मोटापा

Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant),

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आयुर्वेद और मोटापा :-

मानव समुदाय के सामने मोटापा आज एक विचित्र महामारी के रूप में उभरा है। यह वैयक्तिक ही नहीं, वरन् चिकित्सा जगत एवं सभ्य समाज के लिये एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है। खान-पान के तौर-तरीके, रहन-सहन के ढंग, आरामतलबी आदि शरीर में अतिरिक्त चर्बी बढ़ाने के प्रमुख कारण हैं। कभी यह रोग मध्य वर्ग के नर-नारियों में ही यदा-कदा देखा जाता था, लेकिन आज युवा पीढ़ी के साथ ही बच्चे भी थुलथुलेपन के शिकार होते जा रहे हैं। आँकड़े बताते हैं कि इन दिनों विश्व भर में तीस करोड़ से अधिक लोग मोटापे या स्थूलता से त्रस्त हैं। यह एक ऐसा महारोग है, जो शरीर को बेडौल व थुलथुला तो बनाता है, साथ ही इसके कारण उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, हृदयरोग, अनिद्रा, दमा, हड्डियों की बीमारी, हाॅर्मोन असंतुलन, शारीरिक अपंगता जैसी कितनी ही बीमारियाँ पैदा होती चली जा रही हैं। इसके कारण अधिकांश व्यक्ति असमय ही काल-कवलित होते देखे जाते हैं।

आयुर्वेद शास्त्रों में मोटापे को मेदरोग या स्थौल्य रोग (स्थूलता) कहते हैं। चरक संहिता, सूत्रस्थानम् 21/9 के अनुसार
‘‘जिस रोग में मेद और माँस धातु की अतिवृद्धि होकर नितंब, उदर एवं वक्ष प्रदेश मोटे हो जाते हैं, और लटक जाते हैं तथा चलने-फिरने पर हिलते-डुलते रहते हैं, अंग-प्रत्यंगों में मेद या वसा-संचय के कारण उनकी वृद्धि समुचित रूप से नहीं होती है, तथा कार्यक्षमता में कमी आ जाती है, ऐसे व्यक्ति को अतिस्थूल या मोटा व्यक्ति कहते हैं। खान-पान में असंयम एवं अनियमितता के कारण शरीर में जब अनावश्यक रूप से अत्याधिक मात्रा में मेद या वसा जमा हो जाती है, तब व्यक्ति मोटा हो जाता है।’’
जब हम रोग आवश्यकता से अधिक मात्रा में एवं बार-बार उच्च कैलोरियुक्त आहार ग्रहण करते हैं, जिसमें ग्लूकोज या कार्बोहाइड्रेट तथा चिकनाई युक्त पदार्थ सम्मिलित हैं, तो यह अतिरिक्त चर्बी त्वचा एवं शरीर के अन्य अंग-अवयवों के अंदरूनी भाग, पेट और माँसपेशियों के बीच में जमा होती जाती हैं, और हमारा शरीर मोटा और बेडौल बन जाता है। इसे ही मोटापा या मेद या स्थौल्य कहते हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञानी इसे ही ओबेसिटी कहते हैं। यह लैटिन शब्द ओबेसस से बना है, जिसका अर्थ है-अधिक खाना। अपने शब्दार्थ में ही यह बीमारी इस रहस्य को समाहित किये हुये है, कि जरूरत से ज्यादा खाने से मोटापा बढ़ता है। चिकित्सा विज्ञान की भाषा में यह वह अवस्था है, जिसमें शरीर में अत्याधिक वसा का संचय हो जाता है।

आधुनिक चिकित्सा शास्त्र के अनुसार स्थूलता या मोटापा उसे कहते हैं, जिसमें आयु एवं ऊँचाई के हिसाब से शरीर का जितना भार होना चाहिये, उससे दस प्रतिशत अथवा उससे अधिक भार हो। वस्तुतः मोटापे की शुरूआत पेट से होती है, क्योंकि मेद सभी प्राणियों के पेट और अस्थि में रहता हैं। मेद वृद्धि में सबसे पहले तोंद बढ़ती है, तत्पश्चात कूल्हे, गर्दन, कपोल, बाँहें, जंघा आदि में वसा की मोटी परत जमा होती जाती है, और मनुष्य को स्थूल एवं बेडौल बना देती है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार मेद या चर्बी बढ़ने के कारण सब धातुओं के मार्ग बंद हो जाते हैं, जिससे शरीर स्थित दूसरी धातुओं – अस्थि, मज्जा, वीर्य आदि का पोषण नहीं हो पाता, केवल मेद या चर्बी ही बढ़ती रहती है। इसके बढ़ने से व्यक्ति सभी कार्यों को करने में अशक्त हो जाता है।

मोटापा मनुष्य के स्वस्थ जीवन के लिये अभिशाप है। आयुर्वेद शास्त्रों में जिन आठ प्रकार के शरीर वाले व्यक्तियों को निंदनीय माना गया है, उनमें अति कृशकाय एवं अति स्थूल व्यक्तियों की गणना प्रमुख रूप से की गई है। चरक संहिता, सूत्र स्थानम् – 21/1-2 में कहा गया है – तत्रातिस्थूल कृशयोर्भूयएवापरे निंदितविशेषा भवंति। अर्थात् इन आठ प्रकारों में अधिक मोटा एवं अधिक दुबला-कृशकाय व्यक्ति विशेष निंदा के पात्र हैं। इतने पर भी तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनों में कृशकाय व्यक्ति को फिर भी अच्छा मानते हुये इसी ग्रंथ में आगे कहा गया है –

स्थौल्यकाश्र्ये वरं काश्र्ये समोपकरणौ हितौ।
यद्युभौ व्याधिरागच्छेत्स्थूलमेवातिपीड्येत्।।

अर्थात- अधिक मोटे और अधिक कृशकाय व्यक्तियों में मोटापे अपेक्षा कृशता-दुबलापन फिर भी अच्छा है, क्योंकि दोनों के उपकरण समान होने पर भी स्थूलकाय मनुष्य को रोगग्रस्त होने पर अधिक कष्ट सहन करना पड़ता हैं, मोटे व्यक्तियों की जीवनावधि भी घट जाती है। जन समुदाय में सम्मान की दृष्टि से भी वे तुलनात्मक दृष्टि से पिछड़े ही माने जाते हैं। सुश्रुत संहिता में उल्लेख है – कृशः स्थूलात् पूजितः। अर्थात स्थूल की अपेक्षा दुबला-पतला आदमी अधिक सम्मान के योग्य है। वस्तुतः मनुष्य अपने उत्तम स्वास्थ्य, प्रबल पराक्रम, प्रखर प्रतिभा एवं उज्जवल चरित्र के कारण समाज में सम्माननीय स्थान पाता है। केवल मोटेपन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। आजकल मोटी लड़कियों को विवाह में भी परेशानी आ रही है।

मोटापे की अकारण ही निंदा नहीं की गई है। स्वास्थ्य का सर्वनाश करने में मोटापा सबसे प्रमुख कारण है। इसके कारण अधिकांश व्यक्तियों को दिल का रोग, उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, पेट व साँस की अनेक बीमारियाँ धर दबोचती हैं। शरीर स्थूल व थुलथुल हो जाने से अधिकतर व्यक्ति आत्महीनता का शिकार बन जाते हैं। वैज्ञानिक परीक्षण बताते हैं कि मोटे एवं तोंदू व्यक्ति में उदर एवं पाचन सम्बंधी गड़बड़ी के साथ ही उसके रक्त में अच्छे कोलेस्ट्राॅल (एच.डी.एल.) की मात्रा कम व बुरे कोलेस्ट्राॅल की मात्रा बढ़ी हुई होती है। बढ़ी हुई यही खराब कोलेस्ट्राॅल (एल.डी.एल.) हाई ब्लड प्रेशर, हार्ट अटैक एवं ब्रेन स्ट्रोक आदि का कारण बनती है। इसके अतिरिक्त इंसुलिन का स्त्राव कम होने से डायबिटीज का खतरा भी बना रहता है। जिन व्यक्तियों में वसा की मोटी परत जमने के कारण शरीर भारी होता है, उन्हें प्रायः कब्ज की शिकायत, गैस, पीठ का दर्द, छोटी साँस, खर्राटे, स्लीप एप्रिया (श्वास-प्रश्वास में रूकावट) आदि रोग होने की संभावना अधिक रहती है। लीवर एवं किडनी भी ऐसे व्यक्तियों में प्रायः ठीक ढंग से काम नहीं करते। अति स्थूलता से शरीर की मेटाबाॅलिक प्रक्रिया दुष्प्रभावित होती है, जिसके कारण प्रजनन हाॅर्मोन में असंतुलन उत्पन्न होता है, और व्यक्ति, जोड़ों का दर्द, अर्थराइटिस, सायटिका, पक्षाक्षात, रीढ़ का दर्द, हार्निया, ओस्टियोपोरोसिस, वेरिकोस वेन्स, रक्त वाहिनियों में रक्त संचरण में बाधा, पथरी आदि बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं।

यों तो मोटापे की सरल पहचान यह है कि यदि व्यक्ति की तोंद वक्षस्थल से ज्यादा उभरी हुई है, तो माना जाना चाहिये कि हम स्थूलता की ओर बढ़ रहे हैं। गर्भवती महिलायें इसकी अपवाद हैं। उदरवृद्धि के अतिरिक्त शिलिलता, गुरूता, स्वेदाधिक्य, क्षुधाधिक्य, अधिक प्यास, निद्राधिक्य, जड़ता, पीड़ा मुखमाधुर्य, मुख-ताजु-कंठ शोथ, अनुत्साह, आलस्य, तंद्रा एवं शरीर से दुर्गंध आना आदि लक्षण इसमें धीरे-धीरे प्रकट होने लगते हैं। शरीर का वजन अधिक बढ़ जाने से कूल्हे, घुटनों एवं टखनों आदि पर सर्वाधिक भार पड़ता है, जिससे जोड़ वाले इन स्थानों पर दर्द शुरू हो जाता है। अति स्थूलता के कारण व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता, सक्रियता और कई बार तो अपना आत्मविश्वास तक खो बैठता है। स्थूलता वृद्धावस्था के शीघ्र आमंत्रण का कारण बनती है। स्थूलता या मोटापा जैसे जीवन शैली रोगों के बढ़ने के कई कारण होते हैं। चरक संहिता, सूत्रस्थानम – 21/3 के अनुसार अधिक तृप्तिकारण, भारी, मीठे, शीतल, चिकनाईयुक्त पदार्थों का सेवन करने से, व्यायाम या परिश्रम न करने से, दिन में सोने से (विशेषकर दोपहर में भोजन करने के तुरंत बाद) तथा आनुवंशिक कारणों से व्यक्ति मोटापे का शिकार बनता है। इससे शरीर में अनावश्यक रूप से वसा इकट्ठी हो जाती है और शरीर थुलथुला बनकर अनेका नेक रोगों का शिकार बन जाता है।

