यंत्रा और मंत्रा

यंत्रा और मंत्रा प्रजनन के देवता काम ने कादिविद्या मूलमंत्रा की उपासना की थी। जिसके बल से कामदेव का सामर्थय इतना बढ़ गया की वह बड़े-बड़े मुनियों के चित्त को भी आच्छत् करने लगा। ब्लें रति का बीज मंत्रा है। ब् और ल् उसके नेत्रा हैं और ए शक्ति रूप है। वपुषा पद से व्, लेह्येत पद से ले और महतां मुनिनां पद के अनुस्वार से लेकर उक्त बीज मंत्रा का उद्धरण किया जाता है। माया बीज और कामबीज के योग से ‘‘हृी क्लीं ब्लें’’ इस साध्य सिद्धमंत्रा का उद्धार है। इस मंत्रा से हृदयचक्र और महानाद के ऊपर शक्ति का न्यास किया जाता है। अर्थात् यंत्राकृति तैयार की जाती है। जिस का फल सौभाग्य प्राप्ति है।

इसी प्रकार महामृत्युजय यंत्रा और मंत्रा का विचार करें तो देखते हैं- इसके बीज हृौं जूं सः’ शिव-शक्तिमय हैं। हृौं शिवबीज, जूं जीवनबीज, सः शक्तिबीज है। शिवबीज हृौं से जीवनशिक्ति जूं का आप्यायन होता है तथा शक्तिबीज सः से जीवनशक्ति (जीवनक्रम) की वृद्धि होती है। जूं (जीवनशक्ति) के शिवशक्त्याश्रय होने से जीवन वृद्धि का नाम मृत्यु्जयसिद्धि है।

अभिष्ट की प्राप्ति के लिये मंत्रा और तंत्रा का या इनकी शक्तियों और प्रतिक्रियाओं का जो प्रयोग प्रतिकात्मक अथवा चित्रात्मक रूप से किया जाता है, उस स्वरूप को ‘यंत्रा’ कहा जाता है।

यंत्रा एवं उसकी साधना करके लौकिक कामनाओं की पूर्ति की जाती है। अथवा कहा जा सकता है कि अपनी कामना पूर्ति के लिये यंत्रा साधना क्रियात्मक विधान है। इसके द्वारा साधक साध्य से मिलकर अपनी समस्त इच्छाओं की पूर्ति करता है। इन यंत्रों के द्वारा न केवल हमारी सांसारिक इच्छायें पूर्ण होती हैं, बल्कि लौकिक सिद्धियाँ भी मिलती हैं जिनसे दुःखों की निवृति और अंत में मुक्ति भी संभव है।

प्रस्तुत ‘‘यंत्रा विशेषांक’’ में अनेक प्रकार के यंत्रा सम्बंधी लेख भिन्न-भिन्न लेखकों के द्वारा दिये गये हैं। वस्तुतः प्रत्येक साधक (लेखक) के अपने-अपने अनुभव के आधार पर ही यंत्रा सम्बंधी लेख प्रकाशित किये गये हैं। इस के साथ मेरी अपनी राय यही है कि आप किसी भी सिद्ध साधक के द्वारा प्राण प्रतिष्ठित यंत्रा ही लें क्योकि यंत्रा स्वयं में जड होते हैं; इनकी जब तक प्राण प्रतिष्ठा नहीं करवाई जाती तब तक यह चैत्नय अवस्था में नही आते और ना ही अपना पूर्ण शुभ प्रभाव ही प्रकट करते हैं। अथवा प्राण प्रतिष्ठा का विधान स्वयं समझकर स्वयं ही प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हैं। यह भी ध्यान रहे की कभी-कभी यंत्रा पूजा की सम्पूर्ण विधि-विधान के बाद भी सिद्ध नहीं होते ऐसा उस पूजा की प्रक्रिया की सही जानकारी के आभाव के कारण होता है।

ग्रहों का रोगों से सम्बध

ग्रहों का रोगों से सम्बध रोग की कभी-कभी पहचान नहीं हो पाती और गलत उपचार के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है, मगर यदि डॅाक्टर, वैद्य या चिकित्सक इस कार्य के लिए ज्योतिष का सहारा लें, तो वह सहजता से उस रोग को पहचान सकते हैं, जिसकी वजह से रोगी कष्ट में है और इस दृष्टि से ज्योतिष और रोग का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह लेख आप सभी के लिए इतना ही आवश्यक है, जितना कि एक ज्योतिषी के लिए। वैदिक ज्योतिष के अनुसार किसी ग्रह द्वारा प्रदत्त रोग उस पर शनि, मंगल या राहू के प्रभाव के कारण प्रस्फुटित होते हैं। इनमें शनि अग्रणीय है। कुण्डली जब शनि का सम्बन्ध कुण्डली के रोग भाव अर्थात् छठे भाव से हो या इसका सम्बन्ध आठवें या बारहवें भाव से हो तो यह अपने से सम्बन्धित रोग देता है। इस पर इसके शुत्र ग्रहों का प्रभाव रोगों के आरोह अवरोह एवं उनकी विविधता देता है, तब इसके द्वारा प्रदत्त रोग शनैः शनैः बढ़ते या घटते हैं। शनि के द्वारा रोग उसके कारकत्व में आने वाले अंगों में होते हैं।

ये अंग हैं त्वचा, हड्डियां, घुटने, पैर, पित्ताशय, दांत, टांगें, अड्रेनलिन ग्रन्थि, हड्डियो को जोड़ने वाली मांसपेशियों के तन्तु। शनि प्रधान रोगों में वात विकार जोड़ों का गठिया, बाय का दर्द, जहरीले पदार्थ का सेवन, शरीर में जहरीले पदार्थो के बनने की प्रक्रिया, जैव रसायनों या अजैव रसायनों की कमी या बढ़ोत्तरी से पैदा होने वाले रोग प्रधानतया आते हैं। दूसरे ग्रहों के प्रभाव के साथ शनि का योगदान निम्न रोगों में भी होता है- बालों के रोग, तिल्ली या प्लीहा सम्बधित रोग, दायें पैर के पंजे का रोग, रिकेटस, जिह्ना सम्बन्धी रोग, आंखों से सम्बन्धित रोग जैसे मोतियाबिन्द, नाक के रोग, अण्डकोशों का बढ़ना, कुष्ठ, राज यक्ष्मा, लकवा होना, पागलपन आदि। शनि की दुश्मनी सूर्य से है। सूर्य का प्रभाव शनि पर पड़ने पर रोगों की शुरूआत होती है। शनि जनित रोग, पीड़ा या शनि जनित दुःखों की शुरूआत अन्तिम 60 बर्षो के अन्तराल में प्रभाव जातक पर होता है। लग्न गत शनि जातक को आलसी, गन्धीला, कामुक तो बनाता ही है, साथ ही उसे नाक सम्बन्धित दोश, रोग भी देता है।
शनि का प्रभाव गुरु पर होने से आकृति विवर्ण होने लगती है, कफ की प्रधानता हो जाती है, दृष्टि मन्द होने लगती है, सफेद मोतिया बढ़ने लगता है, सन्तोष कम होता है। यदि लग्न गत शनि की दृष्टि चन्द्रमा पर पड़ जाय, तो जातक पराधीन जीवन व्यतीत करता है। पराधीन जातकों का शनि नीच का, दुर्बल, शुत्र क्षेत्री हुआ करता है। वैसे लग्न गत शनि वाले व्यक्तियों को अपने पारिवारिक सदस्यों के अधीन वृद्धावस्था व्यतीत करनी पड़ती है। परन्तु यदि लग्न गत शनि धनु, मीन या बुध की राशियों का ही (यानी चतुर्थेश या दशमेश की राशि का हो), तो राजरोग कारक होता है, परन्तु रोग को देने से वंछित नहीं होता है, हां उपयुक्त इलाज के साधन भी जातक को उपलब्ध कराता है, लेकिन रोग के समाप्त होने या न होने की शर्त नहीं है। मिथुन का लग्न गत शनि फोडे़ं, फुन्सी, दाद, कैन्सर का कारक होता है। ऐसे जातकों की कुण्डली में बुध पर या शनि पर सूर्य, मंगल या राहू का प्रभाव हुआ करता है लग्न गत कर्क का शनि भी उपरोक्त फलों का जनक होता है। ऐसा शनि कई स्त्रियों से यौन सम्बन्ध करा लेता है। इस योग में यदि शुक्र-राहू का सम्बन्ध हो ओैर शुक्र शनि की राशि में हो या राहू शनि की राशि में हो तो ऐसे जातकों को अप्सरा, यक्षिणी, जिन्नी आदि की सिद्धि आसान होती है, परन्तु इसके कारण उसका पतन भी होता है।

