है, जो शरीर को बेडौल व थुलथुला तो बनाता है, साथ ही इसके कारण उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, हृदयरोग, अनिद्रा, दमा, हड्डियों की बीमारी, हाॅर्मोन असंतुलन, शारीरिक अपंगता जैसी कितनी ही बीमारियाँ पैदा होती चली जा रही हैं। इसके कारण अधिकांश व्यक्ति असमय ही काल-कवलित होते देखे जाते हैं।

आयुर्वेद शास्त्रों में मोटापे को मेदरोग या स्थौल्य रोग (स्थूलता) कहते हैं। चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 21/9 के अनुसार
‘‘जिस रोग में मेद और माँस धातु की अतिवृद्धि होकर नितंब, उदर एवं वक्ष प्रदेश मोटे हो जाते हैं, और लटक जाते हैं तथा चलने-फिरने पर हिलते-डुलते रहते हैं, अंग-प्रत्यंगों में मेद या वसा-संचय के कारण उनकी वृद्धि समुचित रूप से नहीं होती है, तथा कार्यक्षमता में कमी आ जाती है, ऐसे व्यक्ति को अतिस्थूल या मोटा व्यक्ति कहते हैं। खान-पान में असंयम एवं अनियमितता के कारण शरीर में जब अनावश्यक रूप से अत्याधिक मात्रा में मेद या वसा जमा हो जाती है, तब व्यक्ति मोटा हो जाता है।’’
जब हम रोग आवश्यकता से अधिक मात्रा में एवं बार-बार उच्च कैलोरियुक्त आहार ग्रहण करते हैं, जिसमें ग्लूकोज या कार्बोहाइड्रेट तथा चिकनाई युक्त पदार्थ सम्मिलित हैं, तो यह अतिरिक्त चर्बी त्वचा एवं शरीर के अन्य अंग-अवयवों के अंदरूनी भाग, पेट और माँसपेशियों के बीच में जमा होती जाती हैं, और हमारा शरीर मोटा और बेडौल बन जाता है। इसे ही मोटापा या मेद या स्थौल्य कहते हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञानी इसे ही ओबेसिटी कहते हैं। यह लैटिन शब्द ओबेसस से बना है, जिसका अर्थ है-अधिक खाना। अपने शब्दार्थ में ही यह बीमारी इस रहस्य को समाहित किये हुये है, कि जरूरत से ज्यादा खाने से मोटापा बढ़ता है। चिकित्सा विज्ञान की भाषा में यह वह अवस्था है, जिसमें शरीर में अत्याधिक वसा का संचय हो जाता है।

आधुनिक चिकित्सा शास्त्र के अनुसार स्थूलता या मोटापा उसे कहते हैं, जिसमें आयु एवं ऊँचाई के हिसाब से शरीर का जितना भार होना चाहिये, उससे दस प्रतिशत अथवा उससे अधिक भार हो। वस्तुतः मोटापे की शुरूआत पेट से होती है, क्योंकि मेद सभी प्राणियों के पेट और अस्थि में रहता हैं। मेद वृद्धि में सबसे पहले तोंद बढ़ती है, तत्पश्चात कूल्हे, गर्दन, कपोल, बाँहें, जंघा आदि में वसा की मोटी परत जमा होती जाती है, और मनुष्य को स्थूल एवं बेडौल बना देती है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार मेद या चर्बी बढ़ने के कारण सब धातुओं के मार्ग बंद हो जाते हैं, जिससे शरीर स्थित दूसरी धातुओं – अस्थि, मज्जा, वीर्य आदि का पोषण नहीं हो पाता, केवल मेद या चर्बी ही बढ़ती रहती है। इसके बढ़ने से व्यक्ति सभी कार्यों को करने में अशक्त हो जाता है।

मोटापा मनुष्य के स्वस्थ जीवन के लिये अभिशाप है। आयुर्वेद शास्त्रों में जिन आठ प्रकार के शरीर वाले व्यक्तियों को निंदनीय माना गया है, उनमें अति कृशकाय एवं अति स्थूल व्यक्तियों की गणना प्रमुख रूप से की गई है। चरक संहिता, सूत्र स्थानम् – 21/1-2 में कहा गया है – तत्रातिस्थूल कृशयोर्भूयएवापरे निंदितविशेषा भवंति। अर्थात् इन आठ प्रकारों में अधिक मोटा एवं अधिक दुबला-कृशकाय व्यक्ति विशेष निंदा के पात्र हैं। इतने पर भी तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनों में कृशकाय व्यक्ति को फिर भी अच्छा मानते हुये इसी ग्रंथ में आगे कहा गया है –

स्थौल्यकाश्र्ये वरं काश्र्ये समोपकरणौ हितौ।
यद्युभौ व्याधिरागच्छेत्स्थूलमेवातिपीड्येत्।।

