चरक के सूत्र (1)

चरक संहिता का एक सूत्र है – 

इच्छाद्वेषात्मिका तृष्णा सुखदुःखात् प्रवर्तते।तृष्णा च सुखदुःखानां कारणं पुनरूच्यते।।

उपादत्ते हि सा भावान् वेदनाश्रयसंज्ञकान्।स्पृश्यते नानुपादाने नास्पृष्टो वेत्ति वेदना।। (चरक संहिता शारीर स्थान 1/134-135 )

अर्थात: –

सुखों और दुखों से क्रमशः इच्छा और द्वेष स्वरूप तृष्णा की प्रवृत्ति होती है और फिर वही तृष्णा सुखों और दुःखों का कारण बन जाती है।

वही तृष्णा वेदना के आश्रयभूत शरीर और मन को दृढता पूर्वक पकडती है।स्पर्श के कारणभूत तृष्णा के अभाव में शरीर और मन एवं इन्द्रियों का संयोग नहीं होगा तब इनके संयोग के अभाव में अर्थो का संयोग नहीं होगा , अतः वेदना का भी ज्ञान नहीं होगा।

तृष्णा , रज और तम स्वरूप होती है इसी कारण मनुष्य अनेको प्रकार के अच्छे और बुरे कार्य करता है जिसका फल आत्मा भोगता है परिणाम स्वरूप अपने कर्म के फलो को भोगने के लिए बार – बार जन्म – मरण लगा रहता है जिससे दुःख की परम्परा नष्ट नहीं होती , जब तृष्णा आत्मा एवं मन से अलग हो जाती है तब आत्मा का पुनर्जन्म नही होता है।

आयुर्वेद का त्रिदोष सिद्धान्त – Aayurveda Tridosh Principle

Tridosh Vaat Pitt Kaph

Tridosh Vaat Pitt Kaph

त्रिदोष का अर्थ है वात, पित्त और कफ। इन्हीं तीन तत्त्वों पर सारी आयुर्वेदिक चिकित्सा अधिष्ठित है। उन दिनों रोग भी आज की भाँति नित्य नये पैदा नहीं होते थे; प्रत्युत वे सीमित थे। सामान्यतः समग्र मानवजाति सुखी पायी जाती थी। रोग का मूल कारण मिथ्या आहार और विहार माना जाता था। सर्वसाधारण मानव विवेक पूर्वक इससे बचता था, जिससे उस पर रोग का आक्रमण बहुत कम होता था। समग्र वैद्यक विज्ञान चिकित्सा शास्त्र इसी त्रिदोष- सिद्धान्त पर चलता रहा। भारत का यह सुविचारित त्रिदोष-सिद्धान्त सर्वप्रथम यहाँ से ईरान पहुँचा, ईरान से अरब और वहाँ से मिस्र देश गया। सम्राट् सिकन्दर भी लौटते समय अपने साथ यहाँ के वैद्यों को लेता गया। इस प्रकार सुदूर अतीत में सारी चिकित्सा-व्यवस्था त्रिदोष-सिद्धान्त पर ही चलती रही।

समय बदला और यहाँ मुस्लिम शासकों का साम्राज्य चला, जिसके फलस्वरूप यहाँ की असंख्य बहुमूल्य पुस्तकों की शिक्षा को परिवर्तित किया गया, जिनमें आयुर्वेद के भी अनेक ग्रन्थ-रत्न थे। फिर भी उस काल में चिकित्सा- व्यवस्था त्रिदोष-सिद्धान्त को छोड़ कर परिवर्तित की गई। वात, पित्त और कफ के साथ रक्त को भी जोड़ कर इसके मौलिक तत्त्व सफरा, बलगम और खून ही माने जाते रहे। अर्थात त्रिदोष-सिद्धान्तानुसारी चिकित्सा-व्यवस्था ठीक से नहीं चल पायी। उन दिनों वायु का प्रकोप होने पर अजवाइन पीस-छौंक कर पिला दी जाती थी। कफ का प्रकोप होने पर थोड़े से दूध में हल्दी मिलाकर कर पिलायी जाती और पित्त का प्रकोप होने पर धान्यपंचक का काढ़ा पिलाया जाता या मिश्री खिलायी जाती थी। लोग मलेरिया में सुदर्शन चूर्ण की फंकी लगवाते और पित्त का शमन करवाते थे।

चिरायता और हरड़ का क्वाथ दिया जाता था। सनाय की फंकी फँकवायी जाती थी। आँखों के लिये त्रिफला का उपयोग किया जाता था। सोंठ तो नित्य की घरेलू दवा ही बन गयी थी। पिपरामूल का भी प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार घरेलू उपचारों से ही वात, पित्त, कफ को संतुलित और समान्य स्थिति में बनाये रखा जाता था। भाव यह है कि इन त्रिदोषों का वैषम्य ही समस्त रोगों की जड़ है। तत्कालीन वैद्यों को ही नहीं, अनेक घरों के अनुभवी बड़े-बूढ़ों और वृद्धाओं को इन मौलिक तत्त्वों के-त्रिदोष का अच्छा ज्ञान रहता था। सन् 1920 तक यही स्थिति बनी रही। उस सन् में जब प्लेग का राष्ट्रव्यापी आक्रमण हुआ, तब भी त्रिदोषवाद का ही बोलबाला था। किंतु जैसे-जैसे तथाकथित नवीन विज्ञान बढ़ने लगा, इस त्रिदोष-सिद्धान्त की हँसी भी उसी अनुपात में उड़ाई जाने लगी।