सिंह राशि या कन्या का लग्न गत शनि पुत्र सुख में बाधा कारक होता है। द्वितीय भावस्थ मेष या वृषभ का शनि अल्पायु कारक होता है। चेहरे पर चोट का निशान या दाग देता है मिथुन का दूसरे भाव का शनि, परन्तु इस फल के लिये बुध पर सूर्य, मंगल या गुरू का प्रभाव भी होना चाहिये। दूसरे भाव में कर्क या सिंह राशि का शनि हो, तो जातक अल्पायु होता है, सम्भवतया वह राजदण्ड का भागी भी बने। तुला, वृश्चिक राशि का द्वितीयस्थ शनि जातक को पेट के रोग देता है। मीन का द्वितीय भावस्थ शनि राजदण्ड प्रदायक होता है। क्रूर, पापी ग्रहों का फल तीसरे भाव में अच्छा कहा जाता है। प्रायः ज्योतिष के सार ग्रंथ इस फल के लिये एकमत हैं, परन्तु यह उपयुक्त नहीं है।
तीसरा भाव आठवें से आठवां भाव है।भावाति भावम् सिद्धान्त के अनुसार इस भाव का सम्बन्ध मृत्यु के कारणों से भी है। इस भाव का शनि प्रायः दूसरे मारकों के कारकत्व को लेकर प्रधान मारक बन जाता है। परन्तु तुला, मकर कुम्भ का शनि इस का अपवाद है, यहां शनि अरिष्ठ नाशक बन जाता है, कर्क, सिंह राशि का शनि अल्पायु प्रदान करने के साथ-साथ जातक को अस्वस्थ भी रखता है, ऐसे जातकों की मृत्यु अस्वाभाविक कारणों से और तत्काल होती है। कन्या व तुला का तृतीयस्थ शनि मृत सन्तान पैदा कराता है। यह फल मंगल के द्वादश भावस्थ होने पर अवश्यम्भावी होता है। पंचम भाव में भी राहू या केतु का प्रभाव होना आवश्यक है इस फल के लिये। कन्या या तुला का तृतीयस्थ शनि हो, सूर्य पर राहू या केतू का प्रभाव हो, तो भी जातक को मृत सन्तान होती है। यदि सातवें भाव पर पाप प्रभाव हो और शनि तीसरे भाव में हो, तो जातक की पत्नी का सम्बन्ध उसके देवर या पर पुरूष से होता है। वृश्चिक या धनु या तृतीयस्थ शनि जातक की पत्नी के लिये घातक होता है।
चैथे भाव के शनि का सम्बन्ध अष्टमेश के साथ होने पर माता का सुख कम होता है, जातक वात रोग से भी पीडि़त रहता है। इसकी पुष्टि जातक के बालों की अधिकता और लम्बे नाखून करते हैं। इस भाव में सूर्य या मंगल या राहू का साथ या प्रभाव (शनि पर) होने पर शनि हृदय रोग का भी प्रदायक है। मेष चतुर्थ भावस्थ शनि भी हृदय रोग कारक होता है। चतुर्थ भावस्थ शनि वृद्धि कारक और लम्बी आयु देता है, इस भाव में बृषभ, कर्क और सिंह राशि के शनि का यही फल है। मिथुन का शनि यदि चैथे भाव में हो और दूसरे आयु कारक रोग भी न हों, तो पुत्र के हाथों मृत्यु कराता है या पुत्रहीनता का कारक होता है। कन्या का चैथे भाव में शनि जीवन पर्यन्त रोग भय देता है। तुला या वृश्चिक राशि का चतुर्थ भावस्थ शनि वात रोग देता है। मीन राशि चैथे भाव में हो, शनि भी चैथे भाव में हो, तो पूरे परिवार को नष्ट करता है।
शनि और सूर्य की युति प्रायः शुभ नहीं होती है, परन्तु पांचवें भाव में शनि, सूर्य की युति बहुत से बुरे फलों को नष्ट करने वाली होती है। सामाजिक पहचान एवं शिक्षा के क्षेत्र में पांचवें भावस्थ शनि, सूर्य पर गुरू का साथ या इसकी दृष्टि बहुत शुभ होती है, परन्तु प्रेम के क्षेत्र में असफलता देती है। पांचवें भाव में कर्क या सिंह का शनि अल्पायु और वृश्चिक या मकर का शनि सन्तान हीनता देता है। यही गुण द्वितीय भाव का स्वग्रही शनि भी देता है।
छठे भाव का शनि महिलाओं की कुण्डली में सौत का योग बनाता है। इस भाव का शनि गुह्य रोग, प्रमेह, मुधमेह, लकवा, वात रोग, पोलियो का कारक होता है। द्वादशेश शनि द्वादश में बैठ कर भी यही रोग देता है। अष्टमेश होकर यदि शनि छठे भाव में पडे़, तो विपरीत राजयोग कारक माना जाता है। परन्तु यदि ऐसा शनि वृश्चिक या धनु राशि का हो, तो वात रोग या शूल रोग कारक, नशा कारक, होता है। इस भाव में शनि मेष राशि होने पर जिगर और आंख; वृषभ का होने पर आंख व गुदा रोग, पित्ताशय, हृदय का रोग; मिथुन का होने पर दमा, मस्तिष्क सम्बन्धी, गुदा रोगों का; कर्क राशि का होने पर आमाशय आंख, हृदय रोगों का; कन्या राशि का होने पर शनि मूत्र सम्बन्धी; तुला का होने पर डिप्थीरिया; वृश्चिक का होने पर मस्तिष्क रोगों का कारक बनता है। कन्या राशि का शनि छठे भाव में हो, तो गिरने से चोट और रास्ते या विदेश में मृत्यु देता है। छठे भाव में तुला का शनि गिरने से चैट दे सकता है तथा जीवन, विशेषकर बाल्यावस्था कष्टकर होती है। वृश्चिक का शनि छठे भाव में पड़ कर सर्प, विष से भय देता है। इस भाव में धनु या मकर राशि का शनि राजयक्ष्मा रोग देता है।

मकर राशि का शनि स्त्री संसर्ग से मृत्यु देता है, एड्स एवं यौन रोगों की प्रबल सम्भावना रहती है। छठे भावस्थ कुम्भ या मीन का शनि पुत्र सुख की न्यूनता देता है। सातवें भाव में शनि दाम्पत्य भाव को विषमय ही नहीं बनाता, बल्कि बरबाद कर देता है। जातक की धूर्तता, क्रूरता, निर्दयता और मलिनता पत्नी को दूसरे पुरूष के आगोश में जाने को मजबूर कर देती है। पत्नी का यौन सम्बन्ध देवर या निकट के सम्बन्धी से बन जाता है ऐसे परिप्रेक्ष्य में। सातवें भाव का शनि निचले कटि प्रदेश और जाघों के ऊपर के भाग में रोगों का प्रकोप पैदा करता है। ऐसा शनि या तो सन्तान होने नहीं देता और यदि हो गई, तो वह रोगिणी होती है। सातवें शनि वाले जातक बिन ब्याहे रह जायें, तो काई आश्चर्य नहीं। उसका स्वग्रही शनि भी दाम्पत्य जीवन को सुखमय नहीं बना पाता है। सातवें भाव में मकर, कुम्भ या तुला राशि का शनि हो, तो ऐसे जातक के आकर्षण का केन्द्र स्त्री का गुप्तांग होता है, वह उसका स्पर्श, मर्दन, करना चाहता है या करता है। सप्तम शनि वैश्या गमन या पर स्त्री सम्बन्ध बनाता है। इस भाव में शुक्र या मंगल का सम्बन्ध इसको बल प्रदान करता है। शनि-चन्द्र युति इसी कारण वश गृहस्थों के लिये शुभ नहीं होती।

उदासीनता, वैराग्य, आलस्य, यौन विकृतियां मानसिक या स्थूल स्तर पर परिलक्षित होती हैं। सातवें शनि-चन्द्र युति होने पर। परन्तु संन्यासियों को सातवें चन्द्र-शनि की युति अच्छी मानी गयी है। सातवें भाव में महिलाओं की कुण्डलियों का शनि भी यही फल देता है। सिंह राशि का सातवां शनि सांस के रोग देता है, कफ सम्बन्धी रोग भी होते हैं। दशम भावस्थ कन्या राशि का शनि भी कफ जनित रोग देता है। धनु, मकर का सातवें भाव में शनि फोडे़, फुन्सी, भगन्दर, बवासीर, स्त्री समागम जनित रोग, कैन्सर आदि रोगों का कारक होता है। इनमें से कोई भी रोग मृत्यु का कारण बन सकता है। अपने पाप प्रभाव का मूर्त रूप अष्टम भाव में शनि बन जाता है अकसर। केवल तुला, मकर या कुम्भ राशि का शनि अष्टमस्थ होकर दीर्घायु कारक होता है। पर जातकों को मध्यम स्वास्थ भी देता है।
आठवें भाव का शनि बादी, बवासीर, भगन्दर, गुह्य रोग, कोढ़, नेत्र विकार, पेचिश, हृदय रोग, दाद, खारिश, फोड़े, प्रेमह आदि बीमारियां पैदा करता है। अष्टम भावस्थ शनि राशि क्रम से मृत्यु का कारण बनता है।