अर्थात- अधिक मोटे और अधिक कृशकाय व्यक्तियों में मोटापे अपेक्षा कृशता-दुबलापन फिर भी अच्छा है, क्योंकि दोनों के उपकरण समान होने पर भी स्थूलकाय मनुष्य को रोगग्रस्त होने पर अधिक कष्ट सहन करना पड़ता हैं, मोटे व्यक्तियों की जीवनावधि भी घट जाती है। जन समुदाय में सम्मान की दृष्टि से भी वे तुलनात्मक दृष्टि से पिछड़े ही माने जाते हैं। सुश्रुत संहिता में उल्लेख है – कृशः स्थूलात् पूजितः। अर्थात स्थूल की अपेक्षा दुबला-पतला आदमी अधिक सम्मान के योग्य है। वस्तुतः मनुष्य अपने उत्तम स्वास्थ्य, प्रबल पराक्रम, प्रखर प्रतिभा एवं उज्जवल चरित्र के कारण समाज में सम्माननीय स्थान पाता है। केवल मोटेपन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। आजकल मोटी लड़कियों को विवाह में भी परेशानी आ रही है।

मोटापे की अकारण ही निंदा नहीं की गई है। स्वास्थ्य का सर्वनाश करने में मोटापा सबसे प्रमुख कारण है। इसके कारण अधिकांश व्यक्तियों को दिल का रोग, उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, पेट व साँस की अनेक बीमारियाँ धर दबोचती हैं। शरीर स्थूल व थुलथुल हो जाने से अधिकतर व्यक्ति आत्महीनता का शिकार बन जाते हैं। वैज्ञानिक परीक्षण बताते हैं कि मोटे एवं तोंदू व्यक्ति में उदर एवं पाचन सम्बंधी गड़बड़ी के साथ ही उसके रक्त में अच्छे कोलेस्ट्राॅल (एच.डी.एल.) की मात्रा कम व बुरे कोलेस्ट्राॅल की मात्रा बढ़ी हुई होती है। बढ़ी हुई यही खराब कोलेस्ट्राॅल (एल.डी.एल.) हाई ब्लड प्रेशर, हार्ट अटैक एवं ब्रेन स्ट्रोक आदि का कारण बनती है। इसके अतिरिक्त इंसुलिन का स्त्राव कम होने से डायबिटीज का खतरा भी बना रहता है। जिन व्यक्तियों में वसा की मोटी परत जमने के कारण शरीर भारी होता है, उन्हें प्रायः कब्ज की शिकायत, गैस, पीठ का दर्द, छोटी साँस, खर्राटे, स्लीप एप्रिया (श्वास-प्रश्वास में रूकावट) आदि रोग होने की संभावना अधिक रहती है। लीवर एवं किडनी भी ऐसे व्यक्तियों में प्रायः ठीक ढंग से काम नहीं करते। अति स्थूलता से शरीर की मेटाबाॅलिक प्रक्रिया दुष्प्रभावित होती है, जिसके कारण प्रजनन हाॅर्मोन में असंतुलन उत्पन्न होता है, और व्यक्ति, जोड़ों का दर्द, अर्थराइटिस, सायटिका, पक्षाक्षात, रीढ़ का दर्द, हार्निया, ओस्टियोपोरोसिस, वेरिकोस वेन्स, रक्त वाहिनियों में रक्त संचरण में बाधा, पथरी आदि बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं।

यों तो मोटापे की सरल पहचान यह है कि यदि व्यक्ति की तोंद वक्षस्थल से ज्यादा उभरी हुई है, तो माना जाना चाहिये कि हम स्थूलता की ओर बढ़ रहे हैं। गर्भवती महिलायें इसकी अपवाद हैं। उदरवृद्धि के अतिरिक्त शिलिलता, गुरूता, स्वेदाधिक्य, क्षुधाधिक्य, अधिक प्यास, निद्राधिक्य, जड़ता, पीड़ा मुखमाधुर्य, मुख-ताजु-कंठ शोथ, अनुत्साह, आलस्य, तंद्रा एवं शरीर से दुर्गंध आना आदि लक्षण इसमें धीरे-धीरे प्रकट होने लगते हैं। शरीर का वजन अधिक बढ़ जाने से कूल्हे, घुटनों एवं टखनों आदि पर सर्वाधिक भार पड़ता है, जिससे जोड़ वाले इन स्थानों पर दर्द शुरू हो जाता है। अति स्थूलता के कारण व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता, सक्रियता और कई बार तो अपना आत्मविश्वास तक खो बैठता है। स्थूलता वृद्धावस्था के शीघ्र आमंत्रण का कारण बनती है। स्थूलता या मोटापा जैसे जीवन शैली रोगों के बढ़ने के कई कारण होते हैं। चरक संहिता, सूत्रस्थानम – 21/3 के अनुसार अधिक तृप्तिकारण, भारी, मीठे, शीतल, चिकनाईयुक्त पदार्थों का सेवन करने से, व्यायाम या परिश्रम न करने से, दिन में सोने से (विशेषकर दोपहर में भोजन करने के तुरंत बाद) तथा आनुवंशिक कारणों से व्यक्ति मोटापे का शिकार बनता है। इससे शरीर में अनावश्यक रूप से वसा इकट्ठी हो जाती है और शरीर थुलथुला बनकर अनेका नेक रोगों का शिकार बन जाता है।

