त्रिदोष का अर्थ है वात, पित्त और कफ। इन्हीं तीन तत्त्वों पर सारी आयुर्वेदिक चिकित्सा अधिष्ठित है। उन दिनों रोग भी आज की भाँति नित्य नये पैदा नहीं होते थे; प्रत्युत वे सीमित थे। सामान्यतः समग्र मानवजाति सुखी पायी जाती थी। रोग का मूल कारण मिथ्या आहार और विहार माना जाता था। सर्वसाधारण मानव विवेक पूर्वक इससे बचता था, जिससे उस पर रोग का आक्रमण बहुत कम होता था। समग्र वैद्यक विज्ञान चिकित्सा शास्त्र इसी त्रिदोष- सिद्धान्त पर चलता रहा। भारत का यह सुविचारित त्रिदोष-सिद्धान्त सर्वप्रथम यहाँ से ईरान पहुँचा, ईरान से अरब और वहाँ से मिस्र देश गया। सम्राट् सिकन्दर भी लौटते समय अपने साथ यहाँ के वैद्यों को लेता गया। इस प्रकार सुदूर अतीत में सारी चिकित्सा-व्यवस्था त्रिदोष-सिद्धान्त पर ही चलती रही।
समय बदला और यहाँ मुस्लिम शासकों का साम्राज्य चला, जिसके फलस्वरूप यहाँ की असंख्य बहुमूल्य पुस्तकों की शिक्षा को परिवर्तित किया गया, जिनमें आयुर्वेद के भी अनेक ग्रन्थ-रत्न थे। फिर भी उस काल में चिकित्सा- व्यवस्था त्रिदोष-सिद्धान्त को छोड़ कर परिवर्तित की गई। वात, पित्त और कफ के साथ रक्त को भी जोड़ कर इसके मौलिक तत्त्व सफरा, बलगम और खून ही माने जाते रहे। अर्थात त्रिदोष-सिद्धान्तानुसारी चिकित्सा-व्यवस्था ठीक से नहीं चल पायी। उन दिनों वायु का प्रकोप होने पर अजवाइन पीस-छौंक कर पिला दी जाती थी। कफ का प्रकोप होने पर थोड़े से दूध में हल्दी मिलाकर कर पिलायी जाती और पित्त का प्रकोप होने पर धान्यपंचक का काढ़ा पिलाया जाता या मिश्री खिलायी जाती थी। लोग मलेरिया में सुदर्शन चूर्ण की फंकी लगवाते और पित्त का शमन करवाते थे।
चिरायता और हरड़ का क्वाथ दिया जाता था। सनाय की फंकी फँकवायी जाती थी। आँखों के लिये त्रिफला का उपयोग किया जाता था। सोंठ तो नित्य की घरेलू दवा ही बन गयी थी। पिपरामूल का भी प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार घरेलू उपचारों से ही वात, पित्त, कफ को संतुलित और समान्य स्थिति में बनाये रखा जाता था। भाव यह है कि इन त्रिदोषों का वैषम्य ही समस्त रोगों की जड़ है। तत्कालीन वैद्यों को ही नहीं, अनेक घरों के अनुभवी बड़े-बूढ़ों और वृद्धाओं को इन मौलिक तत्त्वों के-त्रिदोष का अच्छा ज्ञान रहता था। सन् 1920 तक यही स्थिति बनी रही। उस सन् में जब प्लेग का राष्ट्रव्यापी आक्रमण हुआ, तब भी त्रिदोषवाद का ही बोलबाला था। किंतु जैसे-जैसे तथाकथित नवीन विज्ञान बढ़ने लगा, इस त्रिदोष-सिद्धान्त की हँसी भी उसी अनुपात में उड़ाई जाने लगी।