भूख, उपवास से बहुत भोजन या भोजन न मिलना, रिश्तेदारों के हाथ, से संग्रहणी से, शत्रु के हाथों से, पीलिया से, राजयक्ष्मा रोग से, प्रमेह से, मानसिक बीमारी, चर्म रोग (खुजली), कांटा या इन्जेक्शन या सर्प दंश से, फोड़े या कैन्सर से, ऊपर से गिरने से या चोट लगने से मृत्यु की सम्भावना होती है। इस सम्भावना को ब्रह्म वाक्य में बदलने के लिये अष्टमेश का निर्बल होना और पाप प्रभाव में होना सम्बन्धित रोगों का कारण होता है।

मेष का अष्टमस्थ शनि सूर्य या राहू या केतु के प्रभाव के कारण पेट से सम्बन्धित विकार, नेत्र रोग, संग्रहणी, विषमय शरीर विकार देता है। जिन जातकों की कुण्डली में मिथुन या कर्क का अष्टम भाव में शनि होता है, उनके लिए राजदण्ड़, फांसी का भय पैदा रहता है। यदि चोरी करना मानसिक वृत्ति हो सकती है, तो यह अष्टम शनि की देन होगी, परन्तु द्वितीय भाव का शनि भी चोरी करने की प्रवृत्ति देता है। मीन राशि का अष्टमस्थ शनि संग्रहणी, सर्प भय, विष भय कारक होता है। नवें, दसवें, ग्यारहवें भाव का शनि अपना पापत्व खो देता है। संन्यासियों की कुण्डली में सप्तम शनि अच्छा माना जाता है। नवें भाव का शनि संन्यासी को मठाधीश बना देता है।
नवम भावस्थ शनि पैरों में विकार देता है। मेष, मीन का नवमस्थ शनि पुरूषत्वहीनता या बांझपन देता है। एकादश भावस्थ पाप प्रभाव वाला शनि मृत सन्तान पैदा कराता है। वृष राशि का एकादश शनि पत्नी को सन्तान के जन्म पर मरणासन्न बना देता है। बारहवें भाव में आकर शनि पापी बन जाता है। ऐसा जातक पूर्णतः संसारी बन जाता है।, धर्म-कर्म में उसकी आस्था नहीं होती है, आधि दैविक आधि-व्याधि को भोगता हुआ जीता है, उनका उपचार नहीं करता है। पसलियों के रोग, जांघ का फोड़ा आदि रोग धनु का शनि द्वादश भाव में देता है, ऐसे जातक दुबले-पतले शरीर वाले होते हैं, आखें छोटी-बड़ी होती है। बारहवां शनि राहू या सूर्य के प्रभाव के कारण अन्धापन या कानापन देता है, मस्तिष्क के विकार भी हो सकते हैं। मिथुन का शनि द्वादश भाव में बैठ कर आत्मघाती प्रवृत्ति जातक को देता है, विषैले जानवरों के काटने, विषैले इन्जेक्शनों, पानी में डूबने के कारण होने वाले कष्ट भी होते हैं। सिंह का द्वादशस्थ शनि पुत्र सुख नहीं देता है। तुला, वृश्चिक का शनि राज भय कारक होता है।

शनि, चन्द्र, सूर्य की युति पर यदि मंगल का प्रभाव हो, तो जातक का विवाह बांझ स्त्री से होता है। आठवें भाव में बुध के साथ आयु कारक माना जाता है और शनि-चन्द्र की युति वैराग्य कारक होती है, परन्तु यही शनि-चन्द्र की युति तीसरे भाव में हो और बुध आठवें पड़ा हो, तो जातक अल्पायु होता है, जातक का परिवार नष्ट हो जाता है, जातक की मां को दीर्घकालिक रोग होते हैं। शनि-मंगल की युति तृतीय या चतुर्थ भाव में हो, या इन भावों से तीसरे, आठवें या दसवें भाव में शनि-मंगल हो, तो जातक की पत्नी की मृत्यु शादी के शीघ्र बाद हो जाती है जातक को अपने भाई के साथ रहना पड़ता है। तीसरे या चैथे या सातवें भाव में शनि-बुध की युति प्रायः निरोग शरीर देती है, परन्तु इस योग में जातक नीच कुल की स्त्री के साथ रहता है। शनि-मंगल की युति सातवें या दसवें में हो, चन्द्रमा जन्म लग्न से तीसरे या चैथे हो और बुध चैथे, आठवें या बारहवें भाव में पडें हों, शनि, चन्द्र, बुध चैथे, आठवें या बारहवें भाव में पड़े हों, शनि, चन्द्र, बुध सातवें या दसवें भाव में हों, तो दस वर्ष की आयु में जातक की मृत्यु होती है। गुरू, शनि, चन्द्र यदि दूसरे या बारहवें भाव में हो, तो आखों की रोशनी नष्ट करते हैं। शनि-बुध की युति पर मंगल का प्रभाव छठे भाव में हो, तो जातक भाइयों से लड़ कर घर-द्वार छोड़ देता है।

 

एक्युप्रेशर-सिद्धान्त और पद्धति

एक्युप्रेशर-सिद्धान्त और पद्धति हमारा शरीर संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है।यह शरीर श्रेष्ठ स्वंयचालित, कोमल, नाजुक, सुक्ष्म पर अत्यंत शक्तिशाली यंत्रों से सुसज्जित है। हृदय और फेफड़े कभी न रुकनेवाले पंप हैं, आँखें आश्चर्यजनक कैमरा और प्रोजेक्टर हैं, कान अद्भुत ध्वनि व्यवस्था है, पेट आश्चर्यजनक रासायनिक लॅबोरेटरी  है, नाडि़याँ (छमतअमे) मीलों तक फैली सूक्ष्म संचार-व्यवस्था हैं, अनंत क्षमतावाला यह मस्तिष्क अद्भुत कॅम्प्यूटर है। और सबसे बड़ी विशेषता इसमें यह है कि इन सभी यंत्रो के बीच सहयोग के कारण हमारा यह मानव शरीर सौ से भी अधिक वर्षों तक सुचारु रुप से कार्यरत रह सकता है।

हम सौ वर्षों से भी अधिक समय तक सरलता पूर्वक जी सकते हैं। हर किसी अच्छे यंत्र में ऐसी रचना होती है जब भी कोई बड़ा खतरा पैदा होता है, वह अपने आप बंद हो जाता है और दोबारा तभी चालू होता है जब आप उसका बटन दबाते हैं-जैसे रेफ्रिजरेटर और गरम पानी का गीज़र। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसी ही कोई रचना-व्यवस्था हमारे मानव शरीर रुपी यंत्र मे भी हो। यह सच है कि हमारे शरीर की रचना बहुत ही जटिल है, परंतु उसकी देखभाल करना बहुत ही आसान है। प्रकृति ने स्वंय हमारे शरीर में ऐसी व्यवस्था की है, जिसके द्वारा अपने आप सभी यंत्रों की देखभाल सुचारु रुप से होती रहती है। भारत में सैकड़ों वर्ष पूर्व से एक्युप्रेशर थैरेपी प्रचलित थी।

दुर्भाग्य से हम उसे अच्छी तरह संभाल नहीं सके और ‘एक्यूपंक्चर के रुप में वह श्रीलंका जा पहुँची। श्रीलंका से बौद्ध भिक्षु इस चिकित्सा पद्धति को चीन और जापान ले गए। वहाँ इसका व्यापक प्रचार हुआ। आज चीन संपूर्ण विश्व को एक्युपंक्चर पद्धति सिखा रहा है। सोलहवीं शताब्दी में रेड इंडियन्स एक्यूप्रेशर पद्धति द्वारा पैर के तलवे के बिन्दुओं का दबाकर रोग मिटाते थे। एक्युप्रेशर शब्द ‘एक्युपंक्चर’ शब्द से सम्बन्ध है। ‘एक्यु’ आर्थात सूई और ‘पंक्चर’ अर्थात छेद करना। ‘एक्युपंक्चर’ का अर्थ है सूई द्वारा शरीर के किसी भी बिंदु पर छेदकर रोग नष्ट करने या शरीर के किसी अंग को निरोग बनाने की कला। ‘एक्युप्रेशर’ का अर्थ है उँगली, अंगूठे अथवा किसी कुंद साधन से दबाव देकर शरीर को निरोग रखने की पद्धति।

हमारा शरीर पंच महाभूतों अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश जैसे पाँच मूल तत्वों से बना है। विद्युत उसका संचालन करती है। एक्युपंक्चर पद्धति में इस विद्युत के दो प्रकार माने गए हैं-पहला पॉज़िटिव  (ची) तथा दूसरा निगेटिव (चेन)। यह विद्युत प्राण-जीवन-बैटरी से उत्पन्न होती है। पंच महाभूतों या पंच तत्वों पर हमारे शरीर की विद्युत का नियंत्रण है। पश्चिमी देशों में भी अब इस विद्युत को जीव-विद्युत (बायो-इलेक्ट्रिसिटी-ठपव. म्समबजतपबपजल) अथवा जीवन-शक्ति (बायो- एनर्जी-ठपव.म्दमतहल) के रुप में स्वीकृति मिली है। यह प्राणशक्ति जीवन-बैटरी हमारे शरीर में गर्भाधारण के समय से ही स्थापित हो जाती है। यह जीवन-बैटरी अपरिवर्तनीय है और इससे चेतनारुपी विद्युत-प्रवाह उत्पन्न होता है।