आज की इस सर्वाधिक भयावह एवं नूतन व्याधि – में दो वृद्धि अर्थात मोटापे की समस्या का समाधान खोज रहे पोषण विज्ञानियों एवं चिकित्सा शास्त्रियों ने इनके तीन प्रमुख कारण बतायें है – 1. सहज या आनुवंशिक कारण, 2. आहार-विहारजन्य और, 3. हाॅर्मोन-अंसतुलन। सहज कारण वह है, जो जाति विशेष के अनुसार अथवा आनुवंशिक गुणों के आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाया जाता है। ऐसे लोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक ही होती हैं, मोटोपे का प्रमुख कारण वस्तुतः आधुनिक आरामदायक जीवनशैली का खान-पान (जंकफूड वाला) व रहन-सहन है। अत्याधिक पौष्टिक आहार का सेवन, कुछ-न-कुछ सदैव खाते-पीते रहने की आदत, दिन में सोना एवं शारीरिक श्रम या व्यायाम का अभाव मोटापे के प्रधान कारण हैं। अधिक मात्रा में मक्खन, मलाई, दूध, घी, पनीर का सेवन, मद्यपान, माँसाहार, कोल्ड ड्रिंक्स, फास्टफूड, बर्गर पीजा, आइसक्रीम, पेट्रीस, सैंडविच, काॅफी, बिस्किट्स, चाॅकलेट, केक, एवं मिठाइयाँ आदि के अधिक एवं बार-बार सेवन करने से शरीर में धीरे-धीरे अतिरिक्त चर्बी जमा होने लगती है। आज की इंटरनेट संस्कृति ने इस रोग में और भी वृद्धि की है।
इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति शारीरिक श्रम नहीं करते, व्यायाम आदि से बचते हैं, और गरिष्ठ आहार ग्रहण करते हैं, उनका शरीर भी अतिरिक्त ऊर्जा का संचय वसा के रूप में करता है। फलस्वरूप यही वसा या मेद पेट, कमर, गर्दन, गाल आदि में जमा होकर उन्हें भारी व बेडौल बना देती है। हाॅर्मोन-असंतुलन भी मोटापा बढ़ता है। अंतः स्त्रावी गं्रथियों जैसे – थाइराइड ग्रंथि, पिच्यूटरी ग्रंथि, एड्रनल ग्रंथि आदि से उत्सर्जित होेने वाले हाॅर्मोन रसायनों की विकृति भी एक ऐसी जटिल समस्या है, जो सूलिता उत्पन्न करती है, इसके अतिरिक्त अनेक मानसिक एवं भावनात्मक कारण भी ऐेसे हैं, जो व्यक्ति के हाॅर्मोनल एवं चयापचयी संतुलन गड़बड़ी, अकेलापन, निराशा, अतृप्त आकांक्षांये आदि भावनात्मक कारणों से भी व्यक्ति इसका शिकार बनता है। मानसिक तनाव मोटापा बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाता है। कई बार स्टीराॅयड प्रकृति की औषधियाँ भी शरीर को स्थूल बना देती है।

निदान :-
स्थूलता मिटाने, मोटापा घटाने और शरीर को छरहरा एवं सुडौल बनाने के लिये योग, व्यायाम एवं जिम से लेकर आहार शास्त्रियों एवं चिकित्सा, विज्ञानिकों द्वारा कितने ही नुस्खे एवं औषधि उपचार प्रचलित प्रसारित है। लोग इन्हें आजमाते भी हैं और कुछ दिनों में वजन भी कम कर लेते हैं। लेकिन थोड़े दिनों बाद जरा सी ढ़ील देते ही वही पुरानी स्थिति फिर से आ जाती है, जब व्यक्ति पहले की अपेक्षा अधिक मोटा हो जाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हम कृत्रिम साधनों से अपने शारीरिक वजन को, स्थूलता को नियंत्रित करने का प्रयत्न करते हैं। यदि उचित एवं संतुलित खान-पान, रहन-सहन की आदतों और शारीरिक श्रम, व्यायाम आदि का दैनिक जीवन में समावेश कर लिया जाये तो कोई कारण नहीं कि मोटापे से आसानी से न बचा जा सके।