त्रिदोष का परिहास करते हुए कहा जाने लगा कि वायु तो ‘गैस’ है। पित्त को बाईल और कफ को आँव स्थान पर ‘बैक्टिरिया’ वाद प्रारम्भ हो गया और चिकित्सा भी जादू की छड़ी बन गयी। सन् 1935 के पश्चात् तो उत्तरोत्तर इस नवीन विज्ञान का प्रभाव अधिकाधिक बढ़ने लगा। लोग ‘लंघन’ या उपवास को, जिसे प्रभावकारी रसायन या मात्रा माना जाता था, भूल गये और ‘कर्षण’ चिकित्सा के स्थान पर ‘तर्पण’ चिकित्सा की नींव सुदृढ़ हो गयी। कहा जाने लगा कि शरीर में शक्ति रहने पर ही तो रोग को मिटाया जा सकता है? खाने को न दिया जायेगा तो बेचारा रोगी बे मौत ही मर जायेगा। इस तरह के और ऐसे ही अन्य कुतर्क भी प्रस्तुत कर ‘कर्षण’ के स्थान पर ‘तर्पण’- चिकित्सा चलाते हुए इस नवीन विज्ञान द्वारा ‘त्रिदोषवाद’ को खड्डे में ढकेल दिया गया। अब तो औषधियाँ विदेश से बनकर आने लगी हैं। ‘यस्य देशस्य यो जन्तुस्तज्जं तस्यौषधं हितम्’-‘रोगी जिस देश का हो, औषध भी उसी देश की उसके लिये हितकारी होती है’-यह सूत्र भी भुला दिया गया। अंधाधुंध जंगल काटे जाने लगे और यहाँ तक की अनेक रोग-निवारक ओषधियाँ और वनस्पतियाँ मिट्टी में मिला दी गयीं। फिर भी ध्यान देने की बात है कि जैसे मानव की छाया उससे अलग नहीं की जा सकती, वैसे ही ‘त्रिदोषवाद’ भी मानव से कभी दूर नहीं किया जा सकता। ताने-बाने की भाँति वह मानवीय जीवन से पूर्णरूप से जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार पंचतत्त्वों के बीच पृथ्वीतत्त्व को हम भली-भाँति पहचानते हैं। इसी प्रकार वात-पित और कफ का संतुलन भी शरीर में आवश्यक है। जब इन का संतुलन रहता है तभी शरीर की यह मशीनरी स्वाभाविक रूप में चलती है, किंतु जब ये तीनों विषमावस्था में आ जाते हैं, तब इस शरीर रूपी मशीन के चलने में अवरोध आ जाता है। मुख्यतः इस शरीर-मशीन को चलाने वाला तत्त्व है अग्नि या पित्त। यह अग्नि दो प्रकार की है-एक धातु-अग्नि और दूसरी जठराग्नि, जो पेट के भीतर रहती है। यही जठराग्नि मानव द्वारा खाये हुए पदार्थों का पक्व रस बनाकर शरीर को गतिशील बनाती है। यह अग्नि जलाकर राख न कर डाले, इसके लिये उसके शमनार्थ कफ (जल) तत्त्व है और पित्त प्रवाही है। उष्ण द्रवरूप और पीले वर्ण का। यह मानव में सत्त्वगुण का उदय करता है। आप नितान्त श्वेत दूध पी लीजिये, परंतु उसमें पित्त के मिल जाने पर दस्त पीले ही होंगे। मानव जब मिथ्या आहार और विहार करने लगता है, तब इन तीनों में न्यूनाधिकता आने से उनकी साम्यावस्था नष्ट हो जाती है, जो उनका ‘प्रकोप’ कहलाता है। ‘प्रकोप’ का स्पष्ट रूप एक उदाहरण से समझाया जा सकता है। मान लीजिये, एक तपेली में एक सेर दूध हो और उसे आग पर गरम करने के लिये रख दें, उसमें उफान आयेगा, दूध अपना स्थान त्याग देगा। इस क्रिया से दूध कुछ बढ़ता नहीं फिर भी उसने अपना स्थान छोड़ दिया। यही प्रकोप है, जिसका मूलस्थान पेडू है। वह वायु यदि वहाँ से ऊपर चढ़ जाय तो उसे ‘वायु का प्रकोप’ कहा जायगा। पहले लोग प्रातःकाल खाली पेट दातून करके दाँत साफ करते और फिर दातून को चीरकर उससे जीभ रगड़कर सारा दूषित कफ बाहर निकाल डालते थे। नित्य प्रातः खाली पेट हरड़ का चूर्ण फाँक कर गरम-गरम पित्त को दस्त के मार्ग से निकाल डालते थे। इसी तरह बस्ति (एनिमा) लेकर दूषित वायु को निकाल डालते थे। इन दैनिक क्रियाओं से प्रातःकाल ही शरीर की चिन्ताएँ दूर हो जाती थीं। त्रिदोषवाद के अनुसार जगत की चिकित्सा-व्यवस्था चलती रही, तब तक मानव सुखी और दीर्घजीवी होते थे और अन्ततः उनका मोक्ष मार्ग भी निरापद् हो जाता था, किंतु जब से ‘तन्तुवाद’ आया और उन्हें मारने की ओषधियाँ खोजी जाने लगीं, तभी से अनिवार्यतः उसके दुष्प्रभाव और उपद्रव भी असीम रूप में बढ़ने लगे हैं।