इस बैटरी से चकाचैंध करने वाला सफेद प्रकाश उत्पन्न होता है। इसे कुछ यौगिक क्रियाओं द्वारा कपाल के मध्य भाग में बंद आँखों द्वारा देखा जा सकता है। इस प्रकाश के दर्शन अनेक लोगों ने और स्वंय इस लेखक ने भी किए हैं। इस बैटरी से उत्पन्न विद्युत-प्रवाह हमारे शरीर में प्रवाहित होता है। इसे हम चेतना कहते हैं। इस विद्युत-प्रवाह की भिन्न-भिन्न रेखाएँ ‘मेरीडिअन्स’ कहलाती हैं। ये दाहिने हाथ की उँगलियों और अंगूठे के सिरे से आरम्भ होकर शरीर के सभी भागों में होकर दाहिने पैर के अंगूठे और उँगलियों के सिरों तक जाती हैं। उसी तरह बाएँ हाथ की उँगलियों और अंगूठे के सिरों से उत्पन्न प्रवाह शरीर के बाएँ हिस्से में घूमकर बाएँ पैर के अंगूठे तथा उँगलियों के सिरों से उत्पन्न प्रवाह शरीर के बाएँ हिस्से में घूमकर बाँए पैर के अंगूठे तथा उँगलियों के सिरों तक जाता है। जब तक चेतना का यह विद्युत-प्रवाह शरीर में ठीक ढंग से घूमता रहता है, शरीर तंदुरुस्त रहता है। अत्यधिक श्रम, छीज आदि कारणों से जब यह विद्युत-प्रवाह शरीर के किसी भी अवयव तक ठीक से नहीं पहुँच पाता, तब वह अवयव सुचारु रुप से काम नहीं करता, इसलिए उस हिस्से में दर्द या रोग होता है। अतः इस प्रवाह को यदि उस अवयव तक पहुँचाया जाए, तो वहाँ होनेवाला दर्द-पीड़ा अथवा रोग (यदि हुआ हो, तो) दूर हो जाता है। इस प्रकार एक्यूप्रेशर एक ऐसी प्राकृतिक चिकित्सा पद्यति है, जो हमारे शरीर की भीतरी रचना द्वारा वाँछित भाग में आवश्यकतानुसार विद्युत-प्रवाह पहुँचाकर हमें रोगों से दूर रखती है। संचालन व्यवस्था एक्युपंक्चर, शीआत्सु या पॉइंटेड प्रेशर थैरेपी के अनुसार हमारे शरीर में विद्यमान विद्युत-प्रवाह की शिराओं पर पूरे शरीर में लगभग 100 बिंदु हैं। इन बिंदुओं पर दबाव डालकर या पंक्चरिंग कर रोग को मिटाया जा सकता है।

सामान्य लोगों के लिए एक्युप्रेशर पद्धति को समझना तथा इस पद्धति द्वारा उपचार करना अत्यंत सरल है। अतः कोई भी व्यक्ति, भले ही वह दस वर्ष का बालक ही क्यों न हो, इस पद्धति का अध्ययन व अभ्यास कर सकता है। हमारे शरीर में विद्युत-प्रवाह का स्विच-बोर्ड हाथ के दोनों पंजों तथा पैर के  दोनों तलवों में स्थित है। भिन्न-भिन्न स्विच कहाँ हैं, इस का अध्यन किया जा सकता है। अधिकतर अवयव और अंतःस्रावी ग्रंथियाँ शरीर के दाएँ व बाएँ भाग में स्थित हैं। अतः उनके स्पर्श-बिन्दु भी दाएँ व बाएँ पंजों एंव पैरों के दोनों तलवों में हैं। हृदय और तिल्ली (प्लीहा) शरीर के बाईं ओर है, इसलिए उनसे संबंधित बिंदु हाथ के बाएँ पंजे या बाएँ पैर के तलवे में हैं। लिवर, पित्ताशय (ळंसस इसंककमत) और आंत्रपुच्छ (।चचमदकपग) शरीर के दांई ओर हैं, अतः उनके बिंदु दाएँ हाथ के पंजे या दाएँ पैर के तलवे में हैं। सूर्य केन्द्र को छोड़कर अन्य सभी अवयवों की प्रकृति से हम परिचित हैं। ये दोनों केन्द्र विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं, अतः यहाँ इनकी विस्तृत जानकारी दी जाती है। सूर्य केन्द्र इसको ‘नाभिचक्र’ भी कहते हैं।

यह छाती के नीचे स्थित सभी अवयवों का संचालन करता है। इस नाभिचक्र का उल्लेख केवल भारतीय आयुर्वेद में ही मिलता है, अन्य किसी थैरेपी में नहीं। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि इस थैरेपी की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी। डायाफ्राम (पेट के परदे) के नीचे स्थित कोई भी अवयव यदि ठीक से काम न करे तो इस बिन्दु पर दबाव देना होता है।
नाभिचक्र परखने की पद्धति है:- सुबह खाली पेट सीधे लेट कर यदि नाभि पर उँगली या अंगूठे से दबाया जाए, तो वहाँ हृदय की धड़कन महसूस होगी। ऐसी धड़कन महसूस करने पर समझ लें कि यह चक्र सही हालत में है। यदि नाभिचक्र ठीक ढंग से काम कर रहा हो, तो नाभि से दाएँ स्तनाग्र और बाएँ स्तनाग्र के बीच का अंतर समान होता है। किंतु यदि यह नाभिचक्र ऊपर या नीचे की ओर सरका हुआ हो, तो उपर्युक्त अंतर नापने से मालूम होता है कि यह चक्र ऊपर चढ़ा हुआ है या नीचे उतरा हुआ है। अत्यधिक बोझ उठाने, पाचनशक्ति मंद पड़ने या गैस के दबाव से नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरक जाता है। ऐसी हालत में धड़कन नाभि में नहीं, उसके आसपास मालूम होगी। अत्यधिक वजन उठाने अथवा अत्यधिक गैस उत्पन्न होने पर नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरकता है। नाभिचक्र के ऊपर की ओर सरकने पर कब्जियत होती है और नीचे सरकने पर वायु के दबाव के कारण दस्तें लगती हैं। जब दवाओं से भी यह तकलीफ दूर नहीं हो तो एक्यूप्रेशर पद्धति की सहायता अवश्य लेनी चाहिए।
पाचन-क्रिया अक्सर खराब हो जाती है! यदि यह शिकायत दीर्घ काल तक चलती है तो, और कभी-कभी ऑपरेशन भी कराना पड़ता है। इसमें दवाओं से भी लाभ नहीं होता। ऐसी स्थिति में यह संभावना अधिक रहती है कि नाभिचक्र ऊपर की ओर सरका हुआ हो। इसलिए कोई भी उपचार शुरु करने से पहले इस बात की जाँच कर लें कि नाभिचक्र ठीक अपनी जगह पर है या नहीं? नाभिचक्र घड़ी के मुख्य स्प्रिंग जैसा होता है। यदि उसे अपने स्थान पर न लाया जाए, तो किसी भी उपचार से अपेक्षित परिणाम नहीं निकल सकता। निम्नलिखित पद्धतियों में से किसी भी एक पद्धति द्वारा नाभिचक्र को केंद्र-अपने मूल स्थान-में लाया जा सकता है। ये सभी प्रयोग प्रातः खाली पेट या भोजन के 3, 4 घंटे बाद किए जा सकते हैं।

  1. अंगूठे से नाभि के इर्द-गिर्द दबाव देकर नाभिचक्र को केन्द्र की ओर ठेलना।
  2. नाभि पर वज़न रखकर नाभिचक्र को केन्द्र की ओर सरकाना।
  3. सीधे लेट जाइए। दोनों हाथ शरीर से सटाकर रखिए। किसी से अपने दोनों घुटनों पर दबाव देने के लिए कहिए। जो अंगूठा निचली सतह पर हो, उस पैर के घुटने पर भी अधिक दबाव दीजिए। यदि आवश्वकता हो, तो दूसरा व्यक्ति एक हाथ में दोनों पैरों के अंगूठे पकडे़ रखें और जो अंगूठा नीचे हो उसे ऊपर खींचने का प्रयास करें। इस पर भी यदि दोनों अंगूठे एक लाइन में न आ पाएँ, तो यही क्रिया दोबारा कीजिए।
  4. सीधे लेट जाइए। दोनों हाथ शरीर से सटाकर रखिए। सिर के नीचे तकिया न रखें, सिर को जमीन पर टिकाइए। दोनों पैर ऊपर उठाइए और उन्हें जमीन से 10 अंश के कोण पर रखिए। फिर सिर को बिना जमीन से उठाए दोनों पैरों को सीधे रखते हुए धीमे-धीमे जमीन पर लाइए। इस प्रकार पाँच-छह बार कीजिए। इसके बाद इसकी जाँच कीजिए कि नाभि में धड़कन महसूस होती है या नहीं?
  5. जमीन पर सीधे लेट जाइए। साँस बाहर छोडि़ए। अब पुनः साँस लेने के र्पूव पेट को फुलाइए और इस स्थिति में यथासंभव अधिक समय तक रखिए। नाभिचक्र के अपने स्थान पर आने तक यह क्रिया बार-बार दोहराते रहिए।
  6. बाएँ हाथ की कोहनी के जोड़ में हाथ की हथेली जमाइए और झटके से अंगूठे द्वारा बाएँ कन्धे का स्पर्श कीजिए। जब तक ये अंगूठा बाएँ कंधे का स्पर्श न करे, तब तक यह प्रयत्न जारी रखिए। इसी प्रकार यह क्रिया दाएँ हाथ से कीजिए और साथ वाली आकृति से परीक्षण कीजिए।