आज की इस सर्वाधिक भयावह एवं नूतन व्याधि – में दो वृद्धि अर्थात मोटापे की समस्या का समाधान खोज रहे पोषण विज्ञानियों एवं चिकित्सा शास्त्रियों ने इनके तीन प्रमुख कारण बतायें है – 1. सहज या आनुवंशिक कारण, 2. आहार-विहारजन्य और, 3. हाॅर्मोन-अंसतुलन। सहज कारण वह है, जो जाति विशेष के अनुसार अथवा आनुवंशिक गुणों के आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाया जाता है। ऐसे लोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक ही होती हैं, मोटोपे का प्रमुख कारण वस्तुतः आधुनिक आरामदायक जीवनशैली का खान-पान (जंकफूड वाला) व रहन-सहन है। अत्याधिक पौष्टिक आहार का सेवन, कुछ-न-कुछ सदैव खाते-पीते रहने की आदत, दिन में सोना एवं शारीरिक श्रम या व्यायाम का अभाव मोटापे के प्रधान कारण हैं। अधिक मात्रा में मक्खन, मलाई, दूध, घी, पनीर का सेवन, मद्यपान, माँसाहार, कोल्ड ड्रिंक्स, फास्टफूड, बर्गर पीजा, आइसक्रीम, पेट्रीस, सैंडविच, काॅफी, बिस्किट्स, चाॅकलेट, केक, एवं मिठाइयाँ आदि के अधिक एवं बार-बार सेवन करने से शरीर में धीरे-धीरे अतिरिक्त चर्बी जमा होने लगती है। आज की इंटरनेट संस्कृति ने इस रोग में और भी वृद्धि की है।
इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति शारीरिक श्रम नहीं करते, व्यायाम आदि से बचते हैं, और गरिष्ठ आहार ग्रहण करते हैं, उनका शरीर भी अतिरिक्त ऊर्जा का संचय वसा के रूप में करता है। फलस्वरूप यही वसा या मेद पेट, कमर, गर्दन, गाल आदि में जमा होकर उन्हें भारी व बेडौल बना देती है। हाॅर्मोन-असंतुलन भी मोटापा बढ़ता है। अंतः स्त्रावी गं्रथियों जैसे – थाइराइड ग्रंथि, पिच्यूटरी ग्रंथि, एड्रनल ग्रंथि आदि से उत्सर्जित होेने वाले हाॅर्मोन रसायनों की विकृति भी एक ऐसी जटिल समस्या है, जो सूलिता उत्पन्न करती है, इसके अतिरिक्त अनेक मानसिक एवं भावनात्मक कारण भी ऐेसे हैं, जो व्यक्ति के हाॅर्मोनल एवं चयापचयी संतुलन गड़बड़ी, अकेलापन, निराशा, अतृप्त आकांक्षांये आदि भावनात्मक कारणों से भी व्यक्ति इसका शिकार बनता है। मानसिक तनाव मोटापा बढ़ाने में अहम् भूमिका निभाता है। कई बार स्टीराॅयड प्रकृति की औषधियाँ भी शरीर को स्थूल बना देती है।

निदान :-
स्थूलता मिटाने, मोटापा घटाने और शरीर को छरहरा एवं सुडौल बनाने के लिये योग, व्यायाम एवं जिम से लेकर आहार शास्त्रियों एवं चिकित्सा, विज्ञानिकों द्वारा कितने ही नुस्खे एवं औषधि उपचार प्रचलित प्रसारित है। लोग इन्हें आजमाते भी हैं और कुछ दिनों में वजन भी कम कर लेते हैं। लेकिन थोड़े दिनों बाद जरा सी ढ़ील देते ही वही पुरानी स्थिति फिर से आ जाती है, जब व्यक्ति पहले की अपेक्षा अधिक मोटा हो जाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हम कृत्रिम साधनों से अपने शारीरिक वजन को, स्थूलता को नियंत्रित करने का प्रयत्न करते हैं। यदि उचित एवं संतुलित खान-पान, रहन-सहन की आदतों और शारीरिक श्रम, व्यायाम आदि का दैनिक जीवन में समावेश कर लिया जाये तो कोई कारण नहीं कि मोटापे से आसानी से न बचा जा सके।

मोटापा घटाने एवं वजन कम करने के लिये प्रायः डायटिंग या उपवास का सहारा लिया जाता है। महिलाओं में यह प्रचलन विशेष रूप से देखने को मिलता है। लेकिल इस संदर्भ में पोषण विज्ञानियों एवं चिकित्सा – शास्त्रियों द्वारा किये शोध – निष्कर्ष बताते हैं कि छरहरा बनाने इस विद्या को अपनाने से प्रायः लाभ कम, हानि ज्यादा है। लम्बे समय तक डाइटिंग करते रहने से आॅस्टियों पोरोसिस जैसी स्वास्थ्य समस्यायें उठ खड़ी होती हैं।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अति स्थूलता अथवा मोटापा दूर करने के लिये ‘लाइपोसक्षन’ नामक उपचार प्रक्रिया का आश्रय लिया जाता है। इस विधि में डायथर्मी प्रक्रिया द्वारा अथवा एवं मशीन विशेष द्वारा पेट के नीचे जमा हुई वसा की मोटी परत को चूस या सोख लिया जाता है। इसके अलावा सेलोथर्म उपचार, डीपहीट उपचार या गर्म वाष्प स्नान आदि का भी प्रयोग जाता है, पर इन सबके रिबांउड प्रभाव ही होते हैं फिर मोटापा आ घेरता हैै।

भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली में इस महारोग से पिंड छुड़ाने और पूर्ण स्वस्थ जीने के कितने ही उपाय-उपचारों है। इस संदर्भ में देव संस्कृति विश्वविद्यालय एवं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के चिकित्सा-विज्ञानियों ने अपने गहन अध्ययन, अनुसंधान एवं प्रयोग परीक्षणों के आधार पर जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं, उसके सत्परिणाम बहुत ही उत्साह जनक एवं जनोपयोगी सिद्ध हुये हैं। इस उपचार उपक्रम में मुख्य रूप से यज्ञोपचार प्रक्रिया एवं क्वाथ चिकित्सा सम्मिलित हैं। सबसे पहले यहाँ पर मोटापा नाशक विशिष्ट हवन सामग्री का वर्णन किया जा रहा है।

मोटापा नाशक विशिष्ट हवन सामग्री ( इनमें निम्नलिखित वसतुयें समभाग में मिलाई जाती हैं )ः- 1. गिलोय, 2. बायबिडंग, 3. नागरमोथा, 4. चव्य, 5. चित्रक, 6. अरणी (अग्निमंथ), 7. त्रिफला, 8. त्रिकटु, 9. विजयसार, 10. कालीजीरी, 11. लोध्र, 12. अगर, 13. नीम, 14. आम की छाल, 15. अनार की छाल, 16. पुनर्नवा, 17. बाकुची के बीज, 18. गुग्गुल, 19. लोबान, 20. मोचरस, 21. जामुन के पत्ते व बीज, 22. अर्जुन के फल व छाल, 23. कूठ, 24. प्रियंगु, 25. चंदन, 26. नागकेसर, 27. दोनों तरह की तुलसी (रामा और श्यामा), 28. एंरडमूल, 29. अपामार्ग (चिरचिटा या ओंगा), 30. तेजपत्र, 31. मालकांगनी (ज्योतिष्मती) के बीज, 32. सर्पगंधा, 33. जटामांसी, 34. ब्राह्मी, 35. मुलैठी, 36. बच, 37. शंखपुष्पी, 38. पिप्लामूल, 39. पटोलपत्र, 40. देवदार, 41. निर्गुडी, 42. जौ, 43. कपूर, 44. सुगंधबाला, 45. बिल्व, 46. दालचीनी।

उपरोक्त सभी 46 सामग्री को बराबर मात्रा में लेकर साफ-स्वच्छ करके कूट-पीसकर उनका दरदरा जौकुट पाउडर बना लेते हैं और उसे एक डिब्बे में सुरक्षित रख लेते हैं। इस डिब्बे पर ‘मोटापानाशक विशिष्ट हवन सामग्री नं0-2’ का लेबल चिपका देते हैं।

इसी तरह समभाग में 1. अगर, 2. तगर, 3. देवदार, 4. श्वेत चंदन, 5. लाल चंदन, 6. गिलोय, 7. अश्वगंधा, 8. गुग्गुल, 9. लौंग, 10. जायफल आदि को कूट-पीसकर ‘काॅमन हवन सामग्री’ पहले से तैयार रखते हैं। इसमें खाँड़सारी गुड़, गोधृत, जौ आदि भी मिले होते हैं। इसे अलग डिब्बे में रखा जाता है और उस पर ‘काॅमन हवन सामग्री नं0-1’ का लेबल लगा दिया जाता है।

हवन करते समय 50 ग्राम काॅमन हवन सामग्री नं0-1 तथा 50 ग्राम ‘विशिष्ठ हवन सामग्री नं0-2’ को लेकर आपस में अच्छी तरह मिला लेते हैं, तदुपरांत सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं। सूर्य गायत्री मंत्र इस प्रकार है :-

ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि, तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।। स्वाहा।। इदम सूर्याय इदम् न मम्।।

इस महामंत्र से कम-से-कम चैबीस आहुतियाँ अवश्य देनी चाहिये। एक-सौ आठ आहुतियाँ दे सकें, तो और भी अच्छा है। इस क्रम को नित्य प्रातःकाल नियमित रूप से कुछ महीनों तक योग-व्यायाम के साथ करते रहने से शरीर की चर्बी घटने लगती है। शरीर की मांसपेशियाँ, तंत्रिका तंतु, हृदय, फेफड़े आदि अंग अवयव सक्रिय हो उठते हैं और अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य करने लगते हैं।

हवनोपचार के साथ-साथ निम्नलिखित – ‘मेदनाशक क्वाथ’ का भी सेवन करना चाहिये। इस क्वाथ का सेवन करने से अतिस्थूलकाय व्यक्ति भी सामान्य अवस्था में आ जाता है। जिनकी तोंद बढ़ी हुई है, उनके लिये तो यह सर्वाेत्तम उपचार हैं।

मेदनाशक क्वाथ :- (इसमें निम्नलिखित चीजें बराबर-बराबर मात्रा में मिलाई जाती हैं )ः- 1. आँवला, 2. हरड़, 3. बहेड़ा, 4. गिलोय, 5. नागरमोथा, 6. तेजपत्र, 7. चित्रक, 8. विजयसार, 9. हल्दी, 10. अपमार्ग (चिरचिटा) के बीज।
उपरोक्त सभी 10 चीजों को समभाग में लेकर कूट-पीसकर उसका जौकुट कर पाउडर बना लेते हैं, और उसे सुरक्षित डिब्बे में रख लेते हैं।