वायु का प्रकोप और शमन-

प्राकृतिक वेगों की रोकथाम, अधिक मात्रा में भोजन और जागरण, अधिक श्रम, जोर देकर बोलना, लगातार गाड़ी-घोड़ा और रेल-जहाज पर यात्रा, कड़वे, तीखे और रूखे पदार्थों का निरन्तर सेवन, चिन्ता, अधिक स्त्रीसंग, भय, अधिक उपवास, शोक आदि के कारण वायु सदैव अपना स्थान उष्ण, स्थिर, त्याग देता है। उसे पुनः अपने स्थान पर लाने के लिये उष्ण, स्थिर, वृष्य, बल्य, लवणयुक्त, स्वादु और अम्ल पदार्थों का सेवन, तैलमर्दन, धूप-ग्रहण, गरम जल से स्नान, अभ्यंग, बस्ति, आसव सेवन, देहमर्दन, स्नेहन, स्वेदनिष्कासन, नस्य, विश्राम, सेंक आदि क्रियाएँ करनी चाहिये। उससे विकृत वायु का शमन होकर वह अपने नियत स्थान पर लौट आता है। आयुर्वेद में 80 प्रकार के वायु रोग (वात रोग) हैं, आजकल जिसे ‘सर्वाइकल’ के नाम से जाना जाता है वह एक प्रकार का वात रोग है।

पित्त का प्रकोप और शमन-

तीखे, खट्टे, विशेष लवणयुक्त, उष्ण, विदाही और तीक्ष्ण पदार्थ तथा मद्य का सेवन, सूखे शाक का खाना, क्रोध, ताप, अग्नि, भय, श्रम, विषम भोजन आदि से स्थान पर लाने के लिये कड़वे, मीठे, कसैले, शीतल पदार्थों का भोजन, पवन, छाया, जल, चाँदनी (तहखाना), फुहारा, कमल आदि शीतकर वस्तुओं का सेवन, घी-दूध का सेवन, विरेचन, सूखी आदि (सोंठ) के लेप आदि से पित्त पुनः अपने स्थान पर आ जाता और उसका शमन हो जाता है। आज भी पित्त के शमन के लिये अनेक प्रकार के लेप किये जाते हैं। साठी चावल, बथुआ (शाक), मूँग और दूध पित्त के प्रमुख रूप से शामक माने जाते हैं।

कफ का प्रकोप और शमन-

मधुर, ठंडे, भारी, खट्टे, पिच्छिल, स्निग्ध, दूध के बने पदार्थ और ईख का रस सेवन करने, अतितृप्ति, अधिक मीठा खाने, अधिक पानी पीने आदि से कफ की वृद्धि होती है और वह अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र चला जाता है। परिणाम स्वरूप छाती भारी हो जाती है, शरीर श्वेत हो जाता है, खुजली होने लगती है, सदैव आलस छाया रहता है। कफ को पुनः अपने निश्चित स्थान पर लाने के लिये रूक्ष भोजन, क्षार का सेवन, कषाय तिक्त, कटु पदार्थ खाना, व्यायाम, उलटी, गमन (चलना), जागरण, नदीं में तैरना, ताप, विरेचन, स्वेद लाना आदि क्रियाएँ करनी चाहिये। प्राचीन काल में दोषों का प्रकोप होने पर उनके शमन पर ही सर्वाधिक ध्यान दिया जाता था, जैसे विकृत कफ को वमन करवाकर निकाल दिया जाता था, दूषित पित्त को विरेचन करवाकर निकलवा देते थे और प्रकूपित वायु को बस्ति द्वारा शुद्ध करवा दिया था। इस चिकित्सा में रोग या दोष को दबा देने की बात ही नहीं की जाती थी, जबकि आज के डाक्टर ऐन्टीबायोटिक से पित्त को दबा देते हैं जिसके विपरीत प्रभाव भी होते हैं।

How to Overcome Paralysis in Ayurveda & Color Therapy

वनौषधियों के प्रयोग:

लकवा दूर करने के लिएः-

इसके लिए 100 मि. ली. ‘सरसो का शुद्ध तेल’ लें, इस तेल में एक तोला ‘काली मिर्च’ का कपड़े की सहायता से छना चूर्ण मिलावें। इसी प्रकार दस ग्राम ‘भांग’ का चूर्ण भी इसमें मिलाकर इस मिश्रण को 10 मिनट तक उबालें। ठंडा होने पर इस तेल को छानकर एक ‘सफेद पारदर्शी बोतल’ में भरकर उसके चारों ओर एक लाल पन्नी लपेट कर सूर्योदय तक सूर्य के प्रकाश में रखें। इस तेल की मालिश लकवे वाले भाग में करने से सम्बन्धित भाग में रक्त का प्रवाह आरम्भ हो जाता है।

To Overcome Paralysis :-

Take 100 ml ‘pure mustard oil’ back in the oil Tola ‘pepper’ powder Milaven filtered through the fabric. Similarly, add ten gram ‘cannabis’ powder into it, then boil the mixture for 10 minutes. On cooling, filter the oil in a “white transparent bottle”, then wrap red foil around the bottle and keep the bottle in sunlight until next sunrise. Massage this oil in the relative paralyzed part of the Body, the blood flow is initiated in that part by this message.