जब भी कब्जियत अथवा दस्त की तकलीफ हो, तो सर्वप्रथम इस बात की जाँच कीजिए कि नाभिचक्र सही हालत में है या नहीं। ठीक हालत में न होने पर उसे ठीक कीजिए। एक रोगी को हाएटस हर्निया (भ्मपजने भ्मतदपं) था। डॉक्टर ने उसे ऑपरेशन करवाने की सलाह दी थी। उसका नाभिचक्र ठीक कर दिया गया। केवल दो दिन में ही उसकी तकलीफ दूर हो गई। एक स्त्री-रोग विशेषज्ञ महिला डॉक्टर को कई वर्षों से पेडू में दर्द होता था। उनका नाभिचक्र सही हालत में ला देने के पश्चात् वे एकदम ठीक हो गई। एक किशोरी के पेट में ऐसा दर्द था कि वह जो भी खाती-पीती, तुरन्त ही उल्टी होकर बाहर निकल जाता। वह बंबई के एक मशहूर अस्पताल में 21 दिनों तक रही, फिर भी रोग कोई भी निदान नहीं हो सका।

उसकी शिकायत पूर्वत जारी रही। पेट में ऐसी पीड़ा होती थी कि वह पलंग पर तड़पने लगती थी। जाँच करने पर पता चला कि उसका नाभिचक्र अपने स्थान पर सही हालत में नहीं है। उसका नाभिचक्र ठीक कर दिया गया और उसकी उल्टी बंद हो गई। उसे एक सप्ताह तक हरे रस और फल के रस पर रखा गया। उसकी सारी पीड़ा दूर हो गई। एक रोगी को लंबे अरसे से खूनी अर्श की तकलीफ थी। उसे ऑपरेशन करवाने की सलाह दी गई। ऑपरेशन के केवल तीन दिन पूर्व उसने एक्यूप्रेशर-विशेषज्ञ की सलाह ली। उसकी नाभिचक्र ठीक कर दी गई। फलतः इतनी तेजी से सुधार हुआ कि ऑपरेशन कराने की जरुरत ही नहीं रही।“ संभव हो तो ‘स्वास्थ्य-पेय’ या ताँबा, चाँदी और सुवर्ण-सेवित पानी पिएँ। जाली (मइ):बड़ी जाली अंगूठे व पहली उँगली के बीच में तथा छोटी जालियाँ उगँलियों के बीच में स्थिति हैं। यहाँ से ज्ञानतंतु (छमतअमे) रीढ़ के द्वारा हमारे शरीर में फैलते हैं। अतः ज्ञानतंतु (छमतअमे) संबंधी किसी भी गड़बड़ी मे इन जलियों पर एक्यूप्रेशर चिकित्सक द्वारा उपचार होना चाहिए। एक्युप्रेशर थैरेपी के अनुसार हाथ के पजों या पैर के तलवों के बिंदुओं व उनके आसपास दबाव देना पड़ता है। ऐसा करने से बिन्दु से संलग्न अवयव की ओर विद्युत-प्रवाह होने लगता है।

अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ:- ये शरीर के सभी अवयवों का संचालन करती हैं। उनके बिन्दुओं पर ज्यादा दबाव देना आवश्यक है। ऐसा करने से संबद्ध अंतःस्रावी ग्रंथि ठीक से काम करने लगती है। यदि कोई ग्रंथि कम सक्रिय हो, तो दबाव देने पर उसकी सक्रियता बढ़ती है और वह सुचारु रुप से काम करती है और यदि कोई अंतःस्रावी ग्रंथि अपेक्षाकृत अधिक काम करती हो, तो दबाव देने पर उसकी सक्रियता कम होती है-वह नियंत्रित होती है और मात्रानुसार कार्य करने लगती है। इस प्रकार केवल दबाव देकर अंतःस्रावी ग्रंथियों का नियमन हो सकता है। अंगूठे, पहली उँगली, कुंद पेन्सिल या लकड़ी की चूसनी (भ्ंदक डेंहमत) से बिन्दुओं पर दबाव दिया जा सकता है। किसी भी बिन्दु पर 4-5 सेकंड तक दबाव देना चाहिए। फिर 1-2 सेंकड के लिए दबाव हटा लें और पुनः दबाव दें। इसी प्रकार 1-2 मिनट पंपिंग पद्धति से दबाव दें अथवा भारपूर्वक मसाज करें। दबाव की मात्राः-जब हम किसी भी बिन्दु पर दबाव देते हैं, तब वहाँ हमें दबाव या भार का अनुभव होना चाहिए। ज्यादा दबाव जरुरी नहीं है। यदि नरम हाथ हों, तो कम दबाव देने पर भी दबाव का अनुभव होगा। अंतःस्रावी ग्रंथियों के बिन्दुओं को छोड़कर प्रत्येक बिंदु पर तिरछे से भार देने से पर्याप्त दबाव आएगा। यह छाती के नीचे स्थित सभी अवयवों का संचालन करता है।
इस नाभिचक्र का उल्लेख केवल भारतीय आयुर्वेद में ही मिलता है, अन्य किसी थैरेपी में नहीं। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि इस एक्यूपे्रशर थैरेपी की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी। डायाफ्राम (पेट के परदे) के नीचे स्थित कोई भी अवयव यदि ठीक से काम न करे तो नाभिचक्र की परिक्षा करवानी चाहिए।

नाभिचक्र परखने की पद्धति है:- सुबह खाली पेट सीधे लेट कर यदि नाभि पर उँगली या अंगूठे से दबाया जाए, तो वहाँ हृदय की धड़कन महसूस होगी। ऐसी धड़कन महसूस करने पर समझ लें कि यह चक्र सही हालत में है। यदि नाभिचक्र ठीक ढंग से काम कर रहा हो, तो नाभि से दाएँ स्तनाग्र और बाएँ स्तनाग्र के बीच का अंतर समान होता है। किंतु यदि यह नाभिचक्र ऊपर या नीचे की ओर सरका हुआ हो, तो उपर्युक्त अंतर नापने से मालूम होता है कि यह चक्र ऊपर चढ़ा हुआ है या नीचे उतरा हुआ है। अत्यधिक बोझ उठाने, पाचनशक्ति मंद पड़ने या गैस के दबाव से नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरक जाता है। ऐसी हालत में धड़कन नाभि में नहीं, उसके आसपास मालूम होगी। अत्यधिक वजन उठाने अथवा अत्यधिक गैस उत्पन्न होने पर नाभिचक्र ऊपर या नीचे सरकता है। नाभिचक्र के ऊपर की ओर सरकने पर कब्जियत होती है और नीचे सरकने पर वायु के दबाव के कारण दस्तें लगती हैं। जब दवाओं से भी यह तकलीफ दूर नहीं हो तो एक्यूप्रेशर पद्धति की सहायता अवश्य लेनी चाहिए।
नोट- नाभीचक्र की परिक्षा और उपचार किसी अनुभवी वैद्य अथवा एक्यूप्रेशरिस्ट से करवानी चाहिए।

चमत्कारी पौधा अशोक

चमत्कारी पौधा अशोक शोक वृक्ष के नाम से हम सभी परिचित हैं। यह वही वृक्ष है जिसकी छाया तले लंका में माता सीताजी को रखा गया था। यह एक सुंदर सुखद, छाया प्रधान वृक्ष है। इसके पत्ते 8 से 10 इंच लम्बे तथा 2 से 3 इंच चैडे होते हैं। प्रारम्भ में इन पत्तों का रंग ताम्रवर्ण का होता है- इसीलिए इसे ‘‘ताम्र पल्लव’’ भी कहा जाता है। इसके पुश्प गुच्छों में लगते हैं। तथा पुश्प काल में पहले ये नारंगी तदुपरांत लाल रंग के हो जाते हैं। इसलिए अशोक का एक नाम ‘‘हेम्पुश्प’’ भी है। अशोक के पुश्प वसंत ऋतु में खिलते हैं। पुश्पित होने पर ये मन को आनंदित करने वाले होते हैं।