त्रिदोष का परिहास करते हुए कहा जाने लगा कि वायु तो ‘गैस’ है। पित्त को बाईल और कफ को आँव स्थान पर ‘बैक्टिरिया’ वाद प्रारम्भ हो गया और चिकित्सा भी जादू की छड़ी बन गयी। सन् 1935 के पश्चात् तो उत्तरोत्तर इस नवीन विज्ञान का प्रभाव अधिकाधिक बढ़ने लगा। लोग ‘लंघन’ या उपवास को, जिसे प्रभावकारी रसायन या मात्रा माना जाता था, भूल गये और ‘कर्षण’ चिकित्सा के स्थान पर ‘तर्पण’ चिकित्सा की नींव सुदृढ़ हो गयी। कहा जाने लगा कि शरीर में शक्ति रहने पर ही तो रोग को मिटाया जा सकता है? खाने को न दिया जायेगा तो बेचारा रोगी बे मौत ही मर जायेगा। इस तरह के और ऐसे ही अन्य कुतर्क भी प्रस्तुत कर ‘कर्षण’ के स्थान पर ‘तर्पण’- चिकित्सा चलाते हुए इस नवीन विज्ञान द्वारा ‘त्रिदोषवाद’ को खड्डे में ढकेल दिया गया। अब तो औषधियाँ विदेश से बनकर आने लगी हैं। ‘यस्य देशस्य यो जन्तुस्तज्जं तस्यौषधं हितम्’-‘रोगी जिस देश का हो, औषध भी उसी देश की उसके लिये हितकारी होती है’-यह सूत्र भी भुला दिया गया। अंधाधुंध जंगल काटे जाने लगे और यहाँ तक की अनेक रोग-निवारक ओषधियाँ और वनस्पतियाँ मिट्टी में मिला दी गयीं। फिर भी ध्यान देने की बात है कि जैसे मानव की छाया उससे अलग नहीं की जा सकती, वैसे ही ‘त्रिदोषवाद’ भी मानव से कभी दूर नहीं किया जा सकता। ताने-बाने की भाँति वह मानवीय जीवन से पूर्णरूप से जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार पंचतत्त्वों के बीच पृथ्वीतत्त्व को हम भली-भाँति पहचानते हैं। इसी प्रकार वात-पित और कफ का संतुलन भी शरीर में आवश्यक है। जब इन का संतुलन रहता है तभी शरीर की यह मशीनरी स्वाभाविक रूप में चलती है, किंतु जब ये तीनों विषमावस्था में आ जाते हैं, तब इस शरीर रूपी मशीन के चलने में अवरोध आ जाता है। मुख्यतः इस शरीर-मशीन को चलाने वाला तत्त्व है अग्नि या पित्त। यह अग्नि दो प्रकार की है-एक धातु-अग्नि और दूसरी जठराग्नि, जो पेट के भीतर रहती है। यही जठराग्नि मानव द्वारा खाये हुए पदार्थों का पक्व रस बनाकर शरीर को गतिशील बनाती है। यह अग्नि जलाकर राख न कर डाले, इसके लिये उसके शमनार्थ कफ (जल) तत्त्व है और पित्त प्रवाही है। उष्ण द्रवरूप और पीले वर्ण का। यह मानव में सत्त्वगुण का उदय करता है। आप नितान्त श्वेत दूध पी लीजिये, परंतु उसमें पित्त के मिल जाने पर दस्त पीले ही होंगे। मानव जब मिथ्या आहार और विहार करने लगता है, तब इन तीनों में न्यूनाधिकता आने से उनकी साम्यावस्था नष्ट हो जाती है, जो उनका ‘प्रकोप’ कहलाता है। ‘प्रकोप’ का स्पष्ट रूप एक उदाहरण से समझाया जा सकता है। मान लीजिये, एक तपेली में एक सेर दूध हो और उसे आग पर गरम करने के लिये रख दें, उसमें उफान आयेगा, दूध अपना स्थान त्याग देगा। इस क्रिया से दूध कुछ बढ़ता नहीं फिर भी उसने अपना स्थान छोड़ दिया। यही प्रकोप है, जिसका मूलस्थान पेडू है। वह वायु यदि वहाँ से ऊपर चढ़ जाय तो उसे ‘वायु का प्रकोप’ कहा जायगा। पहले लोग प्रातःकाल खाली पेट दातून करके दाँत साफ करते और फिर दातून को चीरकर उससे जीभ रगड़कर सारा दूषित कफ बाहर निकाल डालते थे। नित्य प्रातः खाली पेट हरड़ का चूर्ण फाँक कर गरम-गरम पित्त को दस्त के मार्ग से निकाल डालते थे। इसी तरह बस्ति (एनिमा) लेकर दूषित वायु को निकाल डालते थे। इन दैनिक क्रियाओं से प्रातःकाल ही शरीर की चिन्ताएँ दूर हो जाती थीं। त्रिदोषवाद के अनुसार जगत की चिकित्सा-व्यवस्था चलती रही, तब तक मानव सुखी और दीर्घजीवी होते थे और अन्ततः उनका मोक्ष मार्ग भी निरापद् हो जाता था, किंतु जब से ‘तन्तुवाद’ आया और उन्हें मारने की ओषधियाँ खोजी जाने लगीं, तभी से अनिवार्यतः उसके दुष्प्रभाव और उपद्रव भी असीम रूप में बढ़ने लगे हैं।