Facial Acne Cure in Ayurveda & Color Therapy

वनौषधियों के प्रयोग:

चेहरे की फुन्सियों को हटाने के लिएः-

लगभग 100(सौ) मि. ली. ‘अरंडी(arandi) के तेल’ को ‘लाल रंग की काँच की बोतल’ में सूर्योदय से सूर्यास्त तक धूप में रखा रहने दें। लाल रंग की बोतल उपलब्ध न हो तो एक सफेद बोतल के चारों ओर लाल पारदर्शक पन्नी लपेट कर ऐसा किया जा सकता हैं। इस अरंडी के तेल में कपड़े से छना गया महीन ‘बेसन’ मिलाकर इससे बने उबटन को नियमित कुछ देर तक चेहरे पर लगाकर, तदुपरान्त चेहरा धोने से चेहरे पर विकसित होने वाली फुन्सियां दूर हो जाती हैं और चेहरा साफ हो जाता है। आवश्यकता हो, तो रात्रि पर्यन्त इस मिश्रण को चेहरे पर लगाये रहना चाहिए और सुबह-सुबह उसे धो लेना चाहिए। इस सम्बन्ध में अपने चिकित्सक से परामर्श ले लें।

 

Remove Facial Acne:-

Take approximately hundred/100 ml ‘Castor(Anrdi) Oil’ into ‘Red Bottle Glass’ in the sun from Sunrise to Sunset taken into account. If there is a bottle of white/transparent color then wrap Red Foil around a transparent Bottle. Now, put cloth poured Nice Wispy ‘Gram flour’ into this Castor Oil. Use this COSMETIC Mixture Regularly on your Face. Just Wash your Face after applying this paste on your Face. This will Cleanse the face and gently remove Facial Acne. If required, apply and leave this Mixture throughout the night and wash it early morning. Please consult your doctor in this regard, if you have sensitive skin.

Epilepsy – stop attacks as per Ayurveda

वनौषधियों के प्रयोग:

मिर्गी के लिए-

जायफल आसानी से उपलब्ध हो जाने वाला फल है। इक्कीस ‘जायफल’ लाकर उनमें से सात जायफल ‘नीले रंग की बोतल में’ तथा सात जायफल हरे रंग की बोतल में सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक धूप में रखें। इस चैदह जायफल को शेष (बिना धूप में रखे), सात जायफल के साथ पिरो कर एक माला बनाकर मिर्गी के रोग को पहनाने से उसे मिर्गी के दौरे आने बंद हो जाते हैं।

The Epilepsy-

The Nutmeg fruit is readily available. Bring Twenty-one ‘Nutmeg’, Put seven (7) of them in a ‘Blue colored Bottle’ and seven (7) of them in ‘Green colored Bottle’  in the duration from Sunrise to Sunset and then Place both the bottles in the sun/sunlight. These Fourteen (14) nutmeg and remaining seven (7) nutmeg (that were housed without the sun/sunlight), total of 21, shall be used to make a Garland / Necklet and should be worn by the Patient, this should stop him from getting an attack of the disease Epilepsy.

Wonder Ayurvedic Herbs [Medicines] Series | Part – 0 Introduction

चमत्कारी वनौषधियाँ- Wonder Ayurvedic Herbs –

भारतीय ज्योतिष(Indian Vedic Astrology) शास्त्रों में सूर्य(Sun) को जगदात्मा कहा गया है। यह सही भी है, क्योकि सृष्टि में बगैर सूर्य के विनाश सुनिश्चित है। वास्तव में सूर्य के प्रकाश में एक विशेष शक्ति निहित होती है। इसी जीवनी शक्ति के द्वारा पौधे(plants) अपने भोजन की प्राप्ति करते हैं तथा विभिन्न प्राणी भी इस पर आश्रित है। सृष्टि में जीवनचक्र को जहां सूर्य नियंत्रित करता है, वहीं दूसरी और वायुमंडल के विभिन्न गैसीय चक्र भी इसी के अधीन हैं। सूर्य की रश्मियों(spectrum) में सात प्रमुख रंगों (बैंगनी Violet, जामुनी Indigo, नीला Blue, हरा Green, पीला Yellow, नांरगी Orange और लाल Red) का एक संतुलित सम्मिश्रण होता हैं, इसलिए सृष्टि का निर्माण करने वाले पांचों तत्त्व अर्थात् जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी को सूर्य अपने ही रंग में समेटे हुए है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। सूर्य रश्मियों में विचित्र(wonder) कीटाणुनाशक क्षमता भी है। इसीलिए जिस घर में सूर्य के प्रकाश का प्रवेश रहता है, उस घर के सभी प्राणी स्वस्थ रहते हैं। इसके विपरीत ऐसे कमरों मेें रहने वाले, जहां सूर्य का समूचित प्रकाश नहीं पहुंचता, अस्वस्थ तो रहते ही हैं, साथ ही उनकी बुद्धि-बल का भी पूर्ण विकास नहीं होता और न्यूनता दृष्टिगोचर होती है।

हम यह भी देखते हैं, कि छाया में पड़ने वाले पौधे अच्छी फसल नहीं दे पाते और सूर्य के प्रकाश के अभाव में कोई भी पौधा पनप नही सकता। इसी प्रकार जिस जलाशय मेे धूप नहीं पहुंचती उसमें कीड़े पैदा हो जाते हैं। इसके विपरीत सूर्य का प्रकाश का प्राप्त करने वाले जलाशयों का जल स्वच्छ तथा कीटाणुमुक्त तो होता ही है, इसके साथ ही साथ वह शक्ति का संचार करने वाला भी होता है। सूर्य के प्रकाश से समस्त सृष्टि लाभान्वित(benefited) होती है। जड़ -चेतन सभी पर इसका समरूप प्रभाव पड़ता है। एक भारतीय महात्मा ‘स्वामी ज्ञानानन्द’ ने तो सूर्य-रश्मियों से तमाम पदार्थो को उत्पन्न कर संसार को चमत्कृत कर दिया था। सूर्य के इन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण भारतीय ऋषि – मुनियों और वेदाचार्यो ने सूर्य को देवता कहा है। सूर्य-चमत्कार, संध्योपासना, सूर्य जल अर्पण आदि क्रियाओं के सम्पन्न करने के पीछे भी यही रहस्य हैं। हमारे पूर्वजों को सौर रश्यिमों की सहायता से अनेक औषधियों के निर्माण की जानकारी थी।

