Aayurveda : a Veda for Vitality & Life (आयुर्वेद प्राणों का वेद)

हमारा भारत देश कई दृष्टियों से महान है, सबसे पहले यहीं पर सभ्यता का उदय हुआ था। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों की रचना हुई थी। ज्ञान और विज्ञान की पूर्णता तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की थी, पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, कि भारत वर्ष में ही आयुर्वेद का इतना अधिक विकास हुआ, जिससे संसार ने एक स्वर से यह स्वीकार किया की भारतवर्ष प्राणविज्ञान के क्षेत्र में सबसे आगे रहा है, और आयुर्वेद में निहित ज्ञान की समानता नहीं की जा सकती। आधुनिक चिकित्सा भले ही सर्जरी के क्षेत्र मे अधिक महत्त्वपूर्ण और सफल हो, परन्तु रोगों के निर्मूलन (अथवा जड़ से समापन) में अभी तक यह कोरा का कोरा ही है, कुछ एलौपैथिक औषधियों के द्वारा रोगों को कुछ समय के लिए दबा भले ही दिया जाए, परन्तु रोगों को मिटाने की युक्ति या निदान उसके पास नहीं है। आयुर्वेद ‘प्राणों का वेद’ कहा जाता है, हमारे पूर्वजों ने प्रयत्न करके ऐसी वनस्पतियों और जड़ी बूटियों का पता लगाया था, जो अद्भुत और तुरन्त सफलता देने वाली हैं। परन्तु हम उन्हें प्रायः भूल ही चुके है। यदि देखा जाय, तो संसार में कोई ऐसा रोग नहीं, जिनका आयुर्वेदिक पद्वति द्वारा उन्मूलन न किया जा सकता हो, इन जड़ी बूटियों की विशेषता है, कि इनके सेवन से कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता।

अपराजिता-

इसे संस्कृत में ‘विष्णुकान्ता’, हिन्दी में ‘कालीजीरी’ और गुजराती में ‘गरणी’ कहा जाता है, यह एक बहुवर्षिय जीवी वानस्पतिक बेल है, जिसमें पीले फूल लगते हैं, इसके फूल का आकार बड़ा होता है, इसलिए इसे ‘गौकर्णी’ भी कहते हैं। यह जंगल में सामान्यतः प्राप्त हो जाती है, इसके पुष्प बीजों को निकाल कर उसका अवलेह बनाकर नित्य सेवन किया जाए, तो यह पेचिश को समाप्त कर देती है, इसका विशेष गुण यह है, कि यदि शराब की मात्रा ज्यादा लेने से लीवर बढ़ गया या लीवर में सूजन आ गई हो, तो एक-एक चम्मच सात दिन लेने से लीवर की सूजन समाप्त हो जाती है। इसकी जड़ को पीसकर नित्य फंकी लेने से आंखों की ज्योति बढ़ जाती है, और चश्मा उतर जाता है इसके अलावा इसके बीज यकृत, प्लीहा, जलोदर, पेट के कीड़े, आमाशय में सूजन, कफ, स्त्रियों के रोग और क्षय आदि में तुरन्त और आश्चर्यजनक रूप से सफलता देते हैं। इसकी छाल को दूध में पीसकर शहद मिलाकर पीने से गर्भपात रूक जाता है। इसके बीजों को पीसकर लेप करने से अंडकोष की सूजन समाप्त हो जाती है।

अमलतास-

इसे संस्कृत में ‘हेमपुष्पा’ गुजराती में ‘गरमाड़ी’ तथा मराठी में ‘वाहवोह’ कहते है, इसके पेड़ की चैड़ाई लगभग तीन फिट होती है। तथा काले रंग की फलियाँ लगती हैं, इस पेड़ की छाल उतारने पर लाल रंग का रस निकलता है जो की क्षय रोग को दूर करने की क्षमता रखता है। इसके मुकाबले की अन्य कोई वनस्पति नहीं है, इसकी जड़ को दूध में औटाकर सेवन करने से किसी भी प्रकार का क्षय रोग समाप्त हो जाता है। यदि इसकी जड़ को घिस कर दाद पर लगाया जाए, तो कुछ ही दिनों में वह दाद समाप्त हो जाता है। इसकी जड़, छाल, फल-फूल और पत्ते -इन पांचों को जल में पीस कर दाद-खुजली या चर्म विकारों में प्रयोग करने से जादू के समान असर होता है। यदि पेशाब के साथ खून गिरता हो, तो इसका गूदा नाभि पर लेप करने से लाभ होता हैं आंतो के रोग, कुष्ठ, कब्जी, गले की तकलीफ आदि में भी इसकी जड़ महत्त्वपूर्ण औषधि कही गई है।

आंवला-

इसे लगभग सभी भाषाओं में आंवला ही कहते हैं और इसके पेड़ पूरे भारतवर्ष के जंगलों में होते हैं, कोष्ठ बद्धता को मिटाने में यह महत्त्वपूर्ण है। उत्तम पके हुए एक हजार आंवले लेकर एक बड़ी हांडी में भर कर रख दें और उसमें दूध डाल कर हांडी को भर दें। फिर उसे धीरे -धीरे आंच पर पकाकर नीचे उतार दें, इसके बाद 10 तोला ‘त्रिफला’ और 80 तोला ‘मिश्री’ मिला कर अवलेह बना लें, और इसे किसी स्वच्छ पात्र में भर कर रखें। इसका नित्य आधा तोला सेवन करने पर शीघ्र ही व्यक्ति के शरीर की झुर्रियां मिट जाती हैं और उसे नव यौवन प्राप्त हो जाता हैं। यदि जवान पुरूष या स्त्री इसका सेवन करें, तो उसे अत्यधिक पौरूषता, कामेाद्दीप्तता तथा चेहरे की सुन्दरता प्राप्त होती है। यदि आंवले के पानी के साथ शहद और मिसरी मिलाकर लिया जाए, तो श्वेत प्रदर समाप्त हो जाता हैं।