मोटापा घटाने एवं वजन कम करने के लिये प्रायः डायटिंग या उपवास का सहारा लिया जाता है। महिलाओं में यह प्रचलन विशेष रूप से देखने को मिलता है। लेकिल इस संदर्भ में पोषण विज्ञानियों एवं चिकित्सा – शास्त्रियों द्वारा किये शोध – निष्कर्ष बताते हैं कि छरहरा बनाने इस विद्या को अपनाने से प्रायः लाभ कम, हानि ज्यादा है। लम्बे समय तक डाइटिंग करते रहने से आॅस्टियों पोरोसिस जैसी स्वास्थ्य समस्यायें उठ खड़ी होती हैं।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अति स्थूलता अथवा मोटापा दूर करने के लिये ‘लाइपोसक्षन’ नामक उपचार प्रक्रिया का आश्रय लिया जाता है। इस विधि में डायथर्मी प्रक्रिया द्वारा अथवा एवं मशीन विशेष द्वारा पेट के नीचे जमा हुई वसा की मोटी परत को चूस या सोख लिया जाता है। इसके अलावा सेलोथर्म उपचार, डीपहीट उपचार या गर्म वाष्प स्नान आदि का भी प्रयोग जाता है, पर इन सबके रिबांउड प्रभाव ही होते हैं फिर मोटापा आ घेरता हैै।

भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली में इस महारोग से पिंड छुड़ाने और पूर्ण स्वस्थ जीने के कितने ही उपाय-उपचारों है। इस संदर्भ में देव संस्कृति विश्वविद्यालय एवं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के चिकित्सा-विज्ञानियों ने अपने गहन अध्ययन, अनुसंधान एवं प्रयोग परीक्षणों के आधार पर जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं, उसके सत्परिणाम बहुत ही उत्साह जनक एवं जनोपयोगी सिद्ध हुये हैं। इस उपचार उपक्रम में मुख्य रूप से यज्ञोपचार प्रक्रिया एवं क्वाथ चिकित्सा सम्मिलित हैं। सबसे पहले यहाँ पर मोटापा नाशक विशिष्ट हवन सामग्री का वर्णन किया जा रहा है।

मोटापा नाशक विशिष्ट हवन सामग्री ( इनमें निम्नलिखित वसतुयें समभाग में मिलाई जाती हैं )ः- 1. गिलोय, 2. बायबिडंग, 3. नागरमोथा, 4. चव्य, 5. चित्रक, 6. अरणी (अग्निमंथ), 7. त्रिफला, 8. त्रिकटु, 9. विजयसार, 10. कालीजीरी, 11. लोध्र, 12. अगर, 13. नीम, 14. आम की छाल, 15. अनार की छाल, 16. पुनर्नवा, 17. बाकुची के बीज, 18. गुग्गुल, 19. लोबान, 20. मोचरस, 21. जामुन के पत्ते व बीज, 22. अर्जुन के फल व छाल, 23. कूठ, 24. प्रियंगु, 25. चंदन, 26. नागकेसर, 27. दोनों तरह की तुलसी (रामा और श्यामा), 28. एंरडमूल, 29. अपामार्ग (चिरचिटा या ओंगा), 30. तेजपत्र, 31. मालकांगनी (ज्योतिष्मती) के बीज, 32. सर्पगंधा, 33. जटामांसी, 34. ब्राह्मी, 35. मुलैठी, 36. बच, 37. शंखपुष्पी, 38. पिप्लामूल, 39. पटोलपत्र, 40. देवदार, 41. निर्गुडी, 42. जौ, 43. कपूर, 44. सुगंधबाला, 45. बिल्व, 46. दालचीनी।

उपरोक्त सभी 46 सामग्री को बराबर मात्रा में लेकर साफ-स्वच्छ करके कूट-पीसकर उनका दरदरा जौकुट पाउडर बना लेते हैं और उसे एक डिब्बे में सुरक्षित रख लेते हैं। इस डिब्बे पर ‘मोटापानाशक विशिष्ट हवन सामग्री नं0-2’ का लेबल चिपका देते हैं।

इसी तरह समभाग में 1. अगर, 2. तगर, 3. देवदार, 4. श्वेत चंदन, 5. लाल चंदन, 6. गिलोय, 7. अश्वगंधा, 8. गुग्गुल, 9. लौंग, 10. जायफल आदि को कूट-पीसकर ‘काॅमन हवन सामग्री’ पहले से तैयार रखते हैं। इसमें खाँड़सारी गुड़, गोधृत, जौ आदि भी मिले होते हैं। इसे अलग डिब्बे में रखा जाता है और उस पर ‘काॅमन हवन सामग्री नं0-1’ का लेबल लगा दिया जाता है।

हवन करते समय 50 ग्राम काॅमन हवन सामग्री नं0-1 तथा 50 ग्राम ‘विशिष्ठ हवन सामग्री नं0-2’ को लेकर आपस में अच्छी तरह मिला लेते हैं, तदुपरांत सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं। सूर्य गायत्री मंत्र इस प्रकार है :-

ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि, तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।। स्वाहा।। इदम सूर्याय इदम् न मम्।।

इस महामंत्र से कम-से-कम चैबीस आहुतियाँ अवश्य देनी चाहिये। एक-सौ आठ आहुतियाँ दे सकें, तो और भी अच्छा है। इस क्रम को नित्य प्रातःकाल नियमित रूप से कुछ महीनों तक योग-व्यायाम के साथ करते रहने से शरीर की चर्बी घटने लगती है। शरीर की मांसपेशियाँ, तंत्रिका तंतु, हृदय, फेफड़े आदि अंग अवयव सक्रिय हो उठते हैं और अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य करने लगते हैं।