आयुर्वेद में अभ्रक भस्म के गुण एवं प्रभाव

अभ्रक भस्म के गुण अभ्रक भस्म अनेक रोगों को नष्ट करता है, देह को दृढ करता है एंव वीर्य बढाता है। यह तरूणावस्था प्राप्त कराता और सहवास की शक्ति प्रदान करता है। राजयक्ष्मा, खांसी, उरःक्षत, कफ, दमा, धातुक्षय, विशेषकर मधुमेह, बहुमूत्र, अनेक प्रकार के प्रमेह, सोम रोग, शरीर का दुबलापन, प्रसूत रोग और अति कमजोरी, सूखीं खाँसी, काली खाँसी, पाण्डु ,दाह, नकसीर, जीर्णज्वर, संग्रहणी, शूल, गूल्म, आँव, अरूचि, अग्निमांद्य, अम्लपित्त, रक्तपित्त, पीलिया, खूनी अर्श, हृद्रय रोग, उन्माद, मृगी, मूत्रकच्छ्र, पथरी तथा नेत्र-रोगों में यह भस्म लाभदायक सिद्ध होती है।

The properties of Mica Bhasma (Incinerate) Mica Bhasma destroys many diseases, makes body firm and increases Semen Health & Count. Here are some abhrak (mica) bhasma effects as per Ayurveda. It provides the strength as of Young Age and increases & strengthens the Power for Sex. Tuberculosis , Cough , Urःksht , Cough , Asthma , Dhatuksy , Viseshkr diabetes , diabetes insipidus , diabetes , several types , Mon disease , debility of Srir , introduced disease and extreme weakness , Sukin cough , whooping cough , Pandu , throat, nosebleed , Jiarnjhwar , diarrhea , Sul , Gulm , Aँv , indisposition , indigestion , pyrosis , Rktpitt , jaundice , bloody Ars , Hridray disease , mania , doe , Mutrkchcr , calculus and eye – diseases consume it proves to be beneficial . These

Homemade Ayurvedic Treatment of Piles (बवासीर)

बवासीर (Piles)

स्वस्थ शरीर मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पूंजी है। मगर आज के युग की व्यस्त जीवन शैली में अधिकांश लोग शारीरिक व्याधियों से पीडि़त हैं। वर्तमान युग में ठीक आहार-विहार का ध्यान न रखने के कारण स्वस्थ जीवन नहीं जी पा रहे। अधिकतर यह देखा गया है, कि बैठे रहकर काम करने वाले अधिकांश लोगो को बवासीर का रोग लग जाता है। ऐलोपैथिक में बवासीर का स्थायी उपचार ‘‘आॅपरेशन’’ ही है, परंतु आॅपरेशन के बावजूद इसके पुनः हो जाने का पूरा खतरा रहता है। आइए पहले जान लें कि बवासीर क्या है ? इसे ‘अर्श’ भी कहते हैं। अर्श एक खूनी व्याधि का नाम है, जिसे सामान्य भाषा में बवासीर कहा जाता है। इस व्याधि में गुदा स्थान में मस्से होते हैं। मस्सा वैसे तो त्वचा पर कहीं भी हो सकता है, लेकिन जो गुदा के छिद्र पर या भीतर होता है, उसे ही बवासीर कहते हैं। इसका कोई निश्चित आकार नहीं होता। कोई सरसों के दानें जैसा छोटा तथा कोई गूलर के समान बड़ा। कोई चिकना होता है, तो कोई खुरदरा। कोई गोल होता है तो कोई लम्बा। इनके फूल जाने पर गुदा का मार्ग अवरूद्व हो जाता है। इसी कारण शौच के समय इस रोग से पीडि़त रोगी को समय अधिक लगता है, वे अत्यन्त पीडा़ महसूस करते हैं। मस्से होने का प्रमुख कारण है, खान -पान में चटपटे पदार्थ व तेल के बने हुए पदार्थ। ऐसी दशा में शौच के समय अधिक जोर लगता है तथा गुदा के भीतर की दीवार गुदा छिद्र को और अधिक बंद कर देती है। बहुत दिन व्यतीत होने के बाद इसी दीवार में सूजन आ जाती है और स्थानीय शिरा कोशिकाओं में उत्तेजना बढ़ जाती हैं, जिससे उनमें रक्त अधिक संचित होता है और वे फूल जाती हैं, पुनः जोर लगाने के समय इन शिरा कोशिकाओं में उत्तेजना बढ़ जाती है, जिससे उनमें रक्त अधिक संचित होता हैं और वे फूल जाती हैं। पुनः जोर लगाने के समय इन शिराओं पर अधिक दबाव पड़ता है, जिससे कभी -कभी ये शिरायें फट जाती हैं और फव्वारे की तरह रक्त गुदा के अन्दर से निकलता है। यही खूनी बवासीर कहलाता है। खून निकलने के बाद ये शिराये वापस पिचक जाती हैं और फिर फूलती हैं व फिर खून निकलता है। इस प्रकार खूनी बवासीर से पीडि़त व्यक्ति के अधिक खून निकल जाने से शरीर में खून की कमी, कमजोरी, भूख की कमी, चक्कर आना, सुस्ती तथा यहां तक कि कभी-कभी बेहोशी तक होने के लक्षण भी पाए जाते हैं। बादी बवासीर में मस्से के उभार बाहर निकलते हैं और दबाने पर दब जाते हैं। अनुभूत घरेलू नुस्खों द्वारा बवासीर का रोग जड़ से समाप्त किया जा सकता है। इसमें धैर्य की आवश्यकता होती है। यहां कुछ ऐसे ही अद्भुत योग बताये जा रहे हैं, जो अत्यंत लाभकारी सिद्व हुए है-