क्वाथ बनाने की सरल विधि यह है कि इस पाउडर में से पाँच चम्मच (15 ग्राम) पाउडर निकालकर आधा लीटर पानी में स्टील के एक भगोने में डालकर रात में रख देते हैं। सुबह से चूल्हे या गैस बर्नर पर मंदाग्नि पर चढ़ाकर क्वाथ बनने के लिये रख देते हैं। उबलते-उबलते जब चैथाई अंश पानी शेष बचता है, तो उसे बर्नर पर से उतारकर ठंडा होने पर महीन कपड़े में निचोड़कर छान लेते हैं। क्वाथ का आधा भाग सुबह 8 से 10 बजे के बीच खाली पेट एवं आधा भाग शाम को 4 से 6 बजे के बीच सेवन करते हैं। क्वाथ पीते समय उसमें एक चम्मच शहद अवश्य मिला लेना चाहिये। पथ्य-परहेज के साथ नित्य नियमित रूप से इस क्वाथ को शहद के साथ सेवन करने से महीने भर में यह अपना प्रभाव दिखाने लगता है। अनावश्यक स्थूलता घटने लगती है और व्यक्ति कुछ ही दिनों में दुबला हो जाता है। क्वाथ का सेवन भोजन करने से कम से कम एक घंटे पूर्व करना चाहिये। स्थूलता-मोटापा या बढ़ी हुई तोंद से त्रस्त जो लोग तथ्य-परहेज का अक्षरशः पालन नहीं कर सकते, उनके लिये निम्नांकित चूर्ण या पाउडर बहुत ही लाभकारी सिद्ध होता है। क्वाथ के साथ या अकेले ही इसका सेवन करने भोजन करने के बाद जो पोषक तत्व पहले वसा या चर्बी मे बदलकर मोटापा बढ़ा रहे थे, वह प्रक्रिया रूक जाती है और उसके स्थान पर रसरक्त की अभिवृद्धि होने लगती है।

स्थौल्यहर पाउडर :- इसमें निम्नलिखित चीजें मिलाई जाती हैं :- 1. सौंठ 10 ग्राम, 2. पीपल 10 ग्राम, 3. काली मिर्च 10 ग्राम, 4. पिप्लामूल 10 ग्राम, 5. आँवला 10 ग्राम, 6. हरड़ 10 ग्राम, 7. बहेड़ा 10 ग्राम, 8. चव्य 10 ग्राम, 9. चित्रकमूल 10 ग्राम, 10. कालीजीरी 10 ग्राम, 11. बाकुची बीच 10 ग्राम, 12. अपामार्ग के बीज 10 ग्राम, 13. बायबिडंग 10 ग्राम, 14. सेंधा नमक 10 ग्राम, 15. काला या साँचल नमक 10 ग्राम, 16. सादा नमक 10 ग्राम, 17. यवक्षार 19 ग्राम, 18. कांतलौह भस्म 10 ग्राम।

उपरोक्त सभी 18 सामग्री को एक साथ घोट-पीसकर कपड़छान करके एयर टाइट शीशे के बर्तन या प्लास्टिक के डिब्बे में सुरक्षित रख लेना चाहिये। इसमें से नित्य नियमित रूप से आधा ग्राम से एक ग्राम चूर्ण सुबह व आधा ग्राम से एक ग्राम (आधा चम्मच) शाम को, दो चम्मच शहद में अच्छी तरह मिलाकर चाट लें। शहद के अभाव में थोड़े जल के साथ भी ले सकते हैं। कम-से-कम 6 माह तक सेवन करने से उपरोक्त प्रतिफल सामने आने लगते हैं। तोंद घटाने एवं मोटापा दूर करने के लिये योगासन, व्यायाम, खेलकूद, टहलना, बागवानी आदि का क्रम दैनिक जीवन में अवश्य सम्मिलित रहना चाहिये।

दूसरी ओर पथ्य-परहेज का भी पालन करना चाहिये, विशेषकर तब, जब उपरोक्त हवनोपचार एवं क्वाथ सेवन चल रहा हो। उन दिनों जौ की रोटी, दलिया, पुराना बासी चावल, कोदो, साँवां, नीवार, प्रियंगु, कुलथी, चना, मसूर, मूँग, अरहर दाल, खील, शहद, मक्खन निकला हुआ मठ्ठा, बैंगन का भूरता, कच्चा केला, परमल, तोरई, लौकी, पत्तागोभी, चैलाई, पालक, मेथी, अदरक, खीरा, ककड़ी मूलीपत्ता का सलाद, उबली सब्जियाँ, हलका सेंघा नमक, अंगूर, नारंगी आदि लिये जा सकते हैं। भारी, गरिष्ठ, मीठे चिकनाईयुक्त एवं तले-भुने पदार्थ अतथ्य हैं। इनके सेवन से बचना चाहिये। भोजन करने आधा घंटा पहले पानी, पानी भोजन के दौरन न पीकर आधा घंटे बाद पानी मोटापे में बहुत लाभकारी है।

नोट: कोई भी औषधी वैद्य के परामर्श से ही सेवन करें।

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आडू

सेहत के लिए आडू

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आड़ू बहुत रसीला फल है, जो गर्मीयों में पैदा होता है, सेहत के लिए आड़ू बहुत लाभदायक है, इस फल के लाभ अनेक हैं‌, दुनिया के कई देशों में उगाया जाने वाला यह फल लाल से लेकर पीले रंग में उपलब्ध होता है। आड़ू की बाहरी परत बहुत चिकनी और रसदार होती है। (juicy) और ताजे सुगंध वाला यह पीला फल बाहर से देखने में बिल्कुल सेब जैसा दिखाई देता है, लेकिन अंदर के कठोर और बड़े बीज इसे सेब से अलग पहचान देते हैं। आड़ू का उपयोग जैम और जेली बनाने में भी किया जाता है। सेहत के लिए फायदेमंद होने के कारण आड़ू का उपयोग कई रोगों के इलाज में भी किया जाता है। आड़ू में कई पोषक तत्व पाए जाते हैं, आइये जानते है आड़ू के फायदे और आड़ू के नुकसान के बारें में।

आड़ू में पाए जाने वाले पोषक तत्व :-

आड़ू में बहुत ही अधिक मात्रा में पोषक तत्व पाये जाते हैं, जो सेहत के लिए आवश्यक होते हैं। आड़ू विटामिन ए और बीटा-कैरोटीन का बहुत ही बढ़िया स्रोत है। इसमें एस्कार्बिक एसिड पाया जाता है, और विटामिन ई, विटामिन के, विटामिन बी-1 बी-2, बी-3, बी-6 के अलावा यह फोलेट और पेंटोथेनिक एसिड से भरपूर होता है। इसमें कम कैलोरी होती है और कोलेस्ट्रॉल भी कम होता है। इस कारण यह सेहत के लिए अधिक फायदेमंद माना जाता है।

पाचन के लिए आड़ू के फायदे : –

️आड़ू में फाइबर और क्षार (alkeline) की मात्रा बहुत होती है, जिसके कारण यह पाचन क्रिया को बेहतर बनाए रखने में मदद करता है। आड़ू में मौजूद डाइटरी फाइबर पानी को अवशोषित करता है, और पेट की बीमारियों जैसे कब्ज, बवासीर, पेट के अल्सर और गैस की समस्या को दूर करने में मदद करता है। यह आंत से विषाक्त पदार्थों को निकालकर आंत को साफ रखता है, और पेट संबंधी बीमारियों से बचाता है।

मोटापा कम करने में :–

आड़ू में बायोएक्टिव कंपोनेंट पाया जाता है, और यह मोटापे की समस्या से लड़ने में बहुत लाभप्रद होता है। आड़ू में फिनोलिक कंपाउंड पाया जाता है जो सूजनरोधी होता है, और मोटापे की समस्या से लड़ने में मदद करता है, और मेटाबोलिक सिंड्रोम को दूर कर शरीर को गंभीर बीमारियों से बचाता है।आड़ू का उपयोग मोटापे की समस्या दूर किया जा सकता है।

इम्यूनिटी बढ़ाने में :–

आड़ू में एस्कॉर्बिक एसिड (vitamin c) और जिंक भी भरपूर मात्रा में मौजूद होता है, जो इम्यून सिस्टम को बेहतर बनाता है, और शरीर की क्रिया को ठीक रखता है। जिंक और विटामिन सी घाव भरने में सहायक होता है, और संक्रमण से लड़ता है। इसके अतिरिक्त यह सर्दी, मलेरिया, निमोनिया और डायरिया जैसे रोगों को दूर करने में सहायक होता है। इन तत्वों की कमी होने पर शरीर की कई क्रियाओं में की प्रकार की गड़बड़ हो जाती हैं।

आड़ू खाने से कोलेस्ट्रॉल घटता है :–

आड़ू में मौजूद फिनोलिक कंपाउंड एलडीएल नामक खराब कोलेस्ट्रॉल को कम करता है, और अच्छे कोलेस्ट्रॉल एचडीएल को बढ़ाता है। इससे हृदय संबंधी बीमारियां विकसित नहीं होती हैं, और यह कार्डियोवैस्कुलर को स्वस्थ रखने में सहायक होता है।

गर्भावस्था में आड़ू उपयोगी है :–आड़ू में अनेक आवश्यक खनिज तत्व और विटामिन होते हैं, गर्भावस्था में बहुत ही लाभदायक होते हैं। इसमें मौजूद विटामिन सी बच्चे के हड्डियों को शक्तिशाली बनाने, दांत, त्वचा, रक्त वाहिकाएं (blood vessels) और मांसपेशियों को मजबूत बनाने में मदद करता है। यह आयरन का भी अवशोषण करता है, जो गर्भावस्था के दौरान बहुत जरूरी होता है। आड़ू में पाये जाने वाला पोटैशियम आमतौर पर गर्भावस्था में होने वाली थकान से बचाता है।

आड़ू के लाभ मधुमेह में :–

आड़ू में कार्बोहाइड्रेट होता है, जिसे खाने से मधुमेह की समस्या नहीं होती है। एक मध्यम आकार के आड़ू में करीब 15 ग्राम कार्बोहाइड्रेट मिलता है, जो मधुमेह के रोगियों के लिए बहुत लाभदायक होता है। इसके अतिरिक्त आड़ू में और भी लाभदायक पोषक तत्व होते हैं, जो कि स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं।️आड़ू कैंसर से बचाता है :–

आड़ू में कैरोटीनॉयड और फिनोलिक कंपाउंड होता है, जो कैंसर रोधी (anti cancer) का काम करता है, और ब्रेस्ट कैंसर, फेफड़ों का कैंसर, कोलोन कैंसर से हमें बचाता है। इसमें क्लोरोजेनिक और नियोक्लोरोजेनिक एसिड भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जो ब्रेस्ट कैंसर उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं को सामान्य बनाता है। इसके इन्हीं गुणों के कारण कैंसर रोगियों को आड़ू का सेवन करने के लिए कहा जाता है।