औशधीय  चमत्कार- अपनी सघन सुखदायिनी छाया के द्वारा इस वृक्ष ने जिस प्रकार माँ सीता के दुख को कम किया था। ठीक उसी प्रकार इस वृक्ष के अनेक औशधीय प्रयोग भी हैं। जो कि स्त्रियों में होने वाली व्याधियों को हरने में सक्षम है। वास्तव में इसकी छाल में ‘‘टेनिन’’ तथा ‘‘कैटेचिन’’ नामक रसायन पर्याप्त मात्रा में होते हैं। ये रसायन ही औशधीय  महत्व के हैं। इसलिए औशधी के रूप में इसकी छाल का ही अधिक उपयोग किया जाता है। अशोक से निर्मित अशोकारिष्ट नामक एक आयुर्वेदिक औशधी के गुणों से हम सभी भली-भाँति परिचित हैं।
अश्मरी (पथरी) रोग में- अशोक के बीजों के 2 ग्राम चूर्ण को जल के साथ नित्य कुछ समय तक सेवन करने से अश्मरी रोग का शमन होता है।
गर्भपात रोकने के लिए- प्रायः अनेक महिलाओं को गर्भाशय की निबर्लता के कारण गर्भपात होता है अथवा कभी-कभी महिलाओं को अधिक रक्तस्राव होने लगता है। शास्त्रों में इसके लिए ‘‘अशोक-घृत’’ लेने की सलाह दी गयी है अथवा ऐसे मामले में अशोक की छाल का चूर्ण थोड़ी-सी मात्रा में गाय के दूध के साथ लेने से लाभ हाता है। इस के लिए एक मात्रा 2 से 4 ग्राम की होती है और इसे लगभग एक सप्ताह लेना होता है।
मासिक धर्म की गड़बड़ी- जिन महिलाओं को मासिक धर्म अधिक होता हो अथवा अनियमित होता हो उनके लिए भी अशोक की छाल का व्यवहार करना हितकर है। इसके लिए रोगी महिला को लगभग 2 तोला मात्रा अशोक की छाल लेकर उसे दूध में उबालें जब दूध पर्याप्त गाढ़ा हो जाए तब छाल को अलग कर उस दूध में भरपूर अथवा आवश्यक मात्रा में खांड मिलाकर सेवन करना चाहिए। लिए जाने वाले दूध की मात्रा 250 मिली लीटर हो। इसका सेवन 3 दिन तक करना चाहिए।

रक्त प्रदर में रक्त प्रदर और अधिक मासिक स्राव की स्थिति में अशोक की छाल और सफेद जीरे का आसव भी बहुत लाभकारी है। इसे बनाने के लिए छाल और सफेद जीरे की 2-2 तोला मात्रा लेकर उन्हें आधा सेर जल में उबालते हैं। जब लगभग चैथाई पानी रह जाय तब उतार कर इसे छान लें और इसमें खांड मिलाकर सुबह-सुबह सेवन करें इससे रक्त प्रदर और अधिक मासिक स्राव के विकार दूर होते हैं। यह आसव एक बार में लगभग 2 तोला सेवन किया जा सकता है तथा दिन में 3 या 4 बार सेवन करें।

श्वेत प्रदर में– श्वेत प्रदर से पीडित महिलाओं को अशोक की छाल का दुग्ध कषाय लेना चाहिए। इस कषाय को बनाने के लिए लगभग 250 मि0 ली0 दूध और 100 ग्राम अशोक छाल मिला कर इस मिश्रण को इतना गरम करें कि सम्पूर्ण जलीय अंश उड़ जाए, इसके पश्चात् प्राप्त दूध की लगभग 2 या 3 तोला मात्रा दिन में दो बार लें। यह प्रयोग मासिक स्राव के चैथे दिन के पश्चात् से प्रारंभ करें। इस प्रकार यह महिलाओं के लिए एक अमोघ औशधी है।
अशोक के तांत्रिक चमत्कार- तंत्रशास्त्रों में अशोक के अनेक प्रयोग वर्णित हैं-
1. जिस घर में उत्तर की ओर अशोक का वृक्ष लगा हो उस घर में बिनबुलाए शोक नहीं आते।
2. सोमवार के दिन शुभ मुहूर्त में अशोक के पत्तों को घर में रखने से घर में शांति व श्री वृद्धि होती है।
3. अशोक वृक्ष का बाँदा चित्रा नक्षत्र में लाकर रखने से ऐश्वर्य वृद्धि होती है।
4. उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में निकाला गया अशोक का बाँदा अदृश्यीकरण हेतु प्रयुक्त होता है।
5. अशोक के वृक्ष के नीचे स्नान करने वाले व्यक्ति की ग्रहजनित बाधाएँ दूर होती हैं।
6. मंदबुद्धी/स्मृति लोप वाले जातक या जिनकी पत्रिका में बुध नीच का बैठा हो उनके लिये अशोक वृक्ष के नीचे स्नान करना कष्ट निवारक होता है।
7. इस वृक्ष को घर के उत्तर दिशा में रोपित करने से वास्तुदोश का निवारण होता है।
8. अशोक का वृक्ष घर में होने से घर में लगे अन्य अशुभ वृक्षों का दोश शांत हो जाता है।

कमल का औशधीय महत्व

कमल का औशधीय  महत्व कमल को हिन्दी मराठी एवम् गुजराती में इसी नाम से जाना जाता है। इस के अतिरिक्त इसे कन्नड़ में बिलिया ताबरे, तेलगू में कलावा, तमिल में अम्बल या सामरे, मलयालम में अरबिन्द, पंजाबी में कांवल, सिन्धी में पबन, संस्कृत में पुण्डरीक, पद्म, रक्त-पद्म, शत-पत्र, अग्रेजी में लोटस तथा लेटिन में नेलम्बियम, स्पेसियोसम कहते हैं। नीलकमल का वनस्पति भाषा में नाम नेलम्बियम न्यूसीफेरा है। यह वनस्पति जगत निम्फीऐसी कुल में आता है।
संक्षिप्त विवरण- कमल के नाम से हम सभी भली भाँति परिचित हैं। यह एक बड़ा जलज क्षुप है जो कि बहुधा गम्भीर और निर्मल नीर वाले स्वच्छ सरोवरों तथा तालों में उत्त्पन्न होते हैं। इनके पत्ते बड़े-बड़े और गोल तथा चिकने (जिन पर जल का बिन्दु न ठहरे) होते हैं। कमल के पुश्प के नीचे डन्डी होती है उसको मृणाल अर्थात् कमल नाल कहते हैं। कमल पुश्प में उपस्थित ‘‘पीले जीरे’’ को कमल केशर तथा कमल पुश्प की रज को मकरंद तथा कमल के पुश्प के पश्चात् जो फल लगते हैं उन्हें पद्म कोश कहते हैं। पद्म कोश में निकलने वाले बीजों को कमल गट्टा तथा कमल की जड़ को मसीड़ा कहते हैं।

आयुर्वेद का मत आयुर्वेद के मतानुसार कमल शीतल, वर्ण को उत्तम करने वाला, मधुर और कफ-पित्त, तृषा, दाह, रूधिर विकार, फोड़ा, विष तथा विसर्प नाशक है। यह हृदय को शांति एवं चित्त को आनंदित करने वाला है। इस के अलावा कमल केशर शीतल, वृष्य, कसैली, ग्राही, कफ, पित्त तथा दाह, तृषा, रक्त विकार, बवासीर, विष, सृजन, इत्यादि का शमन करने वाली होती है। मृणाल शीतल, वृष्य भारी, पाक में मधुर, दुग्धवर्द्धक, वातकफकारक, ग्राही, रूक्ष, पित्त, दाह तथा रक्त विकार को दूर करने वाली है। कमलगट्टा स्वादु, कड़वा, और उत्तम गर्भस्थापक होता है। यह रक्त पित्त का शमन करता है और वात को बढ़ाता है। भवप्रकाश के अनुसार यह कफ एवं वात को हरनेवाला है।
कमलनाल, अविदाही, रक्त और पित्त को शुद्ध करने वाली मधुर, रूक्ष, तथा पित्त और दाह शामक है। यह मूत्र कृच्छ नाशक तथा उत्तम रक्त वर्द्धक एवं वमनहर है।
कमलपत्र शीतल, कड़वे, कसैले तथा दाह, तृषा, मूत्र कच्छ और रक्त-पित्त नाशक होते हैं।

कमल के भेद-
कमल में पुश्प, वर्ष और आकार भेद से अनेक जातियाँ होती हैं। इन सब में ‘‘सूर्य विकासी’’ व ‘‘चन्द्र विकासी’’ प्रमुख हैं। इनमें से सूर्य विकासी बड़े तथा चन्द्र विकासी छोटे होते हैं। इन दोनों ही प्रकार में श्वेत, रक्त तथा नील ये 3- 3 भेद हैं।

कमल के औशधीय  प्रयोग-
1. नवीन श्वेत प्रदर में- नील कमल की केसर सेंधव नमक, जीरा तथा मुलैठी को समभाग लेकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को 5 ग्राम की मात्रा में दही अथवा शहद के साथ सेवन करने से श्वेत प्रदर का नाश होता है।
2. रक्तार्श में- 5 ग्राम कमल केशर प्रतिदिन सुबह मक्खन के साथ लेने से शीघ्र ही रक्तार्श नष्ट होता है।