  1. खूनी बवासीर में गाय के शुद्व ताजा एक पाव दूध में दो तोले मिश्री मिला कर नित्य प्रातः काल सात दिन प्रयोग करने से रोगी खूनी बवासीर से रोग मुक्त हो जाता है।
  2. बवासीर की सूजन और पीड़ा में एक कंधारी अनार प्रातः काल खाली पेट लें इस से शीघ्र आराम मिलता है व एक दिन में रक्त बहना रूक जाता है।
  3. खूनी बवासीर में यदि धाराप्रवाह रक्त जा रहा हैं, ईसबगोल की भूसी 3 ग्राम, दूध, एक पाव में घोल कर प्रातः काल तीन दिन तक पीएं। इन तीन दिन के प्रयोग से ही खूनी बवासीर में अभूतपूर्व लाभ होगा।
  4. बवासीर को जड़ से दूर के करने के लिए छाछ सबसे सर्वोत्तम औषधि है। दोपहर के भोजन के बाद छाछ में डेढ़ ग्राम पीसी हुई अजवायन और एक ग्राम सेंधा नमक मिला कर पीने से बवासीर में आशातीत लाभ होता है और भी मस्से नष्ट होते हैं।
  5. ‘अग्निमुख लौह’ की एक -एक गोली सुबह शाम शहद के साथ लें इसे लेने से बवासीर में शीघ्र लाभ होता है।

पथ्य-
भोजन में मिर्च मसाले बंद कर दें। दही, चावल और मंूग की खिचड़ी लेना उत्तम होगा। खूनी बवासीर में दही में कच्चे प्याज को मिला कर खाना चाहिए। किसी भी प्रकार के बवासीर में नित्य एक कच्चा प्याज खाना लाभकारी है। खूनी बवासीर में दोपहर के भोजन के बाद पपीता खाना बेहद लाभकारी रहता है। बवासीर खूनी हो या बादी, मूली का सेवन बहुत लाभकारी है कच्ची मूली खाना या इसके रस का कुछ दिन सेवन करना, बवासीर के अतिरिक्त रक्त के दोषों को दूर करता हैं। रोग अधिक हो तो योग्य, अनुभवी चिकित्सक की सलाह से उपचार करना चाहिए।

रोग से बचने के उपाय-
सर्वप्रथम कब्ज न होने दें। कब्ज होने पर रात को ईसबगोल का सेवन करें या त्रिफला को जल से लें, प्रातः ही साफ दस्त होगा। कठोर आसन पर लगातार न बैठें। कुर्सी जहां तक हो नर्म होनी चाहिए। प्रतिदिन टहलना या व्यायाम अवश्य करना चाहिए। गुदा को सदा साफ रखें, स्वमूत्र से धोना भी लाभप्रद हेै। समय पर भोजन करें। भोजन हल्का व सुपाच्य रखें। भोजन में फल, शाक, दूध, मट्ठा, और दही का अधिक सेवन करें। जैसे ही ज्ञात हो, कि बवासीर की शुरूआत है, शीघ्र ही चिकित्सा आरंभ कर देनी चाहिए। सप्ताह में एक बार करेले की सब्जी बना कर अवश्य खानी चाहिए, इस से बवासीर का नाश होता है।

खूनी बवासीर-
लहसुन की कलियां छील कर उसका मुट्ठी भर छिलका अंगारों पर रखकर प्रातः शोैच से निवृत होने के बाद उस धुएं की धूनी लेने से बवासीर में शीघ्र लाभ होता है और खून आना बन्द हो जाता है, धूनी लेने की विधि यह है कि कि दोनों तरफ दो-दो या तीन-तीन ईंटे रखकर बीच में अंगारे रख दें और उस पर लहसुन के छिलके डालें, जैसे शौच के लिए बैठते हैं, वैसे ही ईंटों पर पैर रखकर बैठ जाये और गुदा को लहसुन के छिलकों का धुंआ लगने दें।

अपामार्ग-
(1) गुरू-पुष्य अथवा रवि-पुष्य योग में निकाली गयी अपामार्ग (अन्य नाम आंधी झाड़ा, लटजीरा, श्वेत आपामार्ग, रक्त आपामार्ग लैटिन में एकायरेंधस एस्पेरा की मूल को घर के मुख्य द्वार पर लटकाने से उस घर के सदस्यों पर तंात्रिक क्रियाओं का प्रभाव नहीं पड़ता। इसी मूल को बिच्छू का जहर उतारने हेतु जहां तक जहर चढ़ा होता है वहां से दंषित स्थान तक फेरने मात्र से वृष्चिक विष उतर जाता है। प्रसूता के बालों में लटकाने से उसे तुरन्त प्रसव हो जाता है। प्रसवोपरांत मूल को उसी समय हंटा देना चाहिए। इस पौधे की जड़ के दिव्य प्रयोग हेतु इसे शुभ मुहूत्र्त में जमीन से निकालना होता है। उसे एक दिन पूर्व संध्याकाल में निमंत्रण देना चाहिए। इसके लिए उस पौधे पर अर्थात् उसके आधार पर पर्याप्त जल चढ़ाएं, कुछ पीले चावल चढ़ाएं तथा दो अगरबत्तियां लगाकार यह प्रार्थना करें कि ‘हे वृक्ष। मैं आपकी मूल को अमुक कार्य हेतु कल शुभ मुहूत्र्त में ले जाऊंगा। आप मुझ पर दया दृष्टि बनायें।

 

Aayurveda : a Veda for Vitality & Life (आयुर्वेद प्राणों का वेद)