वायु का प्रकोप और शमन-
प्राकृतिक वेगों की रोकथाम, अधिक मात्रा में भोजन और जागरण, अधिक श्रम, जोर देकर बोलना, लगातार गाड़ी-घोड़ा और रेल-जहाज पर यात्रा, कड़वे, तीखे और रूखे पदार्थों का निरन्तर सेवन, चिन्ता, अधिक स्त्रीसंग, भय, अधिक उपवास, शोक आदि के कारण वायु सदैव अपना स्थान उष्ण, स्थिर, त्याग देता है। उसे पुनः अपने स्थान पर लाने के लिये उष्ण, स्थिर, वृष्य, बल्य, लवणयुक्त, स्वादु और अम्ल पदार्थों का सेवन, तैलमर्दन, धूप-ग्रहण, गरम जल से स्नान, अभ्यंग, बस्ति, आसव सेवन, देहमर्दन, स्नेहन, स्वेदनिष्कासन, नस्य, विश्राम, सेंक आदि क्रियाएँ करनी चाहिये। उससे विकृत वायु का शमन होकर वह अपने नियत स्थान पर लौट आता है। आयुर्वेद में 80 प्रकार के वायु रोग (वात रोग) हैं, आजकल जिसे ‘सर्वाइकल’ के नाम से जाना जाता है वह एक प्रकार का वात रोग है।
पित्त का प्रकोप और शमन-
तीखे, खट्टे, विशेष लवणयुक्त, उष्ण, विदाही और तीक्ष्ण पदार्थ तथा मद्य का सेवन, सूखे शाक का खाना, क्रोध, ताप, अग्नि, भय, श्रम, विषम भोजन आदि से स्थान पर लाने के लिये कड़वे, मीठे, कसैले, शीतल पदार्थों का भोजन, पवन, छाया, जल, चाँदनी (तहखाना), फुहारा, कमल आदि शीतकर वस्तुओं का सेवन, घी-दूध का सेवन, विरेचन, सूखी आदि (सोंठ) के लेप आदि से पित्त पुनः अपने स्थान पर आ जाता और उसका शमन हो जाता है। आज भी पित्त के शमन के लिये अनेक प्रकार के लेप किये जाते हैं। साठी चावल, बथुआ (शाक), मूँग और दूध पित्त के प्रमुख रूप से शामक माने जाते हैं।
कफ का प्रकोप और शमन-
मधुर, ठंडे, भारी, खट्टे, पिच्छिल, स्निग्ध, दूध के बने पदार्थ और ईख का रस सेवन करने, अतितृप्ति, अधिक मीठा खाने, अधिक पानी पीने आदि से कफ की वृद्धि होती है और वह अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र चला जाता है। परिणाम स्वरूप छाती भारी हो जाती है, शरीर श्वेत हो जाता है, खुजली होने लगती है, सदैव आलस छाया रहता है। कफ को पुनः अपने निश्चित स्थान पर लाने के लिये रूक्ष भोजन, क्षार का सेवन, कषाय तिक्त, कटु पदार्थ खाना, व्यायाम, उलटी, गमन (चलना), जागरण, नदीं में तैरना, ताप, विरेचन, स्वेद लाना आदि क्रियाएँ करनी चाहिये। प्राचीन काल में दोषों का प्रकोप होने पर उनके शमन पर ही सर्वाधिक ध्यान दिया जाता था, जैसे विकृत कफ को वमन करवाकर निकाल दिया जाता था, दूषित पित्त को विरेचन करवाकर निकलवा देते थे और प्रकूपित वायु को बस्ति द्वारा शुद्ध करवा दिया था। इस चिकित्सा में रोग या दोष को दबा देने की बात ही नहीं की जाती थी, जबकि आज के डाक्टर ऐन्टीबायोटिक से पित्त को दबा देते हैं जिसके विपरीत प्रभाव भी होते हैं।