आड़ू त्वचा की देखभाल के लिए :–

पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी मौजूद होने के कारण आड़ू त्वचा की देखभाल के लिए अच्छा माना जाता है। यह हानिकारक मुक्त कणों और संक्रमण से लड़ता है। यह यू वी किरणों से भी त्वचा को बचाता है। इसमें जियाजैंथीन और ल्यूटीन नामक एंटीऑक्सीडेंट मौजूद होते हैं, जो त्वचा की सूजन को दूर करने में लाभकारी होता है, आजकल आड़ू का उपयोग चेहरे की क्रीम बनाने में भी किया जाता है।

️आंखों की रोशनी के लिए आड़ू :-

आड़ू बीटा-कैरोटीन से भरपूर होता है, जो शरीर में जाकर विटामिन ए में बदल जाता है। बीटा-कैरोटीन आंखों की रोशनी (eyes sight) को बेहतर बनाने में मदद करता है, और आंखों की बीमारियों जीरोफ्थैलमिया (xerophthalmia) और अंधेपन से बचाता है। इसलिए आंखों की बेहतर रोशनी के लिए आड़ू का सेवन लाभकारी होता है।

️आड़ू बुद्धिवर्धक भी है :-

परीक्षण में पाया गया है कि आड़ू सेंट्रल कोलिनर्जिक सिस्टम को प्रभावी बनाने में लाभप्रद होता है। कोलिनर्जिक सिस्टम दिमाग का न्यूरोट्रांसमीटर सिस्टम होता है, जो की यादाश्त से जुड़ा हुआ होता है। आड़ू में पाये जाने वाले यौगिक अल्जाइमर (Alzheimer ) जैसी दिमाग की बीमारियों को दूर करते हैं, और यादाश्त को दुरूस्त बनता है।

️आड़ू के कुछ नुकसान :–

वैसे तो फलों को कैंसर का रक्षक माना जाता है, लेकिन एक अध्ययन से पता चलता है, कि नारंगी या पीले फल पुरुषों में कोलोरेक्टर कैंसर (colorectal cancer) का कारण हो सकते हैं। इसलिए आड़ू के सेवन से पहले यह ध्यान रखें।

आड़ू छोटी आंत में शर्करा का किण्वन सही तरीके से नहीं कर पाता है, अधिक सेवन की वजह से गैस की समस्या हो जाती है, और सूजन भी हो सकती है।

आड़ू के सेवन से किसी किसी को एलर्जी हो सकती है क्योकि इसमें सैलिसिलेट्स (salicylates) होता है जो एलर्जिक रिएक्शन उत्पन्न कर सकता है।

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सूर्य किरण चिकित्सा

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सूर्य की रोशनी में सात रंग की किरणें होती हैं, ज्योतिषीय मतानुसार सूर्य की किरणों से अपने सातों ग्रहों को अनुकूल कर सकते हैं :-

जातक की कुंडली के प्रतिकूल ग्रहों को सूर्य की किरणों से चिकित्सा कर भाग्य को चमकाया जा सकता है, जन्म कुंडली द्वारा जब यह निश्चित हो जाता है कि कुंडली में कौन कौन से ग्रह कमजोर हैं, जिसे आप उस ग्रह के रंग से ठीक कर सकते हैं। तब उस ग्रह के लिए सूर्य की किरणों से उपचार करना सरल हो जाता है। सूर्य की सातों किरणों का प्रभाव अलग-अलग है, अपनी प्रकृति के अनुसार ये विभिन्न रोगों और मानसिक दोषों को दूर करने में सहायक सिद्ध होती हैं। सूर्य की सातों किरणों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। शरीर में तीन प्रकार के प्रमुख दोष होते हैं:- “वात, पित और कफ” जो ग्रह कमजोर होता है, उस रंग की कमी हो जाती है। जिसे आप जातक की कुंडली से जानकर उस का उपचार कर सकते हैं। जैसे अग्नितत्व कमजोर होगा तो लाल रंग से चिकित्सा करना होगा …

१. पीला (Yellow), नारंगी (Orange), लाल (Red),

2. हरा (Green)

3. बैंगनी (Voilet), नीला (Indigo), आसमानी (Blue)

औषधिय जल निर्माण :-

1. सूर्य किरण चिकित्सा के लिए जिस किरण (Violet, Indigo, Blue, Green, Yellow, Orange या Red) का औषधिय जल बनाना हो, उसी रंग की कांच की साफ़ बोतल ले लेनी चाहिए। यदि उस रंग की बोतल न हो तो उस कलर का BOPP ले कर बोतल पर लपेट दें, बोतलों को अच्छी तरह से धोकर साफ़ कर लें। उसके बाद उसमे साफ़ पीने का पानी भर दें। बोतल को ऊपर से तीन अंगुल खाली रखें, और ढक्कन लगाकर अच्छे से बंद कर दें।

2. पानी से भरी इन बोतलों को सूर्योदय के समय से 6 से 8 घंटे तक धूप में रख दें। बोतलें रखते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी बोतल की छाया दूसरी बोतल पर न पड़े। रात्रि को बोतल को घर के अंदर रख दें। इस प्रकार सूर्य किरण औषधि तैयार हो जाती है। यह औषधिय जल को रोगी को दिन में 3-4 बार पिलायें। एक बार तैयार किये गए औषधिय जल को 4 -5 दिन तक पी सकते हैं। औषधिय जल समाप्त होने के पश्चात पुनः बना लें।

औषधि सेवन कैसे करें : –

नारंगी रंग के औषधिय जल को भोजन करने के 15 मिनट बाद और 30 मिनट के अंदर लेना चाहिए। हरे या नीले रंग के औषधिय जल को खाली पेट या भोजन करने से एक घंटा पहले सेवन करना चाहिए। हरे रंग के औषधिय जल को प्रातः काल 200 मि. ली. तक ले सकते हैं। यह औषधिय जल शरीर से Toxins को बाहर निकालता है, एवं इसका कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं है।

मात्रा :- एक बार में एक से दो चम्मच औषधिय जल लें, दिन में तीन या चार बार ले सकते हैं।

औषधीय जल सेवन से लाभ :

1. लाल (Red) रंग :- लाल रंग की बोतल का जल अत्यंत गर्म प्रकृति का होता है। अतः जिनकी प्रकृति गर्म हो उन्हें इसे नहीं लेना चाहिए। इसको पीने से खूनी दस्त या उलटी हो सकती है। इस जल का उपयोग केवल मालिश करने के लिए करना चाहिए। यह Blood और Nerves को उत्तेजित करता है। और शरीर में गर्मी बढ़ाता है। गर्मियों में इसका उपयोग नहीं करना चाहिए। यह सभी प्रकार के वात और कफ रोगों के लिए लाभ प्रदान करता है।

2. नारंगी (Orange) रंग :- नारंगी रंग की बोतल में तैयार किया गया जल Blood Circulation को बढ़ाता है, और मांसपेशियों को मजबूत करता है। यह औषधिय जल मानसिक शक्ति और इच्छाशक्ति को बढ़ाने वाला है। अतः यदि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में सूर्य या चन्द्रमा निर्बल है तो, उसे इस जल का उपयोग करके अत्यंत लाभ प्राप्त हो सकता है। यह औषधिय जल बुद्धि और साहस को भी बढ़ाता है। कफ सम्बंधित रोगों, खांसी, बुखार, निमोनिया, सांस से सम्बंधित रोग, Tuberculosis, पेट में गैस, हृदय रोग, गठिया, Anaemia, Paralysis आदि रोगों में लाभ देता है। यह औषधिय जल माँ के स्तनों में दूध की वृद्धि भी करता है।

3. पीला(Yellow) रंग :- शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता के लिए यह जल बहुत उपयोगी है परन्तु इस जल को थोड़ी मात्रा में लेना चाहिए। यह जल Digestive System को ठीक करता है अतः पेट दर्द, कब्ज आदि समस्यायों के निवारण हेतु इस जल का सेवन लाभकारी है। परन्तु पेचिश होने पर इस जल का प्रयोग वर्जित है। इसके अतिरिक्त हृदय, लीवर और Lungs के रोगों में भी इस जल को पीने से लाभ मिलता है।

4. हरा (Green) रंग :- यह औषधिय जल शारीरिक स्वस्थता और मानसिक प्रसन्नता देने वाला है। Muscles को regenerate करता है। Mind और Nervous system को स्वस्थ रखता है। इस जल को वात रोगों, Typhoid, मलेरिया आदि बुखार, Liver और Kidney में सूजन, त्वचा सम्बंधित रोगों, फोड़ा -फुन्सी, दाद, आँखों के रोग, डायबिटीज, सूखी खांसी, जुकाम, बवासीर, कैंसर, सिरदर्द, ब्लड प्रेशर, आदि में सेवन करना लाभप्रद है।

5. आसमानी (Blue) रंग: – यह जल शीतल औषधिय जल है। यह पित्त सम्बंधित रोगों में लाभप्रद है। प्यास को शांत करता है एवं बहुत अच्छा Antiseptic भी है। सभी प्रकार के बुखारों में सर्वोत्तम लाभकारी है। कफ वाले व्यक्तियों को इसका उपयोग नहीं करना चाहिए। यह बुखार, खांसी, दस्त, पेचिश, दमा, सिरदर्द, Urine सम्बन्धी रोग, पथरी, त्वचा रोग, नासूर, फोड़े -फुन्सी, आदि रोगों में अत्यंत लाभ प्रदान करता है।

6. नीला (Indigo) रंग:- यह औषधिय जल भी शीतल श्रेणी में आता है। इस औषधि को लेने में थोड़ी सी कब्ज की शिकायत हो सकती है, परन्तु यह शीतलता और मानसिक शान्ति प्रदान करता है। शरीर पर इस जल का प्रभाव बहुत जल्दी होता है। यह Intestine, Leucoria, योनिरोग आदि रोगों में विशेष लाभप्रद है। तथा शरीर में गर्मी के सभी रोगों को समाप्त करता है।

7. बैंगनी (Voilet) रंग :- इस औषधिय जल के गुण बहुतायत में नीले रंग के जल से मिलते जुलते हैं। इसके सेवन से Blood में RBC Count बढ़ जाता है। यही खून की कमी को दूर कर Anaemia रोग को ठीक करता है। Tuberculosis जैसे रोग को ठीक करता है। इस जल को पीने से नींद अच्छी आती है।

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मासिक धर्म

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महिलाओं को मासिक धर्म या पीरियड्स 28 दिन में ही क्यों? :-

मासिक धर्म और चन्द्रमा दोनों के 28 दिवसीय चक्र का ज्योतिषीय सम्बन्ध है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 28 नक्षत्र (अभिजित सहित) होते हैं, जब किसी महिला के जन्म समय के नक्षत्र से वर्तमान चन्द्रमा का गोचर 28 नक्षत्रों पर पूर्ण होता है, तो नियमतः मासिक धर्म आरम्भ होता है। वस्तुत: मासिक धर्म महिलाओं के स्वास्थ्य का सूचक तंत्र है। जिसका ज्योतिषीय संबंध चंद्रमा ग्रह से होता है। इस चक्र में अनियमितता की वजह से महिलाओं को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जहां कुछ महिलाओं को पीरियड देरी से आते हैं तो, वहीं कुछ महिलाओं को मासिक चक्र पूरा होने से पहले ही पीरियड आ जाता है। समय से और नियमित माहवारी आना महिलाओं की सेहत के लिए बहुत अच्‍छा होता है। यदि कोई महिला लगातार अनियमित माहवारी का सामना कर रही है तो, उसको सावधान रहने की जरुरत है। अपने कुंडली के चंद्रमा और मंगल ग्रह पर विशेष ध्यान देना चाहिए। आइए जानते हैं आखिर क्‍यों कई बार महिलाओं को अनियमित मासिक धर्म जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

एक या दो दिन देरी से पीरियड आना या जल्‍दी आना फिर भी सामान्‍य सी बात है। मासिक धर्म का च‍क्र 28 दिनों का होता है। अगर पीरियड एक हफ्ते देरी से आते हैं या पहले ही आते हैं तो यह महिला के लिए चिंताजनक स्थिति है, और इस अवधि में महिलाओं को असहनीय दर्द भी सहना पड़ता है। यहां हम बता रहे हैं कि जल्‍दी और देरी से मासिक धर्म आने का कारण क्‍या है? क्‍या यह स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्‍याएं पैदा कर सकता है?