हमारा भारत देश कई दृष्टियों से महान है, सबसे पहले यहीं पर सभ्यता का उदय हुआ था। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों की रचना हुई थी। ज्ञान और विज्ञान की पूर्णता तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की थी, पर इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, कि भारत वर्ष में ही आयुर्वेद का इतना अधिक विकास हुआ, जिससे संसार ने एक स्वर से यह स्वीकार किया की भारतवर्ष प्राणविज्ञान के क्षेत्र में सबसे आगे रहा है, और आयुर्वेद में निहित ज्ञान की समानता नहीं की जा सकती। आधुनिक चिकित्सा भले ही सर्जरी के क्षेत्र मे अधिक महत्त्वपूर्ण और सफल हो, परन्तु रोगों के निर्मूलन (अथवा जड़ से समापन) में अभी तक यह कोरा का कोरा ही है, कुछ एलौपैथिक औषधियों के द्वारा रोगों को कुछ समय के लिए दबा भले ही दिया जाए, परन्तु रोगों को मिटाने की युक्ति या निदान उसके पास नहीं है। आयुर्वेद ‘प्राणों का वेद’ कहा जाता है, हमारे पूर्वजों ने प्रयत्न करके ऐसी वनस्पतियों और जड़ी बूटियों का पता लगाया था, जो अद्भुत और तुरन्त सफलता देने वाली हैं। परन्तु हम उन्हें प्रायः भूल ही चुके है। यदि देखा जाय, तो संसार में कोई ऐसा रोग नहीं, जिनका आयुर्वेदिक पद्वति द्वारा उन्मूलन न किया जा सकता हो, इन जड़ी बूटियों की विशेषता है, कि इनके सेवन से कोई विपरीत प्रभाव नहीं होता।

अपराजिता-

इसे संस्कृत में ‘विष्णुकान्ता’, हिन्दी में ‘कालीजीरी’ और गुजराती में ‘गरणी’ कहा जाता है, यह एक बहुवर्षिय जीवी वानस्पतिक बेल है, जिसमें पीले फूल लगते हैं, इसके फूल का आकार बड़ा होता है, इसलिए इसे ‘गौकर्णी’ भी कहते हैं। यह जंगल में सामान्यतः प्राप्त हो जाती है, इसके पुष्प बीजों को निकाल कर उसका अवलेह बनाकर नित्य सेवन किया जाए, तो यह पेचिश को समाप्त कर देती है, इसका विशेष गुण यह है, कि यदि शराब की मात्रा ज्यादा लेने से लीवर बढ़ गया या लीवर में सूजन आ गई हो, तो एक-एक चम्मच सात दिन लेने से लीवर की सूजन समाप्त हो जाती है। इसकी जड़ को पीसकर नित्य फंकी लेने से आंखों की ज्योति बढ़ जाती है, और चश्मा उतर जाता है इसके अलावा इसके बीज यकृत, प्लीहा, जलोदर, पेट के कीड़े, आमाशय में सूजन, कफ, स्त्रियों के रोग और क्षय आदि में तुरन्त और आश्चर्यजनक रूप से सफलता देते हैं। इसकी छाल को दूध में पीसकर शहद मिलाकर पीने से गर्भपात रूक जाता है। इसके बीजों को पीसकर लेप करने से अंडकोष की सूजन समाप्त हो जाती है।

अमलतास-

इसे संस्कृत में ‘हेमपुष्पा’ गुजराती में ‘गरमाड़ी’ तथा मराठी में ‘वाहवोह’ कहते है, इसके पेड़ की चैड़ाई लगभग तीन फिट होती है। तथा काले रंग की फलियाँ लगती हैं, इस पेड़ की छाल उतारने पर लाल रंग का रस निकलता है जो की क्षय रोग को दूर करने की क्षमता रखता है। इसके मुकाबले की अन्य कोई वनस्पति नहीं है, इसकी जड़ को दूध में औटाकर सेवन करने से किसी भी प्रकार का क्षय रोग समाप्त हो जाता है। यदि इसकी जड़ को घिस कर दाद पर लगाया जाए, तो कुछ ही दिनों में वह दाद समाप्त हो जाता है। इसकी जड़, छाल, फल-फूल और पत्ते -इन पांचों को जल में पीस कर दाद-खुजली या चर्म विकारों में प्रयोग करने से जादू के समान असर होता है। यदि पेशाब के साथ खून गिरता हो, तो इसका गूदा नाभि पर लेप करने से लाभ होता हैं आंतो के रोग, कुष्ठ, कब्जी, गले की तकलीफ आदि में भी इसकी जड़ महत्त्वपूर्ण औषधि कही गई है।

आंवला-

इसे लगभग सभी भाषाओं में आंवला ही कहते हैं और इसके पेड़ पूरे भारतवर्ष के जंगलों में होते हैं, कोष्ठ बद्धता को मिटाने में यह महत्त्वपूर्ण है। उत्तम पके हुए एक हजार आंवले लेकर एक बड़ी हांडी में भर कर रख दें और उसमें दूध डाल कर हांडी को भर दें। फिर उसे धीरे -धीरे आंच पर पकाकर नीचे उतार दें, इसके बाद 10 तोला ‘त्रिफला’ और 80 तोला ‘मिश्री’ मिला कर अवलेह बना लें, और इसे किसी स्वच्छ पात्र में भर कर रखें। इसका नित्य आधा तोला सेवन करने पर शीघ्र ही व्यक्ति के शरीर की झुर्रियां मिट जाती हैं और उसे नव यौवन प्राप्त हो जाता हैं। यदि जवान पुरूष या स्त्री इसका सेवन करें, तो उसे अत्यधिक पौरूषता, कामेाद्दीप्तता तथा चेहरे की सुन्दरता प्राप्त होती है। यदि आंवले के पानी के साथ शहद और मिसरी मिलाकर लिया जाए, तो श्वेत प्रदर समाप्त हो जाता हैं।