हवनोपचार के साथ-साथ निम्नलिखित – ‘मेदनाशक क्वाथ’ का भी सेवन करना चाहिये। इस क्वाथ का सेवन करने से अतिस्थूलकाय व्यक्ति भी सामान्य अवस्था में आ जाता है। जिनकी तोंद बढ़ी हुई है, उनके लिये तो यह सर्वाेत्तम उपचार हैं।

मेदनाशक क्वाथ :- (इसमें निम्नलिखित चीजें बराबर-बराबर मात्रा में मिलाई जाती हैं )ः- 1. आँवला, 2. हरड़, 3. बहेड़ा, 4. गिलोय, 5. नागरमोथा, 6. तेजपत्र, 7. चित्रक, 8. विजयसार, 9. हल्दी, 10. अपमार्ग (चिरचिटा) के बीज।
उपरोक्त सभी 10 चीजों को समभाग में लेकर कूट-पीसकर उसका जौकुट कर पाउडर बना लेते हैं, और उसे सुरक्षित डिब्बे में रख लेते हैं।

क्वाथ बनाने की सरल विधि यह है कि इस पाउडर में से पाँच चम्मच (15 ग्राम) पाउडर निकालकर आधा लीटर पानी में स्टील के एक भगोने में डालकर रात में रख देते हैं। सुबह से चूल्हे या गैस बर्नर पर मंदाग्नि पर चढ़ाकर क्वाथ बनने के लिये रख देते हैं। उबलते-उबलते जब चैथाई अंश पानी शेष बचता है, तो उसे बर्नर पर से उतारकर ठंडा होने पर महीन कपड़े में निचोड़कर छान लेते हैं। क्वाथ का आधा भाग सुबह 8 से 10 बजे के बीच खाली पेट एवं आधा भाग शाम को 4 से 6 बजे के बीच सेवन करते हैं। क्वाथ पीते समय उसमें एक चम्मच शहद अवश्य मिला लेना चाहिये। पथ्य-परहेज के साथ नित्य नियमित रूप से इस क्वाथ को शहद के साथ सेवन करने से महीने भर में यह अपना प्रभाव दिखाने लगता है। अनावश्यक स्थूलता घटने लगती है और व्यक्ति कुछ ही दिनों में दुबला हो जाता है। क्वाथ का सेवन भोजन करने से कम से कम एक घंटे पूर्व करना चाहिये। स्थूलता-मोटापा या बढ़ी हुई तोंद से त्रस्त जो लोग तथ्य-परहेज का अक्षरशः पालन नहीं कर सकते, उनके लिये निम्नांकित चूर्ण या पाउडर बहुत ही लाभकारी सिद्ध होता है। क्वाथ के साथ या अकेले ही इसका सेवन करने भोजन करने के बाद जो पोषक तत्व पहले वसा या चर्बी मे बदलकर मोटापा बढ़ा रहे थे, वह प्रक्रिया रूक जाती है और उसके स्थान पर रसरक्त की अभिवृद्धि होने लगती है।

स्थौल्यहर पाउडर :- इसमें निम्नलिखित चीजें मिलाई जाती हैं :- 1. सौंठ 10 ग्राम, 2. पीपल 10 ग्राम, 3. काली मिर्च 10 ग्राम, 4. पिप्लामूल 10 ग्राम, 5. आँवला 10 ग्राम, 6. हरड़ 10 ग्राम, 7. बहेड़ा 10 ग्राम, 8. चव्य 10 ग्राम, 9. चित्रकमूल 10 ग्राम, 10. कालीजीरी 10 ग्राम, 11. बाकुची बीच 10 ग्राम, 12. अपामार्ग के बीज 10 ग्राम, 13. बायबिडंग 10 ग्राम, 14. सेंधा नमक 10 ग्राम, 15. काला या साँचल नमक 10 ग्राम, 16. सादा नमक 10 ग्राम, 17. यवक्षार 19 ग्राम, 18. कांतलौह भस्म 10 ग्राम।

उपरोक्त सभी 18 सामग्री को एक साथ घोट-पीसकर कपड़छान करके एयर टाइट शीशे के बर्तन या प्लास्टिक के डिब्बे में सुरक्षित रख लेना चाहिये। इसमें से नित्य नियमित रूप से आधा ग्राम से एक ग्राम चूर्ण सुबह व आधा ग्राम से एक ग्राम (आधा चम्मच) शाम को, दो चम्मच शहद में अच्छी तरह मिलाकर चाट लें। शहद के अभाव में थोड़े जल के साथ भी ले सकते हैं। कम-से-कम 6 माह तक सेवन करने से उपरोक्त प्रतिफल सामने आने लगते हैं। तोंद घटाने एवं मोटापा दूर करने के लिये योगासन, व्यायाम, खेलकूद, टहलना, बागवानी आदि का क्रम दैनिक जीवन में अवश्य सम्मिलित रहना चाहिये।