1. हार्मोनल असंतुलन :- यदि आपके पीरियड अनियमित हैं तो आपको जांच करने की जरुरत है कि कहीं हार्मोन में तो कुछ गड़बड़ नहीं हैं, क्‍योंकि हार्मोन अंसतुलन होने की वजह इसका असर सीधा मासिक धर्म में पड़ता है। एन्डोमीट्रीओसिस एंडोमीट्रीओसिस एक ऐसी स्थिति होती है, जहां गर्भाशय, योनि की दीवारों और फैलोपियन ट्यूबों के अस्तर में एक ऊतक का विकास होता है। जिसकी वजह से मासिक धर्म में अनियमिताएं होती हैं।

2. पोषक तत्वों की कमी :- पौषण की ओर ध्यान देना भी नि‍यमित मासिक धर्म के लिए आवश्यक है। यदि शरीर में निश्चित पोषक तत्‍वों की कमी होने लगती है तो भी इसका असर मासिक धर्म में दिखाई देता है।

3. तनाव :- कभी कभी स्‍ट्रेस का असर भी महिलाओं के मासिक धर्म पर देखने पर मिलता है। जब कोई महिला तनाव में होती है तो शरीर से कॉर्टिसॉल और एड्रेनालाईन हार्मोन शरीर से निकलते हैं, जिसके वजह से मासिक धर्म इफेक्‍ट होते हैं,
थाईराइड की समस्‍या चाहे हाइपरथायरॉडीज या हाइपोथायरायडिज्म हो, दोनों ही मामलों में मासिक धर्म के चक्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। थाइराइड का स्‍तर ज्‍यादा हो या कम लेकिन ये मासिक धर्म के लिए बिल्‍कुल भी ठीक नहीं है। हार्मोन्‍स की गड़बड़ी या असंतुलन की वजह से होता है। इस सिंड्रोम की वजह से ऑवरीज में अंडों का विकास होने में असफल हो जाता है। जिसकी वजह से मासिक धर्म में समस्‍या होती है। और संतान होने में भी समस्या आती है, जिसे आप दैनिक दिनचर्या में सुधार कर ठीक कर सकते हैं।

उपचार :-

1. कैल्शियम की मात्रा को संतुलित करें क्योंकि इसका सम्बन्ध चंद्रमा से है। माँ से संबंध मधुर रखें, पानी अपने वजन के अनुसार पियें। फ्रीज़ का सामान नहीं लें।

2. अपने क्रोध पर नियंत्रण रखें। भाई से संबंध मधुर रखें, क्योंकि रक्त का संबंध मंगल से है, मासिक में रक्त डिस्चार्ज होता है।

3. लाल मिर्च व खट्टा नहीं खायें और न ही लाल वस्त्र पहनें।क्योकि इससे क्रोध बड़ेगा।

4. सोना नहीं पहने, चाँदी के आभूषणों का प्रयोग अधिक किया करें।

5. पीले वस्त्र अधिक धारण करें, हल्दी मिश्रित दूध का सेवन किया करें।

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बथुआ

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बथुआ के गुण और लाभ :-

इन दिनों दिनों बाज़ार में खूब बथुए का साग आ रहा है, बथुआ संस्कृत भाषा में वास्तुक और क्षारपत्र के नाम से जाना जाता है, बथुआ एक ऐसी सब्जी या साग है, जो गुणों की खान होने पर भी बिना किसी विशेष परिश्रम और देखभाल के खेतों में स्वत: ही उग जाता है। एक डेढ़ फुट का यह हराभरा पौधा कितने ही गुणों से भरपूर है। बथुआ के परांठे और रायता तो लोग चटकारे लगाकर खाते हैं, बथुआ का शाक पचने में हल्का, रूचि उत्पन्न करने वाला, शुक्र तथा पुरुषत्व को बढ़ने वाला है। यह तीनों दोषों को शांत करके उनसे उत्पन्न विकारों का शमन करता है। विशेषकर प्लीहा का विकार, रक्तपित, बवासीर तथा कृमियों पर अधिक प्रभावकारी है।
– इसमें क्षार होता है, इसलिए यह पथरी के रोग के लिए बहुत अच्छी औषधि है, इसके लिए इसका 10-15 ग्राम रस सवेरे शाम लिया जा सकता है।
– यह कृमिनाशक मूत्रशोधक और बुद्धिवर्धक है।
-किडनी की समस्या हो जोड़ों में दर्द या सूजन हो ; तो इसके बीजों का काढ़ा लिया जा सकता है, इसका साग भी लिया जा सकता है।
– सूजन है, तो इसके पत्तों का पुल्टिस गर्म करके बाँधा जा सकता है, यह वायुशामक होता है।
– गर्भवती महिलाओं को बथुआ नहीं खाना चाहिए।
– एनीमिया होने पर इसके पत्तों के 25 ग्राम रस में पानी मिलाकर पिलायें।
– अगर लीवर की समस्या है, या शरीर में गांठें हो गई हैं तो, पूरे पौधे को सुखाकर 10 ग्राम पंचांग का काढ़ा पिलायें।
– पेट के कीड़े नष्ट करने हों या रक्त शुद्ध करना हो तो इसके पत्तों के रस के साथ नीम के पत्तों का रस मिलाकर लें, शीतपित्त की परेशानी हो, तब भी इसका रस पीना लाभदायक रहता है।
– सामान्य दुर्बलता बुखार के बाद की अरुचि और कमजोरी में इसका साग खाना हितकारी है।
– धातु दुर्बलता में भी बथुए का साग खाना लाभकारी है।
– बथुआ को साग के तौर पर खाना पसंद न हो तो इसका रायता बनाकर खाएं।
– बथुआ लीवर के विकारों को मिटा कर पाचन शक्ति बढ़ाकर रक्त बढ़ाता है। शरीर की शिथिलता मिटाता है। लिवर के आसपास की जगह सख्त हो, उसके कारण पीलिया हो गया हो तो छह ग्राम बथुआ के बीज सवेरे शाम पानी से देने से लाभ होता है।
– सिर में अगर जुएं हों तो बथुआ को उबालकर इसके पानी से सिर धोएं। जुएं मर जाएंगे और सिर भी साफ हो जाएगा।
– बथुआ को उबाल कर इसके रस में नींबू, नमक और जीरा मिलाकर पीने से पेशाब में जलन और दर्द नहीं होता।
– यह पाचनशक्ति बढ़ाने वाला, भोजन में रुचि बढ़ाने वाला पेट की कब्ज मिटाने वाला और स्वर (गले) को मधुर बनाने वाला है।
– पत्तों के रस में मिश्री मिला कर पिलाने से पेशाब खुल कर आता है।
– इसका साग खाने से बवासीर में लाभ होता है।
– कच्चे बथुआ के एक कप रस में थोड़ा सा नमक मिलाकर प्रतिदिन लेने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

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बंग भस्म

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बंग भस्म :-

बंग भस्म धातु वृद्धि, वीर्य वर्धक, वीर्य वृद्धि की सर्वोत्तम आयुर्वेदिक औषधि है, जिसे सेवन करने से धातु क्षीणता, वीर्यस्त्राव, स्वप्नदोष, शीघ्रपतन आदि रोग नष्ट होते हैं।
बंग भस्म से शुक्र संस्थान के लगभग सभी रोग नष्ट होते हैं, इस भस्म में यह गुण हैं कि यह शुक्र (वीर्य) की कमजोरी को दूर करती है, जब कोई पुरूष अधिक स्त्री सेवन अथवा अथवा अप्राकृतिक मैथुन या हस्तमैथुन करने से वातवाहिनी शिरा और मासपेशियां कमजोर होकर स्त्री प्रसंग करने में असमर्थ हो जाता है। जिसके परिणाम स्वरूप मन में उत्तेजक विचार आते ही या किसी सुंदर युवती को देखने अथवा बात करने से, या अश्लील तस्वीर आदि देखने मात्र से शुक्रस्त्राव होने लगता है। एेसी दशा में बंग भस्म का सेवन करना अच्छा है। यह औषधि रोग की अवस्था के अनुसार डा. की देखरेख में लेनी चाहिए।

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बालरोग चिकित्सा

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बच्चों के रोग :-

बच्चों की चिकित्सा बड़ों की चिकित्सा से बहुत अलग होती है, क्योंकि बच्चे अपने रोग या पीड़ा को शब्दों से नहीं बता सकते, चिकित्सक को उसकी पीड़ा संकेतों से ही समझनी होती है। इसके अतिरिक्त माता-पिता को उसकी हर तकलीफ पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है। बहुत मामलों में घरेलू नुस्खों से बहुत लाभ होता है, परंतु इसके लिए हर मां पिता को बच्चे के साधारण रोगों की या तकलीफ की जानकारी हो तो चिकित्सक के पास कम से कम जाना पड़ता है।
दस्त लगने पर : – 1. जायफल या सोंठ अथवा दोनों का मिश्रण पानी में घिसकर सुबह-शाम 3 से 6 रत्ती (करीब 400 से 750 मिलीग्राम) देने से हरे दस्त ठीक हो जाते हैं।

2. दो ग्राम खसखस पीसकर 10 ग्राम दही में मिलाकर देने से बच्चों की दस्त की तकलीफ दूर होती है।

पेट की गड़बड़ी या दर्द :- 5 ग्राम सोंफ लेकर थोड़ा कूट लें। एक गिलास उबलते हुए पानी में सोंफ लेकर थोड़ा कूट लें। एक गिलास उबलते हुए पानी में डालें व उतार लें और ढँककर ठण्डा होने के लिए रख दें। ठण्डा होने पर मसलकर छान लें। यह सोंफ का 1 चम्मच पानी 1-2 चम्मच दूध में मिलाकर दिन में 3 बार शिशु को पिलाने से शिशु को पेट फूलना, दस्त, अपच, मरोड़, पेटदर्द होना आदि उदरविकार नहीं होते हैं। दाँत निकलते समय यह सोंफ का पानी शिशु को अवश्य पिलाना चाहिए जिससे शिशु स्वस्थ रहता है।