Benefits of Basil ( Tulsi, तुलसी )

benefits of basil tulsi in ayurveda

Benefits of Basil Tulsi in Ayurveda

तुलसी(basil) का पौधा उसी प्रकार वनस्पतियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है जिस प्रकार देवताओं में इन्द्र, प्रणियों में मनुष्य, नदियों में गंगा, छन्दों में गायत्री, पर्वतों में हिमालय और हाथियोें में ऐरावत हाथी श्रेष्ठ हैं, यही कारण है कि हिन्दु परिवारों में घर की पवित्रता की रक्षार्थ तुलसी का पौधा लगाया जाता है। तुलसी में जहाँ रासायनिक विशेषतायें हैं, वहाँ ‘‘सूक्ष्म’’ कारण शक्ति भी ऐसी है, जो मानसिक एवं भावानात्मक क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं। प्रत्यक्षतः आरोग्य रक्षा और रोग निवारण के दोनों ही गुण तुलसी में हैं। तुलसी में आरोग्य के लिए उपयोगी टाॅनिक भी है। साथ ही यह रोगों का शमन करते समय शरीर के सुरक्षा पक्ष को तनिक भी हानि नहीं पहुँचाती। उसमें ऐसा कोई दोष नहीं है, कि इसकें सेवन से किसी संकट में पड़ना पड़े। लाभ धीरे हो यह हो सकता है। साथ ही चिकित्सा उपचार के साथ जो खतरे जुड़े रहते हैं उसकी आशंका तनिक भी नहीं है। तुलसी अपने आप में पूर्ण औषधी है। अब वैज्ञानिक अनुसंधान और रसायनिक विश्लेषणों के आधार पर यह सिद्ध हो गया है कि तुलसी में किटाणु-नाशक तत्व प्रचूर मात्रा में होते है, जिससे रोग-निवारण में यह काफी सहायक सिद्ध होती है। तुलसी के पत्तों में एक प्रकार का किटाणु – नाशक द्रव्य होता है, जो हवा के सहयोग से वातावरण में फैलता है। तुलसी का स्पर्श करने वाली वायु जहाँ भी जाती है, वहीं अपना रोगनाशक एवं शोधक प्रभाव डालती है। तुलसी शरीर के विषैले कोषों को शुद्ध करती है और शरीर से दूषित तत्वों को निकाल बाहर करती है। शास्त्रकारों ने कहा है कि –

तुलसी काननं चैव गृहेयस्याव तिष्ठते।
तद्गृहे तीर्थभूतंहि न यन्ति यम किंकराः।।

अर्थात्-जिस घर में तुलसी(basil) का वन है वह घर तीर्थ के समान पवित्र है। उस घर में यमदूत नहीं आते।’ यहाँ यमदूतों का अर्थ रोग फैलाने वाले कीटाणु है। इसी प्रकार अन्यत्र कहा है:-

तुलसी विपिनस्यापि समन्तात्पावन स्थलम्।
कोषमात्रं भवत्येव गंगे यस्येव पायसः।।

अर्थात्- तुलसी वन के चारों ओर एक कोस अर्थात् दो मील तक की भूमि गंगाजल के समान पवित्र होती है। स्मरण रहे कि रोग किटाणु नाष की गंगा जल में अपूर्व शक्ति है। उसमे कोई कीटाणु जीवित नहीं रह सकता और इसलिये गंगाजल कभी सड़ता नहीं। भगवान के पंचामृत भोग प्रसाद में तुलसी का ही उपयोग किया जाता है। मरते समय तुलसी पत्र मुख में डालते हैं। तुलसी की माला पर किया हुआ जप श्रेष्ठ माना जाता है, तुलसी पंचांग द्वारा विनिर्मित एक ही तुलसी वटी द्वारा अनुपान भेद से समस्त रोगों का उपचार हो सकता है। तुलसी में रोग-नाषक शक्ति प्रचूर मात्रा में है। चरक के अनुसार यह हिचकी, खाँसी, दमा, फेफड़ों के रोग तथा विष-निवारक होती है।
भावमिश्र ने तुलसी को हृदय रोगों में लाभकारी(beneficial), रक्त विकार को दूर करने वाली औषधी बताया है। सुश्रुत ने भी इसे रोगनाषक, तेजवर्धक वात-कफ-षोधक, छाती के रोगों में लाभवर्धक तथा आन्त्र क्रिया को स्वस्थ रखने वाली औषधी बताया है। पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान ने भी तुलसी को खांसी, ब्रांकाइटिस, निमोनियाँ, फ्लू , क्षय आदि रोगों में लाभदायक बताया है। इसमें सन्देह नहीं कि संसार कि सभी चिकित्सा पद्धतियों ने तुलसी के महत्व को स्वीकार किया गया है। आयुर्वेदिक, ऐलौपैथिक, यूनानी, होमियोपैथिक सभी अपने अपने ढंग से रोग निवारण और स्वास्थ्य सुधार के लिये तुलसी का उपयोग करते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा की गई खोजों के आधार पर पता चला है कि तुलसी से प्राप्त होने वाला द्रव्य क्षय रोग के किटाणुओं का नाशक होता है। अधिकांश रोगों में तुलसी बहुत ही प्रभावशाली सिद्ध हुई है। दैनिक जीवन में सामान्य रूप से भी इसका सेवन करते रहना बहुत हितकर है। जुकाम, बुखार, मलेरिया, इन्फ्लूएन्जा आदि में तुलसी का काढ़ा बनाकर लेने से लाभ होता है। मलेरिया के लिये तो यह अमोध औषधि है।