दूसरी ओर पथ्य-परहेज का भी पालन करना चाहिये, विशेषकर तब, जब उपरोक्त हवनोपचार एवं क्वाथ सेवन चल रहा हो। उन दिनों जौ की रोटी, दलिया, पुराना बासी चावल, कोदो, साँवां, नीवार, प्रियंगु, कुलथी, चना, मसूर, मूँग, अरहर दाल, खील, शहद, मक्खन निकला हुआ मठ्ठा, बैंगन का भूरता, कच्चा केला, परमल, तोरई, लौकी, पत्तागोभी, चैलाई, पालक, मेथी, अदरक, खीरा, ककड़ी मूलीपत्ता का सलाद, उबली सब्जियाँ, हलका सेंघा नमक, अंगूर, नारंगी आदि लिये जा सकते हैं। भारी, गरिष्ठ, मीठे चिकनाईयुक्त एवं तले-भुने पदार्थ अतथ्य हैं। इनके सेवन से बचना चाहिये। भोजन करने आधा घंटा पहले पानी, पानी भोजन के दौरन न पीकर आधा घंटे बाद पानी मोटापे में बहुत लाभकारी है।

नोट: कोई भी औषधी वैद्य के परामर्श से ही सेवन करें।

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आडू

सेहत के लिए आडू

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आड़ू बहुत रसीला फल है, जो गर्मीयों में पैदा होता है, सेहत के लिए आड़ू बहुत लाभदायक है, इस फल के लाभ अनेक हैं‌, दुनिया के कई देशों में उगाया जाने वाला यह फल लाल से लेकर पीले रंग में उपलब्ध होता है। आड़ू की बाहरी परत बहुत चिकनी और रसदार होती है। (juicy) और ताजे सुगंध वाला यह पीला फल बाहर से देखने में बिल्कुल सेब जैसा दिखाई देता है, लेकिन अंदर के कठोर और बड़े बीज इसे सेब से अलग पहचान देते हैं। आड़ू का उपयोग जैम और जेली बनाने में भी किया जाता है। सेहत के लिए फायदेमंद होने के कारण आड़ू का उपयोग कई रोगों के इलाज में भी किया जाता है। आड़ू में कई पोषक तत्व पाए जाते हैं, आइये जानते है आड़ू के फायदे और आड़ू के नुकसान के बारें में।

आड़ू में पाए जाने वाले पोषक तत्व :-

आड़ू में बहुत ही अधिक मात्रा में पोषक तत्व पाये जाते हैं, जो सेहत के लिए आवश्यक होते हैं। आड़ू विटामिन ए और बीटा-कैरोटीन का बहुत ही बढ़िया स्रोत है। इसमें एस्कार्बिक एसिड पाया जाता है, और विटामिन ई, विटामिन के, विटामिन बी-1 बी-2, बी-3, बी-6 के अलावा यह फोलेट और पेंटोथेनिक एसिड से भरपूर होता है। इसमें कम कैलोरी होती है और कोलेस्ट्रॉल भी कम होता है। इस कारण यह सेहत के लिए अधिक फायदेमंद माना जाता है।

पाचन के लिए आड़ू के फायदे : –

️आड़ू में फाइबर और क्षार (alkeline) की मात्रा बहुत होती है, जिसके कारण यह पाचन क्रिया को बेहतर बनाए रखने में मदद करता है। आड़ू में मौजूद डाइटरी फाइबर पानी को अवशोषित करता है, और पेट की बीमारियों जैसे कब्ज, बवासीर, पेट के अल्सर और गैस की समस्या को दूर करने में मदद करता है। यह आंत से विषाक्त पदार्थों को निकालकर आंत को साफ रखता है, और पेट संबंधी बीमारियों से बचाता है।

मोटापा कम करने में :–

आड़ू में बायोएक्टिव कंपोनेंट पाया जाता है, और यह मोटापे की समस्या से लड़ने में बहुत लाभप्रद होता है। आड़ू में फिनोलिक कंपाउंड पाया जाता है जो सूजनरोधी होता है, और मोटापे की समस्या से लड़ने में मदद करता है, और मेटाबोलिक सिंड्रोम को दूर कर शरीर को गंभीर बीमारियों से बचाता है।आड़ू का उपयोग मोटापे की समस्या दूर किया जा सकता है।

इम्यूनिटी बढ़ाने में :–

आड़ू में एस्कॉर्बिक एसिड (vitamin c) और जिंक भी भरपूर मात्रा में मौजूद होता है, जो इम्यून सिस्टम को बेहतर बनाता है, और शरीर की क्रिया को ठीक रखता है। जिंक और विटामिन सी घाव भरने में सहायक होता है, और संक्रमण से लड़ता है। इसके अतिरिक्त यह सर्दी, मलेरिया, निमोनिया और डायरिया जैसे रोगों को दूर करने में सहायक होता है। इन तत्वों की कमी होने पर शरीर की कई क्रियाओं में की प्रकार की गड़बड़ हो जाती हैं।