अपचः- नागरबेल के पान के रस में शहद मिलाकर चाटने से छोटे बच्चों का आफरा, अपच तुरंत ही दूर होता है।

सर्दी-खाँसी :- 1. हल्दी का नस्य देने से तथा एक ग्राम शीतोपलादि चूर्ण पिलाने से अथवा अदरक व तुलसी का 2-2 मि.ली. रस 5 ग्राम शहद के साथ देने से लाभ होता है।

2. एक ग्राम सोंठ को दूध अथवा पानी में घिसकर पिलाने से बच्चों की छाती पर जमा कफ निकल जाता है।

3. नागरबेल के पान में अरंडी का तेल लगाकर हल्का सा गर्म कर छोटे बच्चे की छाती पर रखकर गर्म कपड़े से हल्का सेंक करने से बालक की छाती में भरा कफ निकल जाता है।
वराधः (बच्चों का एक रोग हब्बा-डब्बा)- सर्दी जुखाम और छाती में कफ व खांसी अक्सर रहना।

1. इस के लिए आक के पौधे की रूई का छोटा सा गद्दा बना लिया जायेगा, उस पर बच्चे को सुलाने से यह रोग ठीक हो जाता है।

2. जन्म से 40 दिन तक कुल मिलाकर दो आने भर (1.5 – 1.5 ग्राम) सुबह-शाम शहद चटाने से बालकों को यह रोग नहीं होता।
3. मोरपंख की भस्म 1 ग्राम, काली मिर्च का चूर्ण 1 ग्राम, इनको घोंटकर छः मात्रा बनायें। जरूरत के अनुसार दिन में 1-1 मात्रा तीन-चार बार शहद से चटा दें।

4. बालरोगों में 2 ग्राम हल्दी व 1 ग्राम सेंधा नमक शहद अथवा दूध के साथ चटाने से बालक को उलटी होकर वराध में राहत मिलती है। यह प्रयोग एक वर्ष से अधिक की आयुवाले बालक पर और चिकित्सक की सलाह से ही करें।

न्यमोनिया में :- महालक्ष्मीविलासरस की आधी से एक गोली 10 से 50 मि.ली. दूध अथवा 2 से 10 ग्राम शहद अथवा अदरक के 2 से 10 मि.ली. रस के साथ देने से न्यूमोनिया में लाभ होता है।

फुन्सियाँ होने परः- 1. पीपल की छाल और ईंट पानी में एक साथ घिसकर लेप करने से फुन्सियाँ मिटती हैं।

2. हल्दी, चंदन, मुलहठी व लोध्र का पाऊडर मिलाकर या किसी एक का भी पाऊडर पानी में मिलाकर लगाने से फुन्सी मिटती हैं।

दाँत निकलने परः -1. तुलसी के पत्तों का रस शहद में मिलाकर मसूढ़े पर घिसने से बालक के दाँत बिना तकलीफ के निकल जाते हैं।

2. मुलहठी का चूर्ण मसूढ़ों पर घिसने से भी दाँत जल्दी निकलते हैं।

नेत्र रोग के लिये:- त्रिफला या मुलहठी का 5 ग्राम चूर्ण तीन घंटे से अधिक समय तक 100 मि.ली. पानी में भिगोकर फिर थोड़ा-सा उबालें व ठण्डा होने पर मोटे कपड़े से छानकर आँखों में डालें। इससे समस्त नेत्र रोगों में लाभ होता है। यह प्रतिदिन ताजा बनाकर ही प्रयोग में लें तथा सुबह का जल रात को उपयोग में न लेवें।

हिचकीः धीरे-धीरे प्याज सूँघने से लाभ होता है।

पेट के कीड़े:- 1. पेट में कृमि होने पर शिशु के गले में छिले हुए लहसुन की कलियों का अथवा तुलसी का हार बनाकर पहनाने से आँतों के कीड़ों से शिशु की रक्षा होती है।

2. सुबह खाली पेट एक ग्राम गुड़ खिलाकर उसके पाँच मिनट बाद बच्चे को दो काली मिर्च के चूर्ण में वायविडंग का दो ग्राम चूर्ण मिलाकर खिलाने से पेट के कृमि में लाभ होता है। यह प्रयोग लगातार 15 दिन तक करें तथा एक सप्ताह बंद करके आवश्यकता पड़ने पर पुनः आरंभ करें।

3. पपीते के 11 बीज सुबह खाली पेट सात दिन तक बच्चे को खिलायें। इससे पेट के कृमि मिटते हैं। यह प्रयोग वर्ष में एक ही बार करें।

4. पेट में कृमि होने पर उन्हें नियमित सुबह-शाम दो-दो चम्मच अनार का रस पिलाने से कृमि नष्ट हो जाते हैं।

5. गर्म पानी के साथ करेले के पत्तों का रस देने से कृमि का नाश होता है।

6. नीम के पत्तों का 10 ग्राम रस 10 ग्राम शहद मिलाकर पिलाने से उदरकृमि नष्ट हो जाते हैं।

7. तीन से पाँच साल के बच्चों को आधा ग्राम अजवायन के चूर्ण को समभाग गुड़ में मिलाकर गोली बनाकर दिन में तीन बार खिलाने से लाभ होता है।

8. चंदन, हल्दी, मुलहठी या दारुहल्दी का चूर्ण भुरभराएँ।

9. मुलहठी का चूर्ण या फुलाया हुआ सुहागा मुँह में भुरभुराएँ या उसके गर्म पानी से कुल्ले करवायें। साथ में 1 से 2 ग्राम त्रिफला चूर्ण देने से लाभ होता है।

मुँह से लार निकलना:- कफ की अधिकता एवं पेट में कीड़े होने की वजह से मुँह से लार निकलती है। इसलिए दूध, दही, मीठी चीजें, केले, चीकू, आइसक्रीम, चॉकलेट आदि न खिलायें। अदरक एवं तुलसी का रस पिलायें। कुबेराक्ष चूर्ण या ‘संतकृपा चूर्ण’ खिलायें।

तुतलापनः -1. सूखे आँवले के 1 से 2 ग्राम चूर्ण को गाय के घी के साथ मिलाकर चाटने से थोड़े ही दिनों में तुतलापन दूर हो जाता है।

2. दो रत्ती शंखभस्म दिन में दो बार शहद के साथ चटायें तथा छोटा शंख गले में बाँधें एवं रात्रि को एक बड़े शंख में पानी भरकर सुबह वही पानी पिलायें।

3. बारीक भुनी हुई फिटकरी मुख में रखकर सो जाया करें। एक मास के निरन्तर सेवन से तुतलापन दूर हो जायेगा।

यह प्रयोग साथ में करवायें- अन्तःकुंभक करवाकर, होंठ बंद करके, सिर हिलाते हुए ‘ॐ…’ का गुंजन कंठ में ही करवाने से तुतलेपन में लाभ होता है।

शैयापर मूत्र (Enuresis)- सोने से पूर्व ठण्डे पानी से हाथ पैर धुलायें।

औषधीय प्रयोगः- सोंठ, काली मिर्च, बड़ी पीपर, बडी इलायची, एवं सेंधा नमक प्रत्येक का 1-1 ग्राम का मिश्रण 5 से 10 ग्राम शहद के साथ देने से अथवा काले तिल एवं खसखस समान मात्रा में मिलाकर 1-1 चम्मच चबाकर खिलाने एवं पानी पिलाने से लाभ होता है। साथ में पेट के कृमि की चिकित्सा भी करें।

दमा (श्वास फूलना):- बच्चे के पैर के तलवे के नीचे थोड़ी लहसुन की कलियों को छीलकर थोड़ी देर रखें, एवं ऊपर से ऊन के गर्म मोजे पहना दें। ऐसा करने से दमा धीरे-धीरे मिट जाता है। साथ में 10 से 20 मि.ली. अदरक एवं 5 से 10 मि.ली. तुलसी का रस दें।

सिर में दर्द:- अरनी के फूल सुँघाने से अथवा अरण्डी के तेल को थोड़ा सा गर्म करके नाक में 1-1 बूँद डालने से बच्चों के सिरदर्द में लाभ होता है।

बालकों के शरीर पुष्टि के लिए:- 1. तुलसी के पत्तों का 10 बूँद रस पानी में मिलाकर रोज पिलाने से स्नायु एवं हड्डियाँ मजबूत होती हैं।

2. शुद्ध घी में बना हुआ हलुआ खिलाने से शरीर पुष्ट होता है।

मिट्टी खाने की आदत होने परः- बालक की मिट्टी खाने की आदत को छुड़ाने के लिए पके हुए केलों को शहद के साथ खिलायें।

स्मरणशक्ति बढ़ाने के लिए:- 1. तुलसी के पत्तों का 5 से 20 मि.ली. रस पीने से स्मरणशक्ति बढ़ती है।

2. पढ़ने के बाद भी याद न रहता हो सुबह एवं रात्रि को दो तीन महीने तक 1 से 2 ग्राम ब्राह्मी तथा शंखपुष्पी लेने से लाभ होता है।

3. पांच‌ से 10 ग्राम शहद के साथ 1 से 2 ग्राम भांगरा चूर्ण अथवा एक से दो ग्राम शंखावली के साथ उतना ही आँवला चूर्ण खाने से स्मरणशक्ति बढ़ती है।
4. बदाम की गिरी, चारोली एवं खसखस को बारीक पीसकर, दूध में उबालकर, खीर बनाकर उसमें गाय का घी एवं मिश्री डालकर पीने से दिमाग पुष्ट होता है।
5. दस ग्राम सौंफ को अधकूटी करके 100 ग्राम पानी में खूब उबालें। 25 ग्राम पानी शेष रहने पर उसमें 100 ग्राम दूध, 1 चम्मच शक्कर एवं एक चम्मच घी मिलाकर सुबह-शाम पियें। घी न हो तो एक बादाम पीसकर डालें। इससे दिमाग की शक्ति बढ़ती है।

बच्चे को नींद न आये तब :- 1. बालक को रोना बंद न होता हो तो जायफल पानी में घिसकर उसके ललाट पर लगाने से बालक शांति से सो जायेगा।

2. प्याज के रस की 5 बूँद को शहद में मिलाकर चाटने से बालक प्रगाढ़ नींद लेता है।

स्रोत :- आरोग्य निधि पुस्तक।

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अश्वगंधा 

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अश्वगंधा प्राश (निर्माण विधि) :-