  1. दाह शमन हेतु- कमन और केले के पत्तों को बिछा कर उसपर शयन करने से शरीर की दाह शांत होती है। पुनः यदि शरीर पर इसी के साथ-साथ चंदन के पानी का भी छिड़काव किया जाय तो और भी जल्दी आराम होता है।
  2. वमन नाश हेतु- कमल गट्टे को भूनकर उसकी गिरी को सेवन करने से वमन का नाश हाता है। किंतु इस प्रयोग में गिरी के मध्य का हरे रंग का अंकुर निकाल देना चाहिए।
  3. कूचों को कठोर करने के लिए- कूचों को कठोर करने के लिए कमल गट्टा, हल्दी तथा असगंध समान मात्रा में लेकर और दूध में पीसकर उसमें बराबर मात्रा में मिश्री मिला कर 10 ग्राम मात्रा में दूध के साथ सेवन की जाय तो शीघ्र लाभ दिखाई देता है।
  4. समागम शक्ति बढ़ाने के लिए- कमल की जड़ को तिल के तेल में औटाकर रख लें इस तेल की सिर में मालिश करने से सिर तथा नेत्रों में तरावट आती है। तथा समागम की शक्ति बढ़ती है।
    7. स्वप्न दोश के लिए- कमल के पत्तों को बिछौने के नीचे बिछाकर उसपर शयन करने से स्वप्न दोश में कमी आती है।
    8. सिर की शीतलता के लिए- एक लीटर तेल में कमल के पंचांग को ड़ालकर औटावें जब वह जल जावे तो छानकर रख लें, इस तेल को सिर में लगाने से सिर में तनाव तथा पीड़ा दूर होती है।
    9. रक्त प्रदर में- कमल केशर, मुलतानी मिट्टी और मिश्री के चूर्ण को फाँककर ऊपर से जल पीने से रक्त प्रदर मिटता है।
    10. कांच निकलने में- कमल के पत्तों को पीसकर खांड के साथ सेवन करने से कांच का निकलना बंद हो जाता है।
    11. गर्भाशय से रक्तस्राव होने पर- गर्भिणी के गर्भाशय से रक्तस्राव होने पर कमल पुष्पों का फाण्ट देने से रक्तस्राव शीघ्र ही बंद होता है। यह गर्भिणी के लिए निर्दोश उपाय है।
    12. स्त्रीयों की दुर्बलता के लिए- कमल गट्टे के चूर्ण को मिश्री मिले हुए दूध के साथ एक माह तक सेवन करने से स्त्रीयों के शरीर की दुर्बलता दूर होती है।
    कमल का ज्योतिषीय महत्व
    1. जिस की जन्मपत्रिका में लग्न स्वामी की स्थिति निर्बल हो उस जातक को कार्तिक मास में नित्यप्रति विष्णु व लक्ष्मी जी की प्रतिमा पर कमल के फूल अर्पित करने चाहिएं। ऐसा करने से लग्नेश का दोश दूर हो जाता है।
    2. जो व्यक्ति रविवार के दिन इलायची, साठी चावल, खस, मधु, अमलतास, कमल, कुंकुम, मेनसिल तथा देवदार को जल में ड़ाल कर उस जल से स्नान करता है उस की सुर्य पीड़ा शांत होती है। 7 रविवार यह प्रयोग करना चाहिए।
    कमल का तांत्रिक महत्व
    1. शास्त्रानुसार लक्ष्मी जी की पूजा में कमल के पुष्पों को अर्पित करना बहुत शुभ होता है।
  5. कमल गट्टे तथा हल्दी की गाँठ दोनों पांच-पांच पीस लेकर अपनी तिजोरी में रखने से उसमें धन-धान्य की बरकत बनी रहती है।
    कमल का वास्तु में महत्व
    घर के ईशान क्षेत्र में एक छोटा सा तलाब बना कर उसमें नीलकमल या रक्त कमल का रोपण करने से उस घर में लक्ष्मी जी का सदा वास रहता है।

औषधी (वनस्पति) तंत्र

औषधी (वनस्पति) तंत्र आज मानव भौतिक विज्ञान के शिखर पर पहुँच कर भी प्रकृति के सम्मुख बौना ही है। वह प्रकृति के रहस्यों का उदघाटन करने के बावजूद, भी सृष्टि के अंशमात्र से भी परिचित नहीं हो पाया है।
पृथ्वी पर कितने ही प्रकार के पेड़- पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु तथा वनस्पतियाँ हैं, किन्तु उनका पूर्ण विवरण आज तक तैयार नहीं किया जा सका। प्रत्येक जीव-जन्तु और वनस्पति के अपने कुछ गुण-दोश हैं।

तंत्र के प्रारम्भिक- युग में, जिज्ञासु-साधकों के द्वारा किये गये अनुसन्धान के फलस्वरूप हमें वनस्पति शास्त्र और पदार्थ-विज्ञान तथा इनके मिश्रित रूप आयुर्वेद-शास्त्र सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। वह विपुल साहित्य और वे ग्रन्थ-प्रकृति की रहस्यमता पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। महर्षियों के अपनी दीर्घकालीन-शोध और अनुभवों के आधार पर विभिन्न वानस्पतिक-पदार्थो के जो बहु-उपयोगी प्रयोग-परिणाम घोषित किये हैं, उसमें से दो-एक का आंशिक-विवरण (तन्त्र-सन्दर्भ में) यहाँ प्रस्तुत है।
ये प्रयोग विभिन्न प्रकार की समस्याओं के निराकरण हेतु निश्चित किये गये हैं। एक समय इनका देश-व्यापी प्रचार था। काल के प्रभाव से ये लुप्तप्रायः हो गये और आज इनके ज्ञाता साधक गिने-चुने ही रह गये हैं। उनमें भी जो वास्तविक ममज्र्ञ और समर्थ हैं, वे एकान्त सेवी, निस्पृहः और विशुद्ध साधक हैं, पर जो अल्पज्ञ, प्रशंसा-लोलुप, अर्थकामी और विवेक-शून्य हैं, वे डंके की चोट पर अपना प्रचार करते हुए, आडम्बर के जाल में आस्थावान लोगों को फँसाकर लूटने का कार्य कर रहे हैं।
उनके इस आचरण का भेद खुलने पर जन-सामान्य में इन विषयों के प्रति अनास्था ही उत्पन्न होती है, फलस्वरूप नैतिकता, अध्यात्म और संस्कृति का ह्रास होकर अनैतिकता, अराजकता, विभ्रम और पतन का वातावरण निर्मित होता है। मैं मंत्र- तंत्र पर अनुसंन्धानरत बुद्धिमान साधकों से आशा करता हूँ कि वह इन को पहचानें और इन की पोल खोंलें।
लगभग सभी नगण्य प्रतीत होने वाली वनस्पतियों की आश्चर्यजनक उपयोग- विधियों का उल्लेख करते हुए, महर्षियों ने इस सत्य को प्रतिपादित किया है कि सृष्टि का एक कण भी व्यर्थ नहीं है, सबकी ही कुछ न कुछ उपयोगिता है। आवश्यकता है केवल उन्हें परखने और प्रयुक्त करने की। सृष्टि में जहां एक ओर आम, अमरूद, केला, कटहल, नींबू और नारियल जैसे फल हैं। गेहूँ, जौ, चना, धान आदि जैसे अनाज हैं। वहीं घास-पात कही जाने वाली जड़ी-बूटियों में भी अद्भुत गुण समाहित हैं।

अद्भुत गुणों से युक्त्त– अपामार्ग पौधे का विवरण प्रस्तुत है। अपामार्ग, लटजीरा, अंझाझार, ओंगा, चिरचिटा- यह सब एक ही पौधे के नाम है। यह समग्र भारतवर्ष तथा एशिया के उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में पाया जाता है। वर्षा का प्रथम पानी पड़ते ही आपामार्ग के पौधे अंकुरित होते हैं।

 

टाईफाइड बुखार और आयुर्वेद

टाईफाइड अर्थात “मियादि बुखार” किसी ज़माने में टाईफाइड को मियादि बुखार इस लिये कहा जाता था क्योंकि इसकी कोई एन्टीबायोटिक नही बनी थीं। यह बुखार अपनी मियाद से ही जाता था। 7, 14, 21, 28, 35 या 42 दिन का चक्र इसके रोगाणुओं का होता है। लगभग 30 – 35 वर्ष पूर्व ही इसके लिए एंटीबाोटिक्स बनी है, ये दावा रोग के रोगाणु तो मर देती है, परन्तु फिर भी रोगाणु  दुर्बल होकर आंतों में पड़े रहते हैं। यदि आपको कभी टाइफाइड बुखार हुआ हो और आपने 7 दिन या 14 दिन एलोपैथ की गोलियां खाकर उसे ठीक कर लिया हो तो, ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इसके रोगाणु दुर्बल होकर अंतड़ियों में पड़े रहते हैं। जैसे ही शरीर जरा कमजोर हुआ ये फिर हमला कर देते हैं।