आड़ू खाने से कोलेस्ट्रॉल घटता है :–

आड़ू में मौजूद फिनोलिक कंपाउंड एलडीएल नामक खराब कोलेस्ट्रॉल को कम करता है, और अच्छे कोलेस्ट्रॉल एचडीएल को बढ़ाता है। इससे हृदय संबंधी बीमारियां विकसित नहीं होती हैं, और यह कार्डियोवैस्कुलर को स्वस्थ रखने में सहायक होता है।

गर्भावस्था में आड़ू उपयोगी है :–आड़ू में अनेक आवश्यक खनिज तत्व और विटामिन होते हैं, गर्भावस्था में बहुत ही लाभदायक होते हैं। इसमें मौजूद विटामिन सी बच्चे के हड्डियों को शक्तिशाली बनाने, दांत, त्वचा, रक्त वाहिकाएं (blood vessels) और मांसपेशियों को मजबूत बनाने में मदद करता है। यह आयरन का भी अवशोषण करता है, जो गर्भावस्था के दौरान बहुत जरूरी होता है। आड़ू में पाये जाने वाला पोटैशियम आमतौर पर गर्भावस्था में होने वाली थकान से बचाता है।

आड़ू के लाभ मधुमेह में :–

आड़ू में कार्बोहाइड्रेट होता है, जिसे खाने से मधुमेह की समस्या नहीं होती है। एक मध्यम आकार के आड़ू में करीब 15 ग्राम कार्बोहाइड्रेट मिलता है, जो मधुमेह के रोगियों के लिए बहुत लाभदायक होता है। इसके अतिरिक्त आड़ू में और भी लाभदायक पोषक तत्व होते हैं, जो कि स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं।️आड़ू कैंसर से बचाता है :–

आड़ू में कैरोटीनॉयड और फिनोलिक कंपाउंड होता है, जो कैंसर रोधी (anti cancer) का काम करता है, और ब्रेस्ट कैंसर, फेफड़ों का कैंसर, कोलोन कैंसर से हमें बचाता है। इसमें क्लोरोजेनिक और नियोक्लोरोजेनिक एसिड भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जो ब्रेस्ट कैंसर उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं को सामान्य बनाता है। इसके इन्हीं गुणों के कारण कैंसर रोगियों को आड़ू का सेवन करने के लिए कहा जाता है।

आड़ू त्वचा की देखभाल के लिए :–

पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी मौजूद होने के कारण आड़ू त्वचा की देखभाल के लिए अच्छा माना जाता है। यह हानिकारक मुक्त कणों और संक्रमण से लड़ता है। यह यू वी किरणों से भी त्वचा को बचाता है। इसमें जियाजैंथीन और ल्यूटीन नामक एंटीऑक्सीडेंट मौजूद होते हैं, जो त्वचा की सूजन को दूर करने में लाभकारी होता है, आजकल आड़ू का उपयोग चेहरे की क्रीम बनाने में भी किया जाता है।

️आंखों की रोशनी के लिए आड़ू :-

आड़ू बीटा-कैरोटीन से भरपूर होता है, जो शरीर में जाकर विटामिन ए में बदल जाता है। बीटा-कैरोटीन आंखों की रोशनी (eyes sight) को बेहतर बनाने में मदद करता है, और आंखों की बीमारियों जीरोफ्थैलमिया (xerophthalmia) और अंधेपन से बचाता है। इसलिए आंखों की बेहतर रोशनी के लिए आड़ू का सेवन लाभकारी होता है।

️आड़ू बुद्धिवर्धक भी है :-

परीक्षण में पाया गया है कि आड़ू सेंट्रल कोलिनर्जिक सिस्टम को प्रभावी बनाने में लाभप्रद होता है। कोलिनर्जिक सिस्टम दिमाग का न्यूरोट्रांसमीटर सिस्टम होता है, जो की यादाश्त से जुड़ा हुआ होता है। आड़ू में पाये जाने वाले यौगिक अल्जाइमर (Alzheimer ) जैसी दिमाग की बीमारियों को दूर करते हैं, और यादाश्त को दुरूस्त बनता है।

️आड़ू के कुछ नुकसान :–

वैसे तो फलों को कैंसर का रक्षक माना जाता है, लेकिन एक अध्ययन से पता चलता है, कि नारंगी या पीले फल पुरुषों में कोलोरेक्टर कैंसर (colorectal cancer) का कारण हो सकते हैं। इसलिए आड़ू के सेवन से पहले यह ध्यान रखें।

आड़ू छोटी आंत में शर्करा का किण्वन सही तरीके से नहीं कर पाता है, अधिक सेवन की वजह से गैस की समस्या हो जाती है, और सूजन भी हो सकती है।

आड़ू के सेवन से किसी किसी को एलर्जी हो सकती है क्योकि इसमें सैलिसिलेट्स (salicylates) होता है जो एलर्जिक रिएक्शन उत्पन्न कर सकता है।

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मासिक धर्म

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महिलाओं को मासिक धर्म या पीरियड्स 28 दिन में ही क्यों? :-