अश्वगंधा का चूर्ण 500 ग्राम, सोंठ का चूर्ण 250 ग्राम, बड़ी पीपल का चूर्ण 125 ग्राम, काली मिर्च का चूर्ण 50 ग्राम। दालचीनी, इलायची, तेजपत्र, और लौंग सभी प्रत्येक पचास-पचास ग्राम बारीक़ पीस लेवें, तदन्तर सबको 6 किलो भैंस के दूध में उबालकर उसमे 3 किलो 500 ग्राम चीनी, और 1 किलो 500 ग्राम शुद्ध घी लेकर उन्हें मिलाकर मिट्टी के बर्तन में मन्दाग्नि पर पकावें। जब उबाल आ जाये तो अश्वगंधा आदि के उपरोक्त समस्त चूर्ण को थोड़े दूध के साथ पकाकर इसमें डाल दें, और उसके बाद अग्नि पर इतना पकावें कि वह करछी से लगने लगें । तदनन्तर उसमें दालचीनी, तेजपत्र, नागकेशर, और इलायची का 20 ग्राम चूर्ण डालकर पकावें । जब उसमें चावल के समान दाने पड़ने लगें और घी अलग होने लगे तब उतारकर पिपलामूल, जीरा, गिलोय, लौंग, तगर, जायफल, खश, सुगंधवाला, सफेद चंदन, बेलगिरी, कमल, धनिया, धाय के फूल, वंशलोचन, आमला, खेर, कर्पूर, पुनर्नवा, वन तुलसी, चिता, और शतावर, प्रत्येक द्रव्य को पांच पांच ग्राम लेकर महीन चूर्ण बनाकर मिलावें और एक बर्तन में फेला देवें। शीतल होने पर प्रमाण अनुसार टुकड़े कर लें।
शास्त्रोक्त गुण धर्म :-

इसके सेवन से कफ, श्वास, अजीर्ण, वातरक्त, प्लीहा, मेदरोग, दुर्जय आमवात, शोथ, शूल, पाण्डु रोग, और अन्य वात कफ विकार नष्ट होते है। इसका एक मास तक प्रयोग करने से वृद्ध भी जवान बन सकता है। मन्दाग्नि के लिए यह बहुत ही हितकर है। यह प्राश शक्ति उत्तपन्न करने वाला तथा बालकों के शरीरों को बढ़ाने वाला है। यह सर्व व्याधि नाशक पाक है।

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शंख

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शंख का औषधीय महत्व

शंख का अध्यात्मिक महत्व ही नहीं है, भैषज्य रूप में भी बड़ा महत्व है। यह अनेक प्रकार से गुणकारी है तथा मस्तिष्क, पाचन तन्त्र, उदर और रक्त पर भी इसकी उपयुक्त क्रिया देखी गयी है। औषधी शास्त्र में इसके अनेक अद्भुत प्रयोग देखने में आते हैं। इसकी भस्म, वटी आदि का सेवन अनेक रोगों पर कराया जाता है। इस विषय में प्रसंगवश परिचय देना अपेक्षित है।

शंखोदक के लाभ-
शंख में जल भर कर दो-तीन घंटे तक रहने दें। फिर यह जल किसी विशेष रोगों पर लाभकारी होता है। किन्तु शंख जितना उत्तम श्रेणी का होगा, उतना ही प्रभावकारी सिद्ध होगा। सामान्य प्रकार के शंख इस कार्य में अल्प प्रभाव वाले ठहरते हैं।

शंख का जल मन को प्रसन्न करने वाला, मस्तिष्क को शीतल करने वाला होता है। इसकी मात्रा लगभग चार चम्मच होनी चाहिए, दिन में तीन-चार बार चार-चार घंटे के अंतराल पर देना चाहिए। इसके सेवन से अनेक रोग दूर हो सकते है, जैसे मृगी (अपस्मार), अपतंत्रक (हिस्टीरिया), जी घबराना, जी मिचलाना, मानसिक अशांति, थकान आदि। रक्त-संचालन की अनियमित प्रक्रिया पर भी यह अनुकूल रूप से प्रभाव डालती है। शंखोदक का प्रभाव हृदय पर भी हितकर पड़ता है।
शंख-भस्म-
शंख की आयुर्वेदिक विधि से भस्म बनाई जाती है। यह भस्म पाचन तंत्र पर भी विशेष प्रभाव डालती है। अजीर्ण, अग्निमांद्य, संग्रहणी आदि में अधिक हितकर होती है। जिगर, तिल्ली, गुल्म, आमांश, आम्लपित आदि में भी उपयोगी है। इसकी भस्म स्वर्णमाक्षिक की विधि से या अन्य विधियों से बनाई जाती है। वस्तुतः बिजौरे नींबू के रस में तपा-तपा कर शंख को सिद्ध कर लिया जाता है और फिर उसे कुलथी-क्वाथ, छांछ या बकरी के मूत्र में घोंट कर जगपुट में आरने उपलों की आग दे कर फूँक लेते हैं। किंतु भस्म बनाने का कार्य अनुभव-प्राप्त व्यक्ति ही ठीक प्रकार से कर सकता है। नये आदमी को असफलता हो सकती है।

आयुर्वेद की प्रसिद्ध शंखवटी-
इसमें मुख्य द्रव्य तो शंख ही है, जिसे नींबू स्वरस में तपा कर बुझाना होता है। यह वटी अजीर्ण, मंदाग्नि, ग्रहणी, उदर रोग तथा क्षय प्रभृति रोगों को दूर करने में उपयोगी है। पाठको की जनकारी के लिए इसका नुस्खा यहाँ लिखा जाता है- शंख, इमलीक्षार, पंचलवण समग्र, हिंग और त्रिकुट (सोंठ काली मिर्च, पीपल) 4-4 भाग, नींबू का स्वरस 20 भाग, पारा, गन्धक और वत्सनाभ 1-1 भाग।
बनाने कि विधि यह है कि नींबू के स्वरस में इमली खार और पाँचों नमक डाल कर घुलने दें तथा शंख को तपा-तपा कर इमलीक्षार नमक, नींबू के रस वाले घोल में कम से कम सात बार बुझायें। बुझाना अधिक पडता है। कुछ लोग इक्कीस बार तपा-तपा कर भी उचित मानते हैं। पारद-गंधक की कज्जली कर के मिलावें और शेष द्रव्य भी मिला कर एक प्रहर घोटते हुए नींबू के रस में ही एक-एक रत्तिप्रमाण गोलियाँ बना ले तथा आवश्यकता पड़ने पर लक्षणानुसार उचित अनुपान के साथ दवा का व्यवहार करना चाहिए। गंधक आदि द्रव्य को शुद्ध करके प्रयोग में लाने चाहिए।
महाशंख-वटि-
यह भी आयुर्वेद की एक प्रसिद्ध औषधी है। इसका व्यवहार उदरशुल, अर्जीण, मंदाग्नि आदि में अधिक होता है। यह गोलियाँ अन्न को पचाने वाली है। नियम निम्न प्रकार है- शंख, पंच लवन, हींग,इमली क्षार, त्रिकटु, गन्धक, पारद और वत्सनाभ। सभी समान मात्रा में लेने चाहिए। शंख को तपा-तपा कर शुद्ध कर लें। भावना द्रव्य चित्रक मूल क्वाथ, अपामार्ग पत्र स्वरस और नींबू का स्वरस। इन सब की सात-सात भावनाएँ देनी चाहियें। गंधक, पारद और वात्सनाम का प्रयोग भी शोधनोपरांत ही करें। क्योंकि यह द्रव्य भी अशुद्ध अवस्था में प्रयोग में नहीं लाये जाते। यह गोलियाँ दो-दो रत्ती की बना लेनी चाहियें। आवश्यकता होने पर उचित अनुमान से देने पर शीघ्र लाभ करती हैं। शंख का उपयोग इसी प्रकार अन्य अनेक रोगों में होता है। बहुत से आयुर्वेदिक नुस्खों में इसका उपयोग योगवाही रूप से भी होता है। किंतु भस्मादि के लिये भी शंख अच्छी किस्म का लेना चाहिए।

संदर्भ ग्रंथ- आयुर्वेद सार संग्रह

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गंगाजल

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गंगाजल से स्नान का महत्व:-

आयुर्वेद के अनुसार हमारे शरीर में 9 छिद्र होते हैं। वे रात में शयन करने से अपवित्र हो जाते हैं। अतः प्रातः स्नान अवश्य करे। तीर्थ में स्नान करना हो तो शौच वाला कपड़ा बदल देना चाहिये। स्नानादि के बाद ही तीर्थ-स्नान करना चाहिये; क्योंकि वह प्रशस्त तथा पुण्यजनक भी होता है। यदि गंगा में स्नान करे तो निम्नाकिंत मन्त्र से गंगाजी की प्रार्थना करे-

विष्णुपादाब्जसम्भूते गङ्गे त्रिपथगामिनि।
धर्मद्रवीति विख्याते पापं मे हर जाह्नवि।।
गङ्ग गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।
मुन्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।। (पुराण)

‘स्नान’ शब्द का अर्थ ही शुचिता है, और गंगाजल स्नान से तो शरीर और मन दोनों पवित्र होते हैं। हमारे शरीर में जो पसीना होता है, उसका जलीय अंश तो भाप बनकर उड़ जाता है, और पार्थिव अंश मैल बनकर जम जाता है। यदि नित्य स्नान करके उसे धोया न जाये तो शरीर में मैल की एक तह जम जायगी, जिससे रोमकूप के छिद्र बंद हो जायेंगे। इसका परिणाम यह होगा कि भीतर का मल तथा दुषित वायु बाहर नहीं निकल पायेगी, जिससे शरीर में दुर्गन्ध और अनेक रोगों की उत्पत्ति हो जायेगी।

स्नान ऐसी विधि से करना चाहिये, जिससे मैल अच्छी तरह छूट जाये। इसके लिये 2-4 चार लोटा पानी डाल लेना पर्याप्त नहीं, किंतु पर्याप्त जल लेकर शरीर को खूब रगड़ कर पानी से धोना चाहिये। यह कार्य अधिक जल वाले तालाब तथा बावड़ी में और सबसे अच्छा बहते हुए जल वाली नदियों में होता है; क्योंकि नदी में हमारे शरीर से निकलता हुआ मैल बहता जाता है और उसकी जगह नया स्वच्छ जल आता जाता है। इसीलिये धर्म शास्त्रों में घर की अपेक्षा तालाब, तालाब की अपेक्षा नदी और नदी की अपेक्षा गंगादि पवित्र जल वाली नदियों में स्नान को उत्तम माना है।

शास्त्रों में गंगाजल स्नान की पवित्रता का जो वर्णन है वह अंधविश्वास मात्र नहीं है। इस युग में भी गंगा के जल की पवित्रता को अपने अनेकों वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा परीक्षित भौतिक वैज्ञानिकों ने भी मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है। वैज्ञानिकों ने अति स्वच्छ गंगोत्री के जल का तथा अनेकों नदी-नाले, गंद मल-मूत्र के नाले। अति अस्वच्छ वाराणसी, कलकत्ते के गंगा जल का भी परीक्षण करके बताया है कि गंगा जल में रोग के कीटाणुओं को डालने पर वे दूसरे जलों की तरह वृद्धि को प्राप्त नहीं होते, प्रत्युत बहुत शीघ्र मर जाते हैं। वर्षों रखा रहने पर भी गंगा जल में कीड़े नहीं पड़ते। इसीलिये श्रद्धापूर्वक गंगाजल लाकर घर में रखते हैं और पूजा आदि कार्यो में तथा मृत्यु काल में मरते हुए प्राणी के मुख में डालते हैं। गंगा जल में कीड़े न पड़ने का गुण केवल गंगाजलत्व के कारण ही नहीं है, किंतु गंगाजी के पवित्र क्षेत्र का भी प्रभाव उसमें होता है। गंगाजी से निकली नहरों के विशुद्ध जल में तो कीड़े पड़ जाते हैं, परंतु गंगा क्षेत्र में बहती गंगाजी के अशुद्ध जल में कभी नहीं पड़ते!

दूसरी नदियों के जल की भाँति गंगाजल वर्षा-ऋतु में दूषित नहीं होता। प्रवाह में से निकाला हुआ गंगाजल बासी, ठंडा, गरम या अस्र्पशीय आदि से छू जाने पर भी दूषित नहीं होता। गंगाजी में रात्रि में भी स्नान करने से दोष नहीं होता। घर में लाकर गंगाजल स्नान करने पर भी अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। यह महात्म्य सर्वत्र शास्त्रों में निर्दिष्ट है। सर्व प्रथम सिर में जल डालना चाहिये; इससे सिर आदि की गर्मी पैरों से जाती है। इसके विपरीत पैरों में प्रथम गंगाजल डालने से पैर आदि अंगो की गर्मी मस्तिष्क (सिर) में पहुँच कर हानि पहुँचाती है। यही कारण है कि गंगा आदि जलाशयों पर पहुँचकर प्रथम सिर में गंगाजल धारण करके प्रणाम करने का शास्त्रों में विधान किया है। ऐसा करने से भौतिक विज्ञानानुसार उक्त लाभ तो होता ही है, किंतु असधिदैविक विज्ञानानुसार वरूण देवता तथा गंगा आदि देवियों का आदर भी हो जाता है। नदियों में जिधर से प्रवाह आ रहा हो उधर मुख करके स्नान करके स्नान करना चाहिये तथा बावड़ी, तालाब आदि में सूर्य की ओर मुख करके स्नान करना चाहिये। गंगाजल स्नान करते समय जल का स्पर्श पाते ही वाणी प्रफुल्लित हो जाती है, उसका सदुपयोग भगवान नाम का कीर्तन, स्तोत्रपाठ आदि द्वारा करना चाहिये। मनोविज्ञानानुसार गंगादि पवित्र तीर्थों के साथ मानसिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिये और आधिदैव विज्ञानानुसार साधारण जल को भी पवित्र जल बनाने के लिये निम्न श्लोक बोलना चाहिये-

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति। नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरू।।

बीमारी में भोजन करने के बाद, अजीर्ण में 10 बजे से 3 बजे तक रात्रि में स्नान करने से शारीरिक हानि होती है। बहुत वस्त्रों को पहने हुए स्नान करने से शरीर मर्दन में बाधा होती है। अलंकार-आभूषण धारण करके स्नान करने से आभूषणों की क्षति होती है। नग्न होकर नहाना निर्लज्जता का द्योतक तो होता ही है, जल देवता का निरादर भी होता है। इन सब कारणों से शास्त्रों में उक्त प्रकार से स्नान करने का निषेध किया है।

नातुरो न भुक्त्वा नाजीर्णे न बहुवाससा न नग्नो नाश्नन् नालङ्कृतो न सस्त्रजो न निशायाम्।।
दातुन करने के बाद स्नान- ध्यान का विधान है। किंतु स्नान के अंगभूत दो कार्य और हैं- 1. तैलाभ्यंग या तैल-मर्दन। 2. व्यायाम।

तैलाभ्यङ्ग त्वागिन्द्रिय को स्निग्ध बनाता है, शरीर में स्फूर्ति लाता है और शरीर पर पानी का बुरा असर नहीं होने देता।

स्पर्श ने चाधिको वायुः स्पर्शनं च त्वगाश्रितम्। त्वचश्च परमोऽभ्यङ्गस्तस्मात्तं शीलयेन्नरः।। (चरक)

अर्थात्-‘शरीर को स्वस्थ रखने के लिये अधिक वायु की आवश्यकता है। वायु का ग्रहण त्वचा के आधीन है, त्वचा के लिये अभ्यङ्ग (तेलमालिश) परमोपकारी है, इसलिये प्रतिदिन मालिश करनी चाहिये।

आयुर्वेदिक ग्रन्थों में तेलमालिश के बहुत गुण बताये गये हैं, जिनमें मुख्य ये हैं- बुढ़ापा, थकावट एवं वायुविकार का नाश करने के लिये तैलमालिश सिर, कान तथा पैरों में विशेष रूप में करनी चाहिये। इससे शरीर मजबूत होकर सुन्दर बनता है, वायुविकार शान्त होते हैं। नित्य तैलमालिश कराने वाला व्यक्ति क्लेश और श्रम को सहने योग्य हो जाता है। इससे मनुष्य कोमल स्पर्श वाला और पुष्ट अंगवाला तथा प्रियदर्शी होता है। इसमें बुढ़ापे के लक्षण कम होते हैं। सिर में प्रतिदिन तेल लगाने से शिरःशूल नहीं होता, बाल न तो झड़ते हैं और न गिरते ही हैं। शिरोऽस्थियों काो बल मिलता है। बाल मजबूत जड़ वाले, लम्बे और काले हो जाते हैं। सिर पर तेल लगाने से इन्द्रियाँ प्रसन्न (स्वच्छ) होती हैं और मुख का सौन्दर्य बढ़ जाता है। तेल लगा कर सोने से सुख की नींद आती है। इसी प्रकार कान को तेल से तर रखने से चरक के मतानुसार वातजन्य कान के रोग, मन्यास्तम्भ, हनुग्रह, ऊँचे सुनना और बहरापन नहीं होता है।

पैरों में तेल मालिश करने से पैरों की कठिनता, सूखापन, रूक्षता, थकावट और सुस्ती (त्वचा में स्पर्श ज्ञान न होना) इत्यादि-ये सब शीघ्र शान्त हो जाते हैं। पैरों में सुकुमारता, बल और स्थिरता बनी रहती है, नेत्रों की दृष्टि स्वच्छ होती है, और वायु शान्त होती है, किंतु तेलमालिश कुछ अवस्थाओं में वर्जित भी है। नये ज्वर में, अजीर्ण होने पर, विरेचन-वमन और निरूहण किये हुए मनुष्य को मालिश नहीं करनी चाहिये। इससे विविध हानियाँ होती हैं। शास्त्रों में सोमवार और शनिवार को तेल-मर्दन उत्तम और अन्य दिनों में निषिद्ध किया गया है; परंतु उन दिनों में तेल लगाने के लिये शास्त्रों ने इस उपाय से दोष-परिमार्जन बताया है-

रवौ पुष्पं गुरो दूर्वा भौमवारे च मृत्तिका। गोमयं शुक्रवारे च तैलाभ्यङ्गे न दोशभाक्।।

अर्थात्-‘रविवार को फूल, गुरूवार को दूर्वा, मंगलवार को मिट्टी और शुक्रवार को गोबर मिलाकर तेलमर्दन करने से दोष नहीं होता।’ ब्रह्मचारियों को तेल लगाना वर्जित है। ज्योतिषसार के अनुसार गृहस्थ को षष्टी, एकादशी, द्वादशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को भी तेल नहीं लगाना चाहिये; किंतु सरसों का तेल, सुगन्ध युक्त तेल, फूलों से वासित तेल और अन्य द्रव्यों से युक्त तेल दोषयुयुक्त नहीं माने जाते, अतः इन्हें सब दिन लगा सकते हैं।

शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी। वेहव्यायामसंख्याता मात्रया तां समाचरेत्।।

‘शरीर की जो चेष्टा देह को स्थिर करने एवं उसका बल बढ़ाने वाली हो उसे व्यायाम कहते हैं। उसे प्रतिदिन उचित मात्रा में करना चाहिये।’ (चरक) व्यायाम से कुछ ये लाभ हैं- शरीर की पुष्टि, कान्ति, शरीर के दीप्ताग्नि, आलस्य-हीनता (स्फूर्ति), स्थिरता, हल्कापन, शुद्धि, थकावट-सुस्ती, प्यास, गर्मी एवं ठंड आदि सहने की शक्ति और श्रेष्ठ आरोग्य प्राप्त होता है।

मोटापा को कम करने वाला कोई उपाय इस के समान दूसरा नहीं है। शत्रु का भय नहीं होता, बुढ़ापा सहसा आक्रमण नहीं करता। व्यायाम मर्दित और उद्वर्तित शरीर वाले के पास व्याधियाँ नहीं फटकने पातीं। व्यायाम से वय, रूप और गुण हीन मनुष्य भी देखने में सुन्दर लगता है। व्यायाम से विरूद्ध, कच्चा जला हुआ भोजन भी भली भाँति पच जाता है। व्यायाम एक नैत्यिक अनुष्ठेय कर्तव्य है।

नित्य स्निग्ध भोजन करने वाले बलवान् लोगों को व्यायाम सर्वदा हितकर है। शीत एवं वसन्तकाल में तो वह विशेष लाभप्रद होता ही है, किंतु कामी मनुष्य को सभी ऋतुओं में प्रत्येक दिन अपने बल की आधी शक्ति से व्यायाम करना चाहिये। परन्तु अधिक मात्रा में व्यायाम घातक होता है। उससे क्षय, अधिक प्यास, अरूचि, वमन, रक्त-पित्त, चक्कर, सुस्ती, खाँसी, शोष, ज्वर और श्वास-कष्ट-जैसे रोग होते हैं। कुछ व्यक्तियों के लिये व्यायाम हितकर नहीं होता। रक्त-पित्त के रोगी, कृश, शोष, श्वास-कष्ट, खाँसी और उरः क्षत से पीडि़त, तुरंत भेजन किया हुआ, स्त्री-प्रसंग से क्षीण तथा चक्कर से पीडि़त मनुष्य व्यायाम न करे।

टहलना देह को अधिक पीडि़त करने वाला नहीं होता; वह आयु, बल, मेेेधा (धारण शक्ति) और अग्नि को बढ़ाने वाला एवं इन्द्रियों को जागृत (चैतन्य) करने वाला होता है। (अधिक रास्ता चलना इसके विपरीत होता है, वह बुढ़ापा एवं दुर्बलता करने वाला होता है।) आयुर्वेद में टहलने को ‘चङ्क्रमण’ कहते हैं। इसे आधुनिक चिकित्सक भी अत्यावश्यक बताते हैं। अतः वृद्धादि को अवश्य टहलना (घूमना) चाहिये।

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