क्योंकि एलोपैथ (अंग्रेजी) दवा केवल उसे दबाती है, शरीर से आँतों से निकालती नहीं। इस लिए इस रोग के लिए आयुर्वेद की शरण लेनी चाहिए। आयुर्वेदिक चिकित्सा भले ही समय अधिक लगाती है, परंतु रोग को जड़ से मिटाती है।

मियादी बुखार की आयुर्वेदिक चिकित्सा:-  किसी भी मेडिकल स्टोर से ‘महासुदर्शन घनवटी’ का 30 गोलियों वाला पत्ता ल लीजिए, और साथ में गिलोय सत्व ले लीजिए। महासुदर्शन घन वटी की एक गोली प्रात और एक शाम को 40 दिन खाइये, और फिर निश्चित हो जाइए आपको जीवन में कभी भी टाइफाइड तो क्या सामान्य बुखार भी नहीं होगा ।

जबर्दस्त कड़वी यह गोली टाइफाइड को तो डंडे मार मारकर खदेड़ ही देगी, और जब तक आप जियेंगे आपको टाइफाइड नहीं हो सकता।

जो भी इस गोली को लेता है, वह इसका गुणगान जीवन भर करता है । यह गोली इतनी कड़वी है कि मुँह में लेते ही तुरंत गुनगुने पानी से निगल जाइये तब भी हल्का सा कड़वा तो कर ही देती है मुंह को। यह गोली आयुर्वेद के ‘महासुदर्शन चूर्ण’ का ही घनसत्व गोली रूप में है, ताकि कड़वापन न झेलना पड़े ।

यह गोली थोड़ी सी गर्म होती है, इसलिए रात को हल्की सी बेचैनी भी कर सकती है, और हो सकता है आपको नींद थोड़ा विलंब से आए । सर्दियों में रात को कोई दिक्कत नहीं । गर्मियों में एक दो गोली खाली पेट केवल सुबह लें गुनगुने पानी से । पाँच साल से ऊपर के बच्चों को एक गोली दे सकते हैं ।

यह गोली घर रखिये और जैसे ही किसी को कोई भी बुखार चाहे वाइरल फीवर लगे हल्का सा भी शक लगे तो रात को दो गोली लेकर सो जाएं । सुबह आप ऐसे उठएंगे जैसे किसी अच्छे मिस्त्री खराब मोटरसाइकिल की बहुत अच्छे से सर्विस कर दी हो । यह गोली पेट की सफाई भी करती है । इस गोली को किसी भी मेडिकल स्टोर से या आयुर्वेदिक स्टोर से खरीद सकते है, जिसमें 30 गोलियां होती हैं ।

यह गोली खून भी साफ़ करती है । तभी तो यह जीवन भर बुखार होने की गारंटी है । टाइफाइड की तो यह दुश्मन है । जिसने इसे प्रयोग कर लिया वो जीवन भर केवल केवल इसी का गुणगान करेगा ।

Dr. R.B.Dhawan (आयुर्वेदिक चिकित्सक)

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रोगी

by:-  dr. r.b.dhawan

किस-किस श्रेणी के रोगी होते हैं? : –

१. बुद्धिमान ?

२. अबुध? 

३. दुर्मति ?

४. मुर्ख ?

प्राज्ञो रोगे समुत्पन्ने बाह्येनाभ्यन्तरेण वा। 

कर्मणा लभते शर्म शस्त्रोपक्रमणेन वा।।

च. सू . ११/५६ 

बालस्तु खलु मोहाद्वा प्रमादाद्वा न बुध्यते। 

उत्पद्यमानं प्रथमं रोगं शत्रुमिवाबुधः।।

च. सू . ११/५७ 

अणुर्हि प्रथमं भूत्वा रोगः पश्चाद्विवर्धते। 

स जातमूलो मुष्णाति बलमायुश्च दुर्मतेः।।

च. सू . ११/५८ 

न मूढो लभते सञ्ज्ञां तावद्यावन्न पीड्यते। 

पीडितस्तु मतिं पश्चात् कुरुते व्याधिनिग्रहे।।

च. सू . ११/५९ 
बुद्धिमान मनुष्य रोग के उत्पन्न होते ही बाह्य वा अभ्यन्तर वा शस्त्र कर्म रूप चिकित्सा ले कर कल्याण को प्राप्त होता है। 

अबुध ( बालक बुद्धि ) ही है वो वास्तव में जो अज्ञान वा प्रमाद वस् अपने शत्रु रूप उत्पन्न हुए रोग को प्रारम्भ में ही नहीं समझता। 

कुबुद्धि वाला – दुर्मति द्वारा नहीं समजा गया वो रोग प्रारम्भ में अणु रूप – अल्प ही होता है जो पीछे से बढ़ जाता है और बढने से बलवान हुआ रोग दुर्मति मनुष्य के बल एवं आयुष्य को नष्ट करता है। 

मूढ़ – मुर्ख व्यक्ति जब तक बलवान रोग से अधिक पीड़ित नहीं होता तब तक उसे दूर करने के लिए संज्ञान नहीं लेता। जब रोग बढ़ जाता है तब अधिक दुखी होता है तत पश्चात  व्याधि को दूर करने में अपनी बुद्धि लगाता है। 

प्रायः रोगी जो हमारे पास आते है वह अंतिम श्रेणी के होते है, कोई कोई द्वितीय या तृतीय श्रेणी के होते है, परन्तु प्रथम श्रेणी में आने वाले तो विरले ही होते है।

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गिलोय (अमृता)

गिलोय का महत्व :-

गिलोय परिचय – यह एक बहु वर्षीय लता है । इसके पत्तों का आकार पान के पत्तो जैसा होता है, आयुर्वेद में इसे गुडूची, और अमृता के नाम से जाना जाता है ।

उपयोग :- आप ने देखा होगा, हमारे देश में निरंतर पिछले कुछ वर्षों से वर्षा के बाद डेंगू , और स्वाइन फ्लू का प्रकोप हो रहा है, हस्पताल डेंगू के रोगियों से भर जाते हैं, और एलोपेथी दवा इतनी कारगर साबित नही हो रही, तब लोग आयुर्वेद की शरण मे आ रहे हैं ।

संकट के ऐसे समय में आयुर्वेद के चिकित्सकों ने इसी गिलोय से लोगो को राहत दिलाई है, इसी लिए पिछले कुछ वर्षों से लोग गिलोय के गुणों से परिचित होकर गिलोय की ओर आकर्षित हुए हैं।

गिलोय के पत्तो एवं तनों से सत्व निकाल कर इस्तेमाल किया जाता है ।

यह स्वाद में कड़वा होता है ।

गिलोय के गुण इतने हैं कि गिनाए नही जा सकते ।

इसमें सबसे बड़ा गुण यह है कि यह शरीर की रोग-प्रतिरोधक सिस्टम को बढ़ाता है । शोथ (सूजन) को  ठीक कर देता है।

मधुमेह को नियंत्रण में रखता है ।

शरीर का शोधन ( सफाई करना शोधन कहलाता है ) करता है ।

दमा एवं खांसी जैसे रोगों  में भी अच्छा लाभदायक है ।

इसे नीम एवं आंवला के रस के साथ इस्तेमाल करने पर त्वचा गत रोगों को ठीक करता है ।

नीम एवं आंवला के साथ सेवन करने पर एक्जिमा और सोरायसिस जैसे रोगों से मुक्ति मिल सकती है ।

यह एनीमिया की स्थिति में बहुत लाभदायक है । पाण्डु रोग (पीलिया ) में बहुत कारगर साबित होता है ।

 Dr.R.R.Dhawan

चरक के सूत्र (1)

चरक संहिता का एक सूत्र है – 

इच्छाद्वेषात्मिका तृष्णा सुखदुःखात् प्रवर्तते।तृष्णा च सुखदुःखानां कारणं पुनरूच्यते।।

उपादत्ते हि सा भावान् वेदनाश्रयसंज्ञकान्।स्पृश्यते नानुपादाने नास्पृष्टो वेत्ति वेदना।। (चरक संहिता शारीर स्थान 1/134-135 )

अर्थात: –

सुखों और दुखों से क्रमशः इच्छा और द्वेष स्वरूप तृष्णा की प्रवृत्ति होती है और फिर वही तृष्णा सुखों और दुःखों का कारण बन जाती है।

वही तृष्णा वेदना के आश्रयभूत शरीर और मन को दृढता पूर्वक पकडती है।स्पर्श के कारणभूत तृष्णा के अभाव में शरीर और मन एवं इन्द्रियों का संयोग नहीं होगा तब इनके संयोग के अभाव में अर्थो का संयोग नहीं होगा , अतः वेदना का भी ज्ञान नहीं होगा।

तृष्णा , रज और तम स्वरूप होती है इसी कारण मनुष्य अनेको प्रकार के अच्छे और बुरे कार्य करता है जिसका फल आत्मा भोगता है परिणाम स्वरूप अपने कर्म के फलो को भोगने के लिए बार – बार जन्म – मरण लगा रहता है जिससे दुःख की परम्परा नष्ट नहीं होती , जब तृष्णा आत्मा एवं मन से अलग हो जाती है तब आत्मा का पुनर्जन्म नही होता है।