मासिक धर्म और चन्द्रमा दोनों के 28 दिवसीय चक्र का ज्योतिषीय सम्बन्ध है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 28 नक्षत्र (अभिजित सहित) होते हैं, जब किसी महिला के जन्म समय के नक्षत्र से वर्तमान चन्द्रमा का गोचर 28 नक्षत्रों पर पूर्ण होता है, तो नियमतः मासिक धर्म आरम्भ होता है। वस्तुत: मासिक धर्म महिलाओं के स्वास्थ्य का सूचक तंत्र है। जिसका ज्योतिषीय संबंध चंद्रमा ग्रह से होता है। इस चक्र में अनियमितता की वजह से महिलाओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जहां कुछ महिलाओं को पीरियड देरी से आते हैं तो, वहीं कुछ महिलाओं को मासिक चक्र पूरा होने से पहले ही पीरियड आ जाता है। समय से और नियमित माहवारी आना महिलाओं की सेहत के लिए बहुत अच्‍छा होता है। यदि कोई महिला लगातार अनियमित माहवारी का सामना कर रही है तो, उसको सावधान रहने की जरुरत है। अपने कुंडली के चंद्रमा और मंगल ग्रह पर विशेष ध्यान देना चाहिए। आइए जानते हैं आखिर क्‍यों कई बार महिलाओं को अनियमित मासिक धर्म जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

एक या दो दिन देरी से पीरियड आना या जल्‍दी आना फिर भी सामान्‍य सी बात है। मासिक धर्म का च‍क्र 28 दिनों का होता है। अगर पीरियड एक हफ्ते देरी से आते हैं या पहले ही आते हैं तो यह महिला के लिए चिंताजनक स्थिति है, और इस अवधि में महिलाओं को असहनीय दर्द भी सहना पड़ता है। यहां हम बता रहे हैं कि जल्‍दी और देरी से मासिक धर्म आने का कारण क्‍या है? क्‍या यह स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्‍याएं पैदा कर सकता है?

1. हार्मोनल असंतुलन :- यदि आपके पीरियड अनियमित हैं तो आपको जांच करने की जरुरत है कि कहीं हार्मोन में तो कुछ गड़बड़ नहीं हैं, क्‍योंकि हार्मोन अंसतुलन होने की वजह इसका असर सीधा मासिक धर्म में पड़ता है। एन्डोमीट्रीओसिस एंडोमीट्रीओसिस एक ऐसी स्थिति होती है, जहां गर्भाशय, योनि की दीवारों और फैलोपियन ट्यूबों के अस्तर में एक ऊतक का विकास होता है। जिसकी वजह से मासिक धर्म में अनियमिताएं होती हैं।

2. पोषक तत्वों की कमी :- पौषण की ओर ध्यान देना भी नि‍यमित मासिक धर्म के लिए आवश्यक है। यदि शरीर में निश्चित पोषक तत्‍वों की कमी होने लगती है तो भी इसका असर मासिक धर्म में दिखाई देता है।

3. तनाव :- कभी कभी स्‍ट्रेस का असर भी महिलाओं के मासिक धर्म पर देखने पर मिलता है। जब कोई महिला तनाव में होती है तो शरीर से कॉर्टिसॉल और एड्रेनालाईन हार्मोन शरीर से निकलते हैं, जिसके वजह से मासिक धर्म इफेक्‍ट होते हैं,
थाईराइड की समस्‍या चाहे हाइपरथायरॉडीज या हाइपोथायरायडिज्म हो, दोनों ही मामलों में मासिक धर्म के चक्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। थाइराइड का स्‍तर ज्‍यादा हो या कम लेकिन ये मासिक धर्म के लिए बिल्‍कुल भी ठीक नहीं है। हार्मोन्‍स की गड़बड़ी या असंतुलन की वजह से होता है। इस सिंड्रोम की वजह से ऑवरीज में अंडों का विकास होने में असफल हो जाता है। जिसकी वजह से मासिक धर्म में समस्‍या होती है। और संतान होने में भी समस्या आती है, जिसे आप दैनिक दिनचर्या में सुधार कर ठीक कर सकते हैं।

उपचार :-

1. कैल्शियम की मात्रा को संतुलित करें क्योंकि इसका सम्बन्ध चंद्रमा से है। माँ से संबंध मधुर रखें, पानी अपने वजन के अनुसार पियें। फ्रीज़ का सामान नहीं लें।

2. अपने क्रोध पर नियंत्रण रखें। भाई से संबंध मधुर रखें, क्योंकि रक्त का संबंध मंगल से है, मासिक में रक्त डिस्चार्ज होता है।

3. लाल मिर्च व खट्टा नहीं खायें और न ही लाल वस्त्र पहनें।क्योकि इससे क्रोध बड़ेगा।

4. सोना नहीं पहने, चाँदी के आभूषणों का प्रयोग अधिक किया करें।

5. पीले वस्त्र अधिक धारण करें, हल्दी मिश्रित दूध का सेवन किया